BLOG: तेलंगाना विधानसभा चुनाव- क्या कांग्रेस, टीडीपी गठबंधन केसीआर का सपना तोड़ पाएगा?
तेलंगाना के मुख्यमंत्री कल्वकुंतल चंद्रशेखर राव उर्फ केसीआर मौका देख कर चौका मारने वाले नेता के तौर पर जाने जाते हैं. वह हमेशा अपने समर्थकों और विरोधियों को दुविधा में रखते हैं और पता ही नहीं लगने देते कि उनका अगला कदम क्या होगा? खास बात है कि केसीआर की पार्टी टीआरएस विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ कराए जाने के लिए लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेतृत्व के सुर में सुर मिला रही थी, जिससे ये संकेत मिल रहा था कि तेलंगाना राज्य के चुनाव हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों के साथ नहीं, बल्कि लोकसभा के आगामी आम चुनाव के साथ ही होंगे. लेकिन केसीआर ने अप्रत्याशित रूप से अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ सहयोगियों की राय को ताक पर रख कर छह सितंबर की सुबह मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और विधानसभा भंग करने का एलान कर दिया.
आंध्र प्रदेश से अलग हुए इस नए-नवेले राज्य में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) की सरकार 2014 में बनी थी, इसलिए उसके पांच साल भी मई 2019 में ही पूरे होने थे. वैसे तो राज्य में समय पूर्व चुनाव की अटकलें तभी लगनी शुरू हो गई थी जब राव ने पिछले दिनों दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की थी. कहा तो यह भी जा रहा है कि ज्योतिष विद्या, अंकशास्त्र और वास्तु विज्ञान में आस्था रखने वाले केसीआर अपने लिए छह के अंक को सौभाग्यशाली मानते हैं, इसीलिए उन्होंने छह सितंबर की तिथि को चुना. लेकिन चुनाव आयोग का क्या किया जाए, जिसने तेलंगाना में मतदान 7 दिसंबर को कराना तय किया है. इस दिन अमावस्या पड़ती है, और केसीआर इस तिथि को लेकर बहुत असहज बताए जा रहे हैं और अपने सपनों की कुर्सी के लिए खतरा मानते हैं.
लेकिन जानकारों का मानना है कि केसीआर की कुर्सी को असली खतरा तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी), कांग्रेस, तेलंगाना जन समिति और भाकपा का गठबंधन मजबूत हो जाने के कारण पैदा हुआ है. टीडीपी के 35 साल के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका है, जब उसने किसी भी राज्य में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया है. राज्य में पिछला और पहला चुनाव टीडीपी ने बीजेपी के साथ मिलकर लड़ा था. तेलंगाना पहले आंध्र प्रदेश का हिस्सा था, इसलिए स्वाभाविक ही है कि इस राज्य में टीडीपी का खासा प्रभाव है. पिछले चुनावों में टीडीपी को मिले 12% और कांग्रेस के 25% वोटों को जोड़ें तो यह टीआरएस को मिले 34% वोटों से अधिक बैठते हैं. वाम दलों की बात करें तो उनके पास ऐतिहासिक आंदोलन की पूंजी और एक निश्चित वोट बैंक हैं और उनके 7 प्रत्याशी चौथे नंबर थे. इस अंकगणित की वजह से टीडीपी को यह लगता है कि अगर कांग्रेस, टीडीपी और भाकपा उसके साथ कटिबद्ध होकर लड़ें तो केसीआर को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है.केसीआर की सबसे बड़ी ताकत यह है कि राज्य की जनता उन्हें तेलंगाना को अलग अस्तित्व देने के अभियान से जोड़कर देखती है. उन्होंने अलग राज्य बनाने का लेश मात्र श्रेय भी कांग्रेस (यूपीए) को लेने नहीं दिया. कृषि के क्षेत्र में उनके काम की सराहना उनके विपक्षी भी करते हैं, फिर चाहे वह काकतीय परियोजना के तहत सिंचाई व्यवस्था दुरुस्त करने की बात हो या फिर रायुतु बंधु योजना के तहत किसानों को प्रति एकड़ सालाना 8,000 रुपये की सरकारी आर्थिक मदद देने की योजना हो. भू-राजस्व के रिकार्ड व्यवस्थित करके भी उनकी सरकार ने मतदाताओं का दिल जीता है. लेकिन स्वाभाविक सत्ता विरोधी लहर के साथ-साथ विपक्षी गठबंधन सशक्त हो जाने से उनके लिए अब चुनाव जीतना केकवॉक नहीं होगा.
