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BLOG: जल्द ही ढूंढ़ने होंगे न्यायमूर्तियों के सवालों के जवाब

4 न्यायमूर्तियों ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र खतरे में है, ऐसे में वे नहीं चाहते कि बीस साल बाद कोई आरोप लगाए कि चंद न्यायमूर्तियों ने अपनी आत्मा बेच दी थी!

पिछला शुक्रवार (12 जनवरी, 2018) इस मायने में ऐतिहासिक था कि आजाद भारत में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के ऊपरी चार वरिष्ठ न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी. लोकुर और कुरियन जोसफ प्रेस के माध्यम से 'जनता की अदालत' में आए और न्यायपालिका के संकट को जुबान दे दी. इन न्यायमूर्तियों ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र खतरे में है, ऐसे में वे नहीं चाहते कि बीस साल बाद कोई आरोप लगाए कि चंद न्यायमूर्तियों ने अपनी आत्मा बेच दी थी! चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) दिलीप मिश्रा जी को उन्होंने जो पत्र लिखा था और जिसे सार्वजनिक किया गया, उससे उनके दो आरोप स्पष्ट हुए- एक तो यह कि सीजेआई मामले आवंटित करने में वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की अनदेखी कर कनिष्ठों को केस सौंप देते हैं. दूसरा बिंदु यह था कि महत्वपूर्ण मामलों का आवंटन उचित ढंग से नहीं होता. संकेत स्पष्ट था कि न्यायपालिका दबाव में है और पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है! न्यायमूर्तियों की प्रेस कांफ्रेंस से देश में मानो भूचाल आ गया. लेकिन इस महत्वपूर्ण और नाजुक मुद्दे पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई और केंद्र सरकार ने इस 'विवाद' से खुद को दूर रखते हुए कह दिया कि यह न्यायपालिका का मसला है और इससे वही निबटे. लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा ने कांग्रेस और विपक्ष पर इस मुद्दे को लेकर राजनीति करने का आरोप जड़ दिया और इसके नेता राम माधव ने 'क्लासरूम हो या कोर्ट, अनुशासन ज़रूरी है!'- जैसा बयान देकर यह इशारा कर दिया कि पार्टी को इन न्यायमूर्तियों का रुख जरा भी नहीं भाया. भाजपा के अभिभावक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अखिल भारतीय सह-बौद्धिक प्रमुख जे. नंदकुमार ने एक फेसबुक पोस्ट में इसे 'राजनीतक षड़यंत्र' करार दिया है. वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों (जिनमें कथित रूप से कई तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं की संलिप्तता थी) के मामले हाल ही में खुलवाने के सीजेआई बेंच के फैसले और उक्त चार में से एक न्यायमूर्ति की भाकपा नेता डी. राजा से मुलाकात को लेकर उन्होंने 'टाइमिंग' पर सवाल उठाते हुए कहा कि न्यायमूर्तियों ने जो किया वह 'अक्षम्य' है. इस मुद्दे को पूर्ण राजनीतिक रंग देते हुए सोशल मीडिया में एक युद्ध-सा छिड़ गया. जहाँ एक पक्ष (जिसमें कांग्रेस समर्थक और लेफ्ट-लिबरल तबका शामिल है) ने न्यायाधीश लोया की संदिग्ध मृत्यु का मुद्दा उठाते हुए केंद्र सरकार और भाजपा को घेरने तथा सीजेआई की जन्मकुण्डली निकालने की कोशिश की, वहीं दूसरे पक्ष (बीजेपी/सरकार समर्थक और दक्षिणपंथी तबका) ने खुलकर सरकार और भाजपा के पक्ष में आते हुए प्रेस के सामने आने वाले न्यायमूर्तियों को निशाना बनाना शुरू किया; उनकी जाति-धर्म-कर्म का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाने लगा! यह वर्ग सीजेआई मिश्रा के पक्ष में भी ताल ठोंक कर सामने आ गया और उनके पिछले फैसलों और निकट भविष्य में जिन मामलों की उनके समक्ष सुनवाई होनी है, की महानता और महत्व का हवाला देने लगा! इसी बीच स्वर्गीय न्यायाधीश लोया के बेटे अनुज ने एक प्रेस कांफ्रेंस की और कहा कि परिवार को न्यायाधीश लोया की मृत्यु को लेकर किसी पर