जींद रेप मामले के मुख्य आरोपी की डेडबॉडी मिलने से पूरा मामला पलट गया है. अब शक जताया जा रहा है कि कहीं यह पूरी घटना ऑनर किलिंग से जुड़ी हुई तो नहीं है. यह एक इत्तेफाक ही है कि इसके अलावा कोर्ट ने केंद्र सरकार को फटकार लगाई है कि वह अपनी जाति से बाहर या एक ही गोत्र में शादी करने वाले कपल्स की सुरक्षा क्यों नहीं कर पा रही. अगर वह ऐसा नहीं कर सकती तो अदालतें भी हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठ सकतीं. फैसला उन्हें ही करना होगा.
ऑनर किलिंग हमारे यहां का एक बुरा रिवाज है. अपने परिवार या समुदाय के नाम पर किसी को मार देना, सम्मान के लिए हत्या कहा जाता है. औरत को चूंकि हम परिवार, समुदाय की इज्जत मान बैठे हैं, इसीलिए उस पर बट्टा लगने के डर से उसकी जान लेने से भी नहीं चूकते. यूं जींद का मामला एक नाबालिग लड़की का था, लेकिन ऐसी स्थिति में तो संवेदनशीलता और बढ़ जाती है. जब सुप्रीम कोर्ट एडल्ट की शादी कहता है तो इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं होता कि आप नाबालिग को किसी काम से रोकने के लिए उसकी हत्या कर दें. हत्या, हर हाल में हत्या ही होती है.
ऑनर किलिंग यूं पूरी दुनिया का सच है. मतलब दुनिया के हर कोने में औरत को सामुदायिक इकाई की प्रतिष्ठा समझा जाता है. यूरोप से लेकर मिडिल ईस्ट और अमेरिका से लेकर एशिया तक के कितने ही देशों में ऐसे मामले आम बात हैं. आखिर औरत, हर जगह औरत ही तो है. जहां तक अपने देश की बात है, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के डेटा सारा खुलासा करके रख देते हैं. उनका कहना है कि 2014 से 2016 के बीच ऑनर किलिंग के अपराध दो गुना से अधिक बढ़े हैं. 2015 में तो ऐसे 192 मामले दर्ज किए गए थे. लेकिन ये तो वे मामले हैं जिनका लिखित रिकॉर्ड है. कितने मामले तो पुलिस तक पहुंचते ही नहीं. इज्जत के नाम पर घर के किसी कोने में दफन कर दिए जाते हैं.
दिक्कत यह है कि दूसरे देशों की तुलना में ऑनर किलिंग के लिए हमारे यहां अब तक कोई कानून मौजूद नहीं है. हम इस किलिंग को मर्डर में काउंट करते हैं और उसी के हिसाब से सजा भी नियत करते हैं. अब तक ऐसे मामलों में सजा आईपीसी के सेक्शन 302 के तहत दी जाती है जो कि किसी भी तरह की इरादतन हत्या के मामले में लागू होता है. इसके अलावा सेक्शन 307, 308, 120 ए और बी, 107-116, 34-35 भी हत्या से जुड़ी दूसरी धाराएं हैं जो ऑनर किलिंग के मामले में भी लागू होती हैं. कानून के जानकार कहते हैं कि अगर कानून का अच्छी तरह से पालन किया जाए तो ऐसे मामले अपने आप कम हो जाएंगे. जबकि नए कानून के हिमायती कहते हैं कि इसके लिए इंडियन एविडेंस एक्ट में भी संशोधन किया जाना चाहिए ताकि खुद को निर्दोष साबित करने का दबाव खाप पंचायत या परिवार के सदस्यों पर हो. साथ ही ऐसा कानून बनाया जाए जिसमें खाप पंचायत और हत्या के आरोपियों को एक समान सजा दी जा सके.
करीब सात साल पहले यानी 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और आठ राज्यों को नोटिस जारी किया था. कोर्ट ने पूछा था कि उन्होंने ऑनर किलिंग को रोकने के लिए क्या कदम उठाए हैं. तब कानून मंत्री की तरफ से इंडियन पीनल कोड में संशोधन करने और खाप पंचायतों पर लगाम लगाने का प्रस्ताव रखा गया था लेकिन फिर इसे सरकार ने ही रद्द कर दिया. यह प्रयास कई बार किया गया कि ऑनर किलिंग पर कोई कानून बनाया जाए लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा.
वैसे सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ खाप पंचायतों को ही नहीं, परिवारजन को भी लताड़ा है. पीछे ऐसे कितने ही मामले सामने आए हैं जिनमें सरकारी मशीनरी से लेकर माता-पिता तक प्यार के दुश्मन बन गए हैं. जाति के साथ तमाम पूर्वाग्रहों ने रिश्तों को तबाह कर दिया है. धर्म की तब्दीली को दहशतगर्द साजिश का नाम दिया गया है. माना गया है कि षडयंत्र के तहत लड़कियों के दिमाग की धुलाई की जा रही है. खुद को हादिया कहलाना पसंद करने वाली एक एडल्ट लड़की को तो सीधे सुप्रीम कोर्ट के सामने पुकार लगानी पड़ी थी. दरअसल आम माता-पिता, खाप पंचायतों और कई बार निचली अदालतों का यह ख्याल होता है कि शादी जैसा बड़ा फैसला कोई अपनी मर्जी से नहीं ले सकता. लड़कियां क्योंकि कमजोर दिमाग की होती हैं, इसीलिए उनके फैसलों पर तो बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता.
आप औरत के फैसले पर भरोसा नहीं करते, इसीलिए एनएसएसओ के डेटा कहते हैं कि श्रम बाजार में औरतों की हिस्सेदारी सिर्फ 25% है. संसद में 11.4% है और विधानसभाओं में 8% के करीब. सुप्रीम कोर्ट के 67 साल पुराने इतिहास में सिर्फ 6 महिला जज रही हैं, और अब सातवीं, इंदु मल्होत्रा की बारी आई है. कंपनीज एक्ट, 2013 के इस नियम को तोड़ते हुए कि सभी लिस्टेड कंपनियों को अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला डायरेक्टर को रखना होगा. सिर्फ 71% कंपनियां औरतों के विवेक पर भरोसा करती हैं. निफ्टी 500 की 357 कंपनियों ने ही न्यूनतम शर्त- कम से कम एक महिला डायरेक्टर- को पूरा किया है. जाहिर सी बात है, सभी मेरिट की बात करते हैं और मेरिट में औरतें तो आती ही नहीं. उन पर कौन विश्वास करे.
लड़कियों पर विश्वास नहीं करते, इसीलिए कभी उन्हें मारते हैं, कभी उनके सवालों को. मन को. लड़कियां भी चुपचाप खुद को मृतप्राय समझ लेती हैं. अगर कोई सांस लेने की कोशिश करती है तो हम बिलबिला जाते हैं. तब गला दबाने के अलावा क्या चारा होता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर हमें अपनी बहन, मां, पत्नी, बेटी पर नजरे इनायत करने का मौका दिया है. सबसे पहले हमें उन्हें अपने फैसले लेने की आजादी देनी होगी. खाप-पंचायतें हम सबके भीतर कहीं न कहीं छुपी बैठी हैं. लड़कियां राष्ट्रीय संपत्ति नहीं हैं. न माता-पिता, न परिवार, न जाति-पंच, न धर्म उसकी तरफ से बोलने का हकदार है. सुप्रीम कोर्ट ने यही दोहराया है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)