आधार क्रमांक की अनिवार्यता और इससे निजता के उल्लंघन पर अहम फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने 4-1 के बहुमत से देश के सामने बिलकुल स्पष्ट कर दिया है कि आधार कार्ड असंवैधानिक और आधारहीन नहीं है. यह भी जाहिर हो गया है कि यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई) द्वारा लोगों को जारी किया जाने वाला एक अनोखा क्रमांक कानूनी तौर पर नागरिकों की पहचान संख्या नहीं, बल्कि भारत में रहने वाले लोगों की पहचान संख्या है. अब आधार की अनिवार्यता उन चीजों के लिए समाप्त कर दी गई है, जिनसे आम आदमी सबसे अधिक प्रभावित होता है. चाहे सरकारी योजनाओं का लाभ हो, सब्सिडी हो या बच्चों की शिक्षा, वो सिर्फ भारत में किसी के रहने के नाते नहीं मिलती बल्कि वह नागरिकों का अधिकार है. यानी शीर्ष अदालत ने सभी आम-ओ-खास को आधार की अवधारणा और इसके संभावित दुरुपयोग की आशंकाओं के बीच का जाला काफी हद तक साफ कर दिया है.
आधार कार्ड डेटा के दुरुपयोग को लेकर आशंकाओं-कुशंकाओं का दौर 2009 में इसकी परिकल्पना के समय से ही प्रारंभ हो गया था. यूपीए सरकार की दलील थी कि सरकारी योजनाओं का लाभ पात्र व्यक्ति तक सीधे पहुंचाने, अवैध लेन-देन रोकने और बिचौलियों की छुट्टी करने के लिए यह कारगर हथियार साबित होगा. लेकिन दिसंबर 2011 में इस बिल पर स्टैंडिंग कमेटी ने सवाल उठाते हुए कहा था कि लोगों की निजता और संवेदनशील जानकारी का ध्यान कैसे रखा जाएगा? इस पर प्राधिकरण के चेयरमैन नंदन नीलकेणी का जवाब था कि डेटा लीक की सुरक्षा के पूरे चाक-चौबंद इंतजाम किए गए हैं. हालांकि सरकार की ओर से इस तरह की घोषणा कि उसका डेटाबेस सुरक्षित है, स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय है. कई बार देश-विदेश के शीर्ष प्रतिष्ठानों की वेबसाइट हैक होती देखी गई हैं. इसीलिए किसी नीति का लक्ष्य संभावित जोखिम को ध्यान में रखकर ही निर्धारित किया जाना चाहिए, न कि शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ा कर. सरकार के नियंत्रण वाले केंद्रीकृत डेटाबेस के साथ कई जोखिम जुड़े होते हैं. डेटाबेस हैक या लीक होने पर अंकीय जानकारी तो आप बदल सकते हैं लेकिन फिंगरप्रिंट या आंख की पुतली संबंधी जानकारी कोई मां का लाल नहीं सुधार सकता.
जब 30 नवंबर 2012 को कर्नाटक हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज के.एस. पुट्टास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की और दलील दी थी कि बायोमैट्रिक डेटा लेना लोगों की निजता का हनन है, तो कोर्ट ने बार-बार स्पष्ट किया कि किसी नागरिक के लिए आधार कार्ड प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है. साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली; खासतौर पर खाद्यान्न, रसोई ईंधन- जैसे केरोसिन के अलावा किसी और मकसद से केंद्र या राज्य सरकारें इसका इस्तेमाल नहीं करेंगी. आधार कार्ड जारी करते वक्त किसी व्यक्ति के बारे में प्राप्त की गई जानकारी का इस्तेमाल किसी अन्य मकसद से नहीं किया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आधार कार्ड योजना पूरी तरह से स्वैच्छिक हैं और जब तक कोर्ट इस पर कोई अंतिम आदेश नहीं दे देती है, इसे अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है. लेकिन 21 मार्च, 2017 को मोदी सरकार ने इनकम टैक्स ऐक्ट में सेक्शन139-एए को शामिल करके पैन कार्ड और रिटर्न फाइल करने के लिए आधार को अनिवार्य कर दिया. इसी साल 21 अक्टूबर को आरबीआई ने भी कह दिया कि बैंक में अकाउंट खोलने और 50 हजार रुपए से अधिक के लेनदेन पर आधार कार्ड अनिवार्य होगा. यानी एक तरफ बार-बार सुप्रीम कोर्ट कहे जा रहा था कि आधार अनिवार्य नहीं है, दूसरी तरफ सरकार कई योजनाओं के लिए इसे अनिवार्य बनाती जा रही थी.
कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने 28 जनवरी, 2009 को यूआईडीएआई की अधिसूचना जारी करने से पूर्व संसद की मंजूरी लेना भी जरूरी नहीं समझा था. इसे योजना आयोग से जारी करवाया गया. करीब 6 साल तक नागरिकों के फिंगर प्रिंट और आंखों की पुतलियों की छाप गैर कानूनी तरीके से जमा की जाती रही. और भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने मार्च 2016 में इसे ऐसे वित्त विधेयक के जरिए लोकसभा में चालाकी से पारित करवाया, जिसे राज्यसभा ले जाने की जरूरत ही नहीं होती. इसके बाद नागरिकों की बायो-मीट्रिक जानकारी लेने का सिलसिला कानूनी तौर पर चला. एनडीए की दलील थी कि कालेधन पर नजर रखने और राष्ट्रीय सुरक्षा की निगरानी करने के लिए आधार जरूरी है. प्रश्न यह है कि आखिर यूपीए और एनडीए सरकारों की आधार के बहाने नागरिकों की गोपनीय और जैविक जानकारी जुटाने को लेकर असली मंशा क्या थी? जो नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए सार्वजनिक मंचों पर आधार के मुखर विरोधी रहे, वही मोदी जी प्रधानमंत्री बनते ही आधार की हिमायत में घोर आक्रामक कैसे हो गए? उनके शासन में बैंक और मोबाइल कंपनियां ग्राहकों को चेतावनी देने लगीं कि या तो ग्राहक अपने पैन कार्ड, बैंक खाते और मोबाइल नंबर से अपना-अपना आधार क्रमांक जोड़ लें वरना सेवा या खाता बंद कर दिया जाएगा! माहौल ऐसा बनाया गया कि आगे से आधार कार्ड ही भारतीय जीवन का आधार होगा.
देखा जाए तो यूपीए के जमाने का सामाजिक सुरक्षा क्रमांक देने वाला एक प्लास्टिक कार्ड एनडीए की सरकार में नागरिकों के भयादोहन का आधार बना कर रख दिया गया. इसे जन-धन खाते से लेकर, मनरेगा मजदूरी, पेंशन, गैस कनेक्शन, शादियों के पंजीकरण, अस्पताल में इलाज और यहां तक कि बच्चों के स्कूल में भर्ती होने तक के लिए जरूरी दिखा दिया गया. भले ही सरकार दावा करती रही कि लोग स्वेच्छा से आधार कार्ड बनवा रहे हैं, लेकिन हकीकत में उन्हें किसी न किसी चीज का डर दिखाया जाता रहा. 28 सितंबर, 2017 को सिमडेगा (झारखंड) जिले के कारीमाटी में कोयली देवी की बेटी संतोषी भात-भात चिल्लाते हुए इसलिए मर गई थी कि राशन डीलर की पीओएस (प्वाइंट आफ सेल्स) मशीन से आधार कार्ड लिंक्ड नहीं होने के कारण उसके परिवार को आठ महीने से राशन नहीं मिला था! रितिका खेड़ा जैसी कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक 2017-18 के दौरान 18 मौतें सीधे तौर पर आधार कार्ड के कारण हुई थीं. स्पष्ट है कि आधार कार्ड पर जोर नागरिक सुरक्षा के लिए नहीं, नागरिक नियंत्रण के लिए दिया जाने लगा था.
अभी पिछले दिनों तक आधार कार्ड में अद्यतन (कुछ अपडेट कराने) या खो जाने पर नया बनवाने के लिए रेलवे आरक्षण की तरह मुंह अंधेरे से लाइनें लगती थीं. लोग परम भयातुर होकर धक्के खाते घूमते थे कि उनका आधार कार्ड संबंधी काम किस संस्था की किस शाखा पर होगा. लोगों को अहसास कराया जा रहा था कि आधार कार्ड के बिना उनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा. इसे भारत के प्रत्येक नागरिक के जीवन की तमाम गतिविधियों का पूरा ब्यौरा उसके एक आधार कार्ड के जरिए तैयार करने की चाल कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी.
यह भय अकारण नहीं है. सर्वसत्तात्मक, तानाशाही और बंद प्रवृत्ति वाले देश अपने नागरिकों को दासों की तरह कठपुतली बना कर रखने में भरोसा रखते हैं. चीन के शिन्जियांग इलाके में वहां की सरकार ने 12 से 65 साल के लोगों के डीएनए के नमूने, फिंगरप्रिंट, आंखों की पुतलियां और खून के नमूने की पूरी जानकारी को घरेलू रजिस्ट्रेशन कार्ड्स के साथ जोड़ दिया था. इसके साथ चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर, सीसीटीवी कैमरे और बायोमेट्रिक डेटाबेस जोड़कर इसे नागरिकों पर नियंत्रण करने की शानदार तकनीक के रूप में पेश किया गया. आज कहीं भी कोई गारंटी नहीं है कि कोई सरकार कभी भी सर्वसत्तात्मक और अलोकतांत्रिक नहीं बन बैठेगी. इसलिए आधार कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारतीय नागरिकों के लिए भारी राहत भरा है. अब मोबाइल सिम, बैंक खाता, सीबीएसई, यूजीसी, निफ्ट और कॉलेज, स्कूल दाखिला, निजी कंपनियां आधार क्रमांक नहीं मांग सकेंगी, केवल पैन कार्ड, आयकर रिटर्न और सरकारी सब्सिडी के लिए आधार क्रमांक की जरूरत होगी. निश्चित ही अब आधार कार्ड नागरिकों को पहले जैसा भयावह और कानून का कहर नहीं जान पड़ेगा.
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