हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में मिली अनपेक्षित हार के बाद उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन टूटने की औपचारिक घोषणा अभी भले ही न हुई हो, लेकिन विधानसभा की रिक्त हुई 11 सीटों पर होने जा रहे उप-चुनावों के लिए सपा और बसपा द्वारा अपने अलग-अलग उम्मीदवार उतारने की घोषणा से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि फिलहाल इन दोनों क्षेत्रीय दलों ने अपनी राहें जुदा कर ली हैं. ब्लेम गेम भी शुरू हो गया है और अंग्रेजी की कहावत- यूनाइटेड वी स्टैंड डिवाइडेड वी फाल- वाली कहावत का इनके लिए अब कोई अर्थ नहीं रह गया है. लोकसभा चुनाव के पहले मायावती ने वादा दिया था कि गठबंधन विधानसभा चुनाव तक चलेगा ही चलेगा. लेकिन यह नतीजे आने के अगले दिन ही टूट गया.


भले ही मायावती ने बयान दिया है कि वह गेस्ट हाउस कांड और अन्य मामलों की कड़वाहट भुला कर अखिलेश यादव के परिवार के बेहद करीब बनी रहेंगी, लेकिन उनका सपा पर यादव वोटरों को न संभाल पाने वाला आरोप अखिलेश यादव के जले पर नमक छिड़कने वाला है. सपा द्वारा 2014 में जीती गई 5 सीटों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई जबकि मायावती 2019 में शून्य से 10 सीटों पर पहुंच गई हैं. और तो और गाजीपुर की सीट से जीतने वाले बसपा प्रत्याशी अफजाल अंसारी सपा के जनाधार के भरोसे ही चुन कर आ पाए हैं. गठबंधन का सर्वाधिक फायदा लेने के बावजूद बसपा द्वारा मढ़ा गया दगाबाजी का आरोप भविष्य में गठबंधन करते वक्त सपा किस हद तक भुला पाएगी, कहना मुश्किल है.


यूपी में गठबंधन की हार से उपजा संकट अप्रत्याशित भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि अनिश्चितता और अविश्वसनीयता मायावती की कार्यशैली में निबद्ध रहा है. कहा तो यहां तक जाता है कि मायावती को बसपा की कम खुद की चिंता ज्यादा रहती है. इसीलिए वह कार्यकर्ताओं के मनोबल की परवाह किए बगैर गुजरात जाकर बीजेपी का प्रचार भी कर लेती हैं, अलग लड़ने के बावजूद कांग्रेस को एमपी की सरकार बनाने के लिए समर्थन भी दे देती हैं, राजस्थान में कांग्रेस-बीजेपी के खिलाफ हर जगह प्रत्याशी उतार देती हैं, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को झटका देकर जोगी से गठबंधन कर लेती हैं. खुद यूपी में उन्होंने कभी बीजेपी तो कभी सपा के समर्थन से सरकार बनाई थी और कभी वह कांग्रेस-सपा गठबंधन के खिलाफ पूरी सीटों पर चुनाव लड़ लेती हैं. इसलिए राजनीतिक अखाड़े के पुराने पहलवान पिता मुलायम सिंह के मना करने के बावजूद अखिलेश का मायावती से गठबंधन करना दूरदर्शी कदम तो नहीं ही माना जा रहा था. लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद यह आशंका सच साबित हुई.


गठबंधन की नाकामयाबी की वजह अखिलेश और मायावती द्वारा अपने कोर वोटर यादवों और जाटवों को टेकेन फॉर ग्रांटेड लेने की भूल है. इसे लेकर अब सपा के अंदर से भी आवाजें उठने लगी हैं. वे इतने आत्मविश्वास में थे कि संगठन की चाबी अपने हाथ में रखने वाले चाचा रामगोपाल यादव की बगावत के बावजूद यादव, जाटव और मुसलमानों का कुल वोट प्रतिशत ही इतना हो जाएगा कि बीजेपी हवा में उड़ जाएगी. लेकिन हुआ यह कि 2014 में अलग-अलग लड़ने पर सपा-बसपा को जो कुल मिलाकर 42.2% वोट मिला था, वह 2019 में गठबंधन करके लड़ने पर मात्र 37.22% ही रह गया. चश्मदीद बताते हैं कि जहां समझौते में सीट बसपा के खाते में गई थी, वहां यादव जी लोग ईवीएम में साइकल का निशान न देख कर किसी को भी वोट डालने की बात कह रहे थे. इसी तरह बसपा के समर्थक ईवीएम में हाथी ढूंढ़ रहे थे. वर्षों से यादवों और जाटवों की सांप-नेवला वाली अदावत को अखिलेश और मायावती ने अति आत्मविश्वास के चलते पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया था और इसका खामियाजा सपा को ज्यादा भुगतना पड़ गया. स्पष्ट है कि घात भी दोनों तरफ से हुआ है.