समय पूर्व चुनाव कराने का निर्णय लेते समय केसीआर ने सोचा होगा कि तेलंगाना के विधानसभा चुनाव अगर लोकसभा चुनावों के साथ हुए, तो चारों तरफ केंद्र की उपलब्धियां और राष्ट्रीय मुद्दे गूजेंगे तथा उनके राज्य में किए गए अच्छे कामों पर भी पानी फिर जाएगा. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी भी राज्य पर खास जोर देंगे. जबकि चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ चुनाव निपट जाने से तेलंगाना राष्ट्रीय समिति को लोकसभा चुनाव की तैयारियों का पर्याप्त मौका मिलेगा. टीआरएस का एक आकलन यह भी था कि अगर राज्य का चुनाव लोकसभा के साथ होता तो उसके सामने कांग्रेस या बीजेपी के साथ गठबंधन करने का काफी दबाव होता. यह भी हो सकता था कि लोकसभा चुनाव में केसीआर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच में पिस कर रह जाते. लेकिन समय पूर्व चुनाव करा लेने पर वह कांग्रेस से भिड़ंत कर सकते हैं और इसमें पीछे से उनको बीजेपी का समर्थन भी मिल सकता है. बीजेपी के साथ केसीआर खुल कर नहीं जा सकते थे क्योंकि राज्य में मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में है. इस नुकसान से बचने के लिए एहतियात के तौर पर उन्होंने विधानसभा भंग करते ही ट्वीट कर दिया था- "हम चुनाव अकेले लड़ेंगे, लेकिन बेशक हम ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के मित्र हैं.", जो ओवैसी की पार्टी है और हैदराबाद में उसका सिक्का चलता है.
अबकी बार बीजेपी भी तेलंगाना को काफी गंभीरता से ले रही है क्योंकि दक्षिण भारत में अपना पैर जमाने की कोशिश में लगी बीजेपी के लिए तेलंगाना तुरुप का इक्का साबित हो सकता है और उसके लिए केसीआर दक्षिण में हाथ से निकल चुके चंद्रबाबू नायडू का स्थानापन्न बन सकते हैं. केसीआर का मोदी का गुणगान और राहुल गांधी को मसखरा बताना बीजेपी की उम्मीदों को और हरा करता है. फिलहाल बीजेपी का लक्ष्य यह है कि अपने 5 वर्तमान विधायकों की संख्या को 20 तक बढ़ाया जाए और त्रिशंकु विधानसभा की सूरत उत्पन्न होने पर किंगमेकर की भूमिका में आया जाए. यह संभव है क्योंकि केसीआर की पीएम मोदी से निकटता का संदेश ओवैसी की मित्रता का दम भरने के बावजूद टीआरएस के अल्पसंख्यक वोट बैंक का आधार खिसका सकता है और उसकी सीटें घट सकती हैं.उधर बीजेपी-एनडीए के खिलाफ अपनी व्यापक सियासी लड़ाई के लिए चंद्रबाबू नायडू को तेलंगाना में कांग्रेस का जूनियर पार्टनर बनने से कोई परहेज नहीं है. कांग्रेस ने भी मौके की नजाकत भांपते हुए बिग ब्रदर का अहंकार छोड़ कर टीडीपी और अन्य छोटे दलों से हाथ मिला लिया है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद तेलंगाना के तूफानी दौरे कर रहे हैं. 2014 में जब आंध्र प्रदेश का विभाजन हुआ था तो कांग्रेस को लग रहा था कि नया राज्य बनने से उसे फायदा मिलेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. केसीआर की सरकार बनने के बाद कांग्रेस उनकी सबसे बड़ी विरोधी पार्टी हो गई थी. अब केसीआर ने विधानसभा भंग करने के दिन ही सभी मौजूदा विधायकों समेत 105 उम्मीदवारों का ऐलान कर टीआरएस में असंतोष का पिटारा खोल दिया है और टिकट नहीं मिलने से टीआरएस के कई नेता कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं. कांग्रेस का टिकट हासिल करने को लेकर जिस तरह की उत्सुकता और उत्साह है वह जमीन पर बदलती राजनीति की हवा का साफ संकेत है.
1970 में युवक कांग्रेस के सदस्य के तौर पर अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत करने वाले केसीआर टीडीपी सरकार में मंत्री बने और आगे चलकर यूपीए-वन में केंद्रीय मंत्री भी बने. 2001 में तेलंगाना संघर्ष समिति का गठन करके वह तेलंगाना क्षेत्र की राजनीतिक धुरी बन गए और नए राज्य के गठन के बाद 2018 में वह अब दूसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी के प्रबल दावेदार हैं और तेलंगाना की राजनीति का एकमात्र चेहरा बने हुए हैं. देखना दिलचस्प होगा कि समय से काफी पहले ही भाकपा, कांग्रेस और टीडीपी का गठबंधन सक्रिय करवा कर सियासी जुआ खेलने वाले केसीआर का सपना दोबारा पूरा होता है या नहीं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)