BLOG: ऊंची जातियों को आरक्षण या वोट-बचाओ कार्यक्रम?
कौन नहीं जानता कि पांच साल पहले पीएम मोदी को मिले वोटों में ऊंची जातियों का दिल खोल समर्थन शामिल था. दरअसल, उन्हें यह आरक्षण दे कर मोदी के रणनीतिकारों ने केवल अपना यह डर दूर करने की कोशिश की है कि कहीं ऊंची जातियों के वोट उनके हाथ से फिसल न जाएं.
ऊंची जातियों को दस फीसदी आरक्षण देने के फैसले को कुछ लोगों ने मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक करार दिया है. ऐसा कहने वाले मान कर चल रहे हैं कि संसद में जैसे ही सरकार संविधान संशोधन विधेयक लायेगी, वैसे ही कांग्रेस समेत सारा का सारा विपक्ष में सांसत में फंस जाएगा. उसे या तो उस विधेयक का समर्थन करके उसके लिए दो तिहाई बहुमत मुहैया करा देना होगा, या फिर वह उसका विरोध करके ऊंची जातियों की नाराज़गी मोल ले लेगा. अगर यह मान भी लिया जाए कि सब कुछ मोदी सरकार की मर्जी से ही होता चला जाएगा (हालांकि ऐसा होना राजनीति में नामुमकिन ही होता है), तो भी सोचने की बात यह है कि क्या ऊंची जातियों के वोटों की गारंटी मिलने से मोदी को 2014 में मिले 31 प्रतिशत वोटों में कोई बढ़ोतरी होगी? क्या यह ऊंची जातियों के वोटों को खो देने के डर से उठाया गया महज एक वोट-बचाओ कार्यक्रम नहीं है?
कौन नहीं जानता कि पांच साल पहले पीएम मोदी को मिले वोटों में ऊंची जातियों का दिल खोल समर्थन शामिल था. दरअसल, उन्हें यह आरक्षण दे कर मोदी के रणनीतिकारों ने केवल अपना यह डर दूर करने की कोशिश की है कि कहीं ऊंची जातियों के वोट उनके हाथ से फिसल न जाएं. विधानसभा चुनावों से पहले वे मान कर चल रहे थे कि ऊंची जातियां कितनी भी नाराज़ हों, आखिर में वे भाजपा को ही वोट देंगी. लेकिन नतीजों के बाद वे समझ गए कि इन जातियों के पास और भी विकल्प हैं. भले ही वे किसी गैर-भाजपा पार्टी को वोट देना पसंद न करें, पर वे मतदान के दिन घर तो बैठ ही सकती हैं और वोट डालने निकलने पर नोटा का बटन तो दबा ही सकती हैं. दोनों ही सूरतों में नुकसान भाजपा का ही होगा. इसलिए अगर मोदी की यह रणनीति कामयाब होती भी है, तो 31 प्रतिशत वोटों को अमित शाह के वांछित 50 प्रतिशत वोटों की तरफ़ ले जाने वाली नहीं है. अगर मोदी को पिछली बार जितने वोट ही मिले तो गैर-भाजपा चुनावी एकता के बेहतर सूचकांक की स्थिति में भाजपा सत्ता की दौड़ में पिछड़ सकती है.
ऊंची जातियों की भाजपा से नाराज़गी का कारण केवल एससी-एसटी एक्ट पर उसका रवैया नहीं है. दरअसल, भाजपा का यह परम्परागत वोट बैंक पिछले पांच साल से देख रहा है कि मोदी के नेतृत्व में पूरी पार्टी का जम कर ओबीसीकरण हुआ है. ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि बदलने के लिए मोदी द्वारा किये गये प्रयासों के कारण भाजपा ने वह संतुलन खो दिया जिसके तहत वह दीनदयाल उपाध्याय के ज़माने से ही ऊंची जातियों और पिछड़ों के एक हिस्से का चुनावी गठजोड़ हासिल करती रही है. 2014 और फिर २2017 में भाजपा ने ऊंची जातियों के साथ गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों की स्वादिष्ट खिचड़ी पका कर असाधारण चुनावी सफलता हासिलत की थी. यह पूरा समीकरण आरक्षण के इस फैसले से बिगड़ सकता है. पता नहीं ऊंची जातियां इससे कितनी खुश होंगी, लेकिन इसका विपरीत असर उन पिछड़े और दलित समुदायों पर पड़ सकता है जो भाजपा के साथ हाल ही में जुड़े थे.
चुनाव नज़दीक आने पर इस तरह कदम के उठा कर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश मेंढक तौलने के समान होती है. पलड़े में एक मेंढक रखने पर दूसरा उछल कर नीचे गिर जाता है. उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर की मदद लेकर ही भाजपा ने कमज़ोर जातियों के वोटों की गोलबंदी कर पाई थी. राजभर ने इस दस फीसदी आरक्षण के कदम का विरोध किया है. ऊंची जातियों को पटाने के चक्कर में भाजपा इस सोशल इंजीनियरिंग को अपने ही हाथों से भंग कर सकती है. दूसरे, वह उस शहरी और आधुनिक युवा वोटर को भी निराश कर सकती है जो बाज़ार अर्थव्यवस्था में प्रगति के मौकों की तलाश में है, और आरक्षण की नीति से चिढ़ता है. पचास की जगह साठ फीसदी आरक्षण का अंदेशा इस बेरोजगार युवा वर्ग को भाजपा की विकल्प तलाशने की तरफ ले जा सकता है.
मोदी ने अगर यह कदम साल भर पहले उठाया होता तो उनके पास इसके अनपेक्षित दुष्परिणामों से निबटने का मौका होता, और वे अपने पुराने वोटरों को अपने साथ रखते हुए नये वोटरों को समझा-बुझा सकते थे. उस सूरत में उनकी नीयत पर भी कोई संदेह नहीं होता. वे एक सर्वदलीय बैठक बुला कर संविधान संशोधन के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत का जुगाड़ भी कर सकते थे. इतने बड़े कदम के लिए जरूरी तैयारी की जा सकती थी. आज इस तरह का न कोई माहौल है, और न ही समय. ऐसी स्थिति में कानूनी और विधायी दिक्कतों के कारण ऊंची जातियों को आरक्षण देने का यह कदम एक दूर की कौड़ी बन कर रह जाने के लिए अभिशप्त है. कहना न होगा कि यह असलियत इन जातियों का राजनीतिक नेतृत्व पलक झपकते समझ लेगा.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)