मायावती और अखिलेश का चुनाव बाद आकलन है कि इसी गफलत में उनके कट्टर समर्थकों को छोड़ दिया जाए, तो सामाजिक न्याय और सत्ता में भागेदारी की दशकों से आस लगाए बैठे पिछड़ा और दलित वर्ग के अन्य छोटे समूह मोदी जी से उम्मीद लगाकर इस बार बीजेपी की शरण में चले गए. किस हद तक गए और क्या वे लौट सकते हैं, इसका परीक्षण करने के लिए ही 11 विधानसभा सीटों पर होने जा रहे उप-चुनाव में दोनों दलों की तरफ से अकेले दम पर लड़ने की बात की जा रही है. मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि सपा अपने कार्यकर्ताओं को बसपा के काडर की तरह काम करना सिखाए वरना आगे गठबंधन में कठिनाई होगी. ऐसे में अखिलेश की हालत अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत जैसी हो गई है. हालांकि मायावती भी बखूबी समझती हैं कि पिछले कई चुनावों से उनका जनाधार विभिन्न जातियों में लगातार घटता ही गया है और अब नई जातियों को अपने साथ जोड़ पाना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होगा.


इसकी मूल वहज है बीजेपी की नई सोशल इंजीनियरिंग. केंद्र और राज्य में सत्तानशीन होने का एडवांटेज उसे यह मिला है कि वह गैर यादव और गैर जाटव जातियों समेत उच्च वर्ग के लोगों को भी पीएम आवास योजना, गरीब की इज्जत बचाने का प्रतीक बनाए गए शौचालय, महिलाओं को धुंए से मुक्ति दिलाने वाली उज्जवला योजना तथा किसान के खाते में सीधे मनी ट्रांसफर योजना अंशतः ही सही, लागू करके दिखा चुकी है. इसके उलट अखिलेश और मायावती के लगातार सत्ता से बाहर होने के कारण उन्हें कोई लाभ मिलता नजर नहीं आता. उनके छोटे-मोटे सरकारी काम भी नहीं होते. इन जातियों का सत्ता में भागेदारी का सपना तब ही टूट गया था जब सपा यादवों तथा बसपा जाटवों की पार्टी बना दी गई थी. बीजेपी ने पन्ना प्रमुख और मेरा बूथ सबसे मजबूत का अभियान चलाकर यादवों और जाटवों को भी फोड़ने में काफी हद तक सफलता पाई है. इसमें मुख्य भूमिका इस बात की भी रही कि यह मुख्यमंत्री का नहीं बल्कि प्रधानमंत्री का चुनाव था और जाटवों-यादवों के सामने इस पद के लिए घूम-फिर कर मोदी जी का चेहरा ही सामने आता था.


यूपी के कुछ विधायकों के सांसद चुने जाने के चलते रिक्त हुई सीटों पर होने जा रहे उप-चुनाव में अगर यादवों और जाटवों की घर वापसी नहीं हुई, तो गठबंधन के दोनों खेमों में घबराहट फैलना तय है. और अगर अखिलेश व मायावती परिणामों से संतुष्ट होते हैं तो आगामी विधानसभा चुनावों के लिए रणनीतिक समझौता होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी. बीजेपी कोशिश तो यही करेगी कि न नौ मन तेल हो न राधा नाचने पाए. अगर बीजेपी की मंशा सफल हुई तो विधानसभा चुनावों में उसे सपा और बसपा का अलग-अलग शिकार करने से भला कौन रोक पाएगा.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)


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