BLOG: बचपन की कुलांचों को सीसीटीवी से काबू करने की कोशिश बहुत बुरी है
इस पूरी बहस में शिक्षकों के निजता का अधिकार भी खतरे में है. बच्चों को अनुशासित और सुरक्षित रखने के फेर में शिक्षकों के निजता के हक को भी ताक पर रखा जा रहा है.
अठारहवीं शताब्दी के मशहूर दार्शनिक जेरेमी बेंथम की पेनोप्टिकन की अवधारणा दिल्ली की आप सरकार को बहुत भाई लगती है. उसी की तर्ज पर वह दिल्ली के स्कूली बच्चों पर नजर रखने का इरादा रखती है. कोई पूछ सकता है, पेनोप्टिकन क्या...बेंथम ने 1785 में एक गोलाकार इमारत का ब्ल्यूप्रिंट तैयार किया था जिसके बीच में बने ऊंचे टावर से उस इमारत में रहने वालों पर नजर रखी जा सकती थी. पेनोप्टिकन में महत्व नजर रखने का है. इस इमारत में कैदी भी रखे जा सकते थे, और विक्षिप्त लोग भी. सोशल साइंसेज में पेनोप्टिकन का विचार एक रूपक की तरह है. बाद में फ्रेंच चिंतक मिशेल फूको ने कहा कि आधुनिक समाज में सिर्फ जेलखाने ही नहीं, सेना और स्कूल का विकास भी पनोप्टिकन की नकल पर किया गया है.
दिल्ली के स्कूल पनोप्टिकन बनने जा रहे हैं. उद्देश्य बच्चों पर नजर रखना है. वे सुरक्षित रहें, उनकी पढ़ाई लिखाई अनुशासन से भरी हो. माता-पिता के पास लाइव स्ट्रीमिंग का मौका हो. एक एप की मदद से वे बच्चे की सारी गतिविधि और स्कूलवालों के आचरण पर नजर रख सकें. सीसीटीवी दिल्ली सरकार को वैसे भी काफी प्रिय लगता है. औरतों की सुरक्षा का मामला हो तो बसों में लगवा दो. बच्चों की सुरक्षा का मामला हो तो स्कूलों में लगवा दो. सब चौक चौबस्त हो जाएगा. हर सामाजिक सुरक्षा का शॉर्टकट हल-एडवांस टेक्नोलॉजी. बाकी किसी बदलाव की जरूरत खत्म. वैसे सरकारी स्कूलों को लेकर दिल्ली सरकार की तारीफ करने वालों की कमी नहीं. कहा जाता है कि दिल्ली में स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर सुधरा है और पढ़ाई-लिखाई की शैली भी बदली है. बोर्ड एग्जाम्स में एक्स्ट्रा क्लास लगाई जाती हैं. नियमित पीटीएम होती है. लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. स्थायी टीचरों का अब भी अभाव है. बच्चे अच्छी लाइब्रेरी और अच्छे खेल के मैदानों के लिए अब भी इंतजार कर रहे हैं. ऐसे में सीसीटीवी का गिमिक सबके सामने हाजिर है.
शिक्षा में अनुशासन के महत्व से कौन इनकार कर सकता है. लेकिन यह अनुशासन, दरअसल स्वानुशासन ही होता है. स्वानुशासन डंडे से कायम नहीं किया जा सकता. शिक्षा यूं भी किताबी नहीं होती. मशहूर शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल कहते थे कि हमारा मकसद बच्चों में समझ का चस्का पैदा करने का होना चाहिए. यह समझ सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं होती. प्रत्येक शैक्षिक प्रयास इस समझ को बढ़ाने के लिए होना चाहिए. चूंकि समझने की शक्ति हर किसी में है, इसीलिए शिक्षा के मायने भी सभी के लिए अपने-अपने हैं. इस शिक्षा को स्कूली निगरानी से प्रदान नहीं किया जा सकता.
यूं हम सब यह जानते हैं- दोहराते भी हैं लेकिन अपने बच्चे की बात आए तो लकीर के फकीर हो जाते हैं. डांट-डपट और डंडे का सहारा लेना शुरू कर देते हैं. बेरोकटोक ताकझांक करना चाहते हैं. घर में नजर रखना काफी नहीं, इसीलिए अब स्कूलों में नजर रखने की बारी है. माता-पिता भले इस आइडिया पर खुशी से फूले न समाएं- इससे बच्चों की एजेंसी और टीचरों की प्राइवेसी पर गंभीर खतरा पैदा होने की आशंका है. जी हां, बच्चे की एजेंसी. यह थोड़ी हैरत करने वाली बात है. लेकिन बच्चे की खुदमुख्तारी और उसकी स्वायत्तता बहुत मायने रखते हैं. बच्चा पैदा होने के साथ अपनी एजेंसी का हकदार हो जाता है. अपनी मर्जी से अपने कुछ फैसले लेना चाहता है. हर उम्र में एजेंसी के दायरे में अलग-अलग किस्म की चीजें आती हैं. छोटे शिशु अपनी तरह से चीजों को स्पर्श करना चाहते हैं. फिर थोड़े बड़े होने पर अपने दोस्त अपनी मर्जी से बनाना चाहते हैं. स्कूल जाने पर माता-पिता से अलग, अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं. इसके बाद विषय चुनकर, अपनी पसंद के खेल खेलकर साबित करना चाहते हैं कि उनकी इच्छा का भी सम्मान होना चाहिए. अब बचपन की कुलांचों को रिमोट कंट्रोल से काबू करