BLOG: क्लासरूम में CCTV मत लगाइए, न बच्चे क़ैदी हैं, और न स्कूल कोई जेल
क्लासरूम बच्चों की दुनिया है, ज़रूरी नहीं कि हर माँ बाप उस दुनिया को समझ सके. वो दुनिया उच्छृंखल भी होती है, आज़ाद ख़याल भी होती है. उसमें मस्ती भी होती है, तो मनमुटाव भी होते हैं.
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दिल्ली में क्लासरूम में CCTV लगेंगे. दिल्ली सरकार का फ़ैसला है कि माँ बाप जब चाहें, बच्चों को पढ़ते हुए देख सकें. यह निहायत ही ख़राब फ़ैसला है. बच्चे कोई क़ैदी नहीं है, न ही स्कूल कोई जेल कि हर वक़्त निगरानी से सभी लाइन पर रहेंगे.
स्कूल शिक्षा का केंद्र हैं और इंसान की शिक्षा का मतलब केवल ट्रेनिंग नहीं होती. वह किसी जानवर की ट्रेनिंग से अलग होती है, जिसमें उन्हें कंट्रोल परिस्थितियों में कुछ गुर सिखाए जाते हैं.
स्कूल वो जगह है जहां बच्चे आजादी से सोच सकें
इंसान के बच्चों की शिक्षा सिर्फ़ कुछ गुर सिखाने, कुछ पाठ पढ़ाने तक सीमित नहीं होती. स्कूल तो वो जगह है, जहां बच्चे पढ़ सकें, आज़ादी से सोच सकें, सवाल उठा सकें, उनका दिमाग़ विकसित हो कि आज के ज्ञान के परे जा सकें.
स्कूल वो जगह है जहां बच्चा अपने घर समाज की बंदिशों से दूर हो कर नया माहौल पाता है, नया सोच समझ पाता है, अपने पारिवारिक प्रभाव से इतर नए विचार विकसित कर पाता है. क्लास में CCTV केवल उनके मां बाप की नज़र ही नहीं, बल्कि उनकी सोच और जीवन दृष्टि को भी क्लास में खींच लाएगी.
बच्चों की दुनिया है क्लासरूम
क्लासरूम बच्चों की दुनिया है, ज़रूरी नहीं कि हर माँ बाप उस दुनिया को समझ सके. वो दुनिया उच्छृंखल भी होती है, आज़ाद ख़याल भी होती है. उसमें मस्ती भी होती है, तो मनमुटाव भी होते हैं. अनुशासनहीनता भी होती है और लर्निंग भी होती है. इसी सब में बच्चे जीना सीखते हैं. वो सब सीखते हैं, जिसे आजकल लाइफ़ स्किल कहते हैं. याद रहे कि बाहर की असल दुनिया मनमाफ़िक नहीं होती. अगर क्लासरूम को बिलकुल sanitize कर देंगे, बिलकुल सात्विक बना डालेंगे, तो बाहर की असल दुनिया से जूझने के तौर तरीक़े बच्चे कहां सीखेंगे?
और इस सब से अलग, सबसे ख़तरनाक एक और बात है. हर पल कैमरे की नज़र ऐसी व्यवस्था है, जिससे बच्चों के कोमल मन हर समय निगरानी में रहने के अभ्यस्त हो जाएंगे. ये समाज में नया नॉर्मल तैयार करेगा, जो आगे जा कर survelliance state को भी स्वीकार्य बना देगा. निजता, अपना स्पेस, आज़ादी, ये सब इंसानी वजूद का अहम हिस्सा हैं. कोई भी व्यवस्था अगर इन्हें ख़तरे में डालती है, तो वो एक जड़ समाज की नींव डाल रही है. इंसानी उद्यम, विचारशीलता, कुछ नया सोचने और करने की हिम्मत, इसी सब से इंसानी क़ौम आगे बढ़ती है.
टीचर का काम है स्कूल में पढ़ाई की क्वालिटी बनाना
सिर्फ़ इसलिए कि वाहवाही मिल सके, लोग देख सकें कि सरकार ने क्लासरूम कैसे सुधार दिए हैं, उसके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं आनी चाहिए जिसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं हैं और जो शिक्षा की मूल अवधारणा के ख़िलाफ़ हैं.
स्कूल में पढ़ाई की क्वालिटी बनाना टीचरों का काम है, शिक्षा अधिकारियों का काम है. उसे माँ बाप पर मत छोड़िए. साथ ही अगर स्कूलों में आप वाक़ई सुधार ला पाए, तो वो तो बच्चों में दिख ही जाएगा. मां-बाप अपने बच्चों को जानते हैं, पहचान लेंगे कि अब पढ़ाई बेहतर होने लगी है और इसका श्रेय भी ‘आप’ को दे देंगे. पल पल, हर रोज़ उन्हें क्लासरूम दिखा कर इंस्टेंट सर्टिफ़िकेट क्यूँ चाहते हैं?
मनीष सिसोदिया संवेदनशील शिक्षा मंत्री दिखायी देते हैं. उम्मीद है कि इस क़दम पर वो फिर से सोचेंगे. माना कि दौर अच्छा नहीं है, काम करने से ज़्यादा, काम का ज़िक्र ज़रूरी है. लेकिन ख़ुद को साबित करने के दबाव का दूरगामी दुष्परिणाम से वे बच्चों को बचा सकें, ये भी ज़रूरी है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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