संदेह नहीं है और उन्होंने अपील की कि इस मुद्दे पर राजनीति न की जाए. सोशल मीडिया में अनुज के प्रेस कांफ्रेंस करने पर भी सवाल उठे. कहा गया कि यह दबाव में की गई कांफ्रेंस है और चोर की दाढ़ी में तिनका वाली बात है. बताया गया कि इन्हीं अनुज ने 18 फरवरी 2015 को अपने पिता की मृत्यु की जांच के लिए एक स्वतंत्र आयोग गठित करने की मांग की थी और डर जताया था कि उनके परिवार के लोगों की ज़िन्दगी खतरे में है! दरअसल न्यायाधीश लोया सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आरोपी थे और लोया साहब के तबादले के बाद शाह बरी हो गए. लोया साहब की बहन ने अनुकूल फैसले की एवज में 100 करोड़ रुपए की रिश्वत की पेशकश का आरोप भी लगाया था. मई 2014 में लोया की संदिग्ध हालात में मृत्यु हो गई. इसकी जांच के संबंध में मुंबई उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दाखिल हैं. चारों न्यायमूर्तियों ने भी पत्रकारों को बताया था कि लोया की मृत्यु को लेकर सीजेआई से उनकी उसी सुबह बात हुई थी. अर्थात्‌ न्यायाधीश लोया की मृत्यु इस पूरे प्रकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसने जनमत को खेमों में बांट दिया है. न्यायमूर्तियों की प्रेस कांफ्रेंस से जो शंकातुर सवाल उठे हैं, उनके जवाब मिलना ज़रूरी हैं. सरकार इसे न्यायपालिका का अंदरूनी संकट करार देकर पल्ला नहीं झाड़ सकती. न्यायपालिका में अगर सब कुछ ठीक नहीं है तो उसे बिना न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आंच लाए कैसे ठीक किया जा सकता है, इस दिशा में सरकार द्वारा अपनी भूमिका स्पष्ट किया जाना ज़रूरी है. न्यायमूर्तियों की नियुक्ति हेतु कोलेजियम प्रणाली बनाने का मामला हो या न्यायालयों के आधुनिकीकरण का, केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से तनावपूर्ण संबंध रहे हैं. सरकार पर न्यायपालिका के साथ टकरावपूर्ण रवैया अपनाने के आरोप भी हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद तक न्यायपालिका को 'लक्ष्मण रेखा' पार न करने अर्थात्‌ विधायिका के कार्य में हस्तक्षेप न करने जैसी नसीहतें दे चुके हैं. अदालतों की ढांचागत दुर्गति इतनी हो चुकी है कि पूर्व सीजेआई टीएस ठाकुर एक कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के सामने रो पड़े थे! इस बार तो वर्तमान सीजेआई खुद सवालों के घेरे में आ गए हैं. उन्हें असंतुष्ट न्यायमूर्तियों द्वारा उठाए गए प्रश्नों के जवाब देना चाहिए और संदेहों का निवारण करके आम लोगों का विश्वास बहाल करना चाहिए. देश की जनता को इस बात से बड़ा फर्क पड़ता है कि उसकी न्यायपालिका का भौतिक-तंत्र मजबूत हो और सर्वोच्च अदालत की आत्मा संदेहों से परे रहे, क्योंकि अंतिम शरणस्थली वही है, और अगर न्यायमूर्तियों के कथन बेबुनियाद हैं तो उनके खिलाफ 'अनुशासनहीनता' की कार्रवाई होनी चाहिए. इस समय किसी भी पक्ष के खामोश रहने से काम नहीं चलेगा. अब बात हम सही या तुम गलत तक महदूद नहीं रह गई और इसे कांग्रेस बनाम भाजपा बनाम वामपंथी बनाम प्रशासनिक व्यवस्था बनाम प्रेस वाली बहस का रंग देने से न्याय-प्रक्रिया को लेकर पैदा हो चुकी आशंका बढ़ती ही जाएगी! लोकतंत्र के चार स्तंभों न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और प्रेस- सबका अपना-अपना महत्व और अलग-अलग भूमिकाएं हैं. इनमें से किन्हीं दो या दो से ज्यादा स्तंभों में आपसी टकराव या किसी भी एक स्तम्भ में पड़ी दरार हमारे लोकतंत्र का शीराजा बिखेर सकती है. लेखक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/VijayshankarC और फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/vijayshankar.chaturvedi (नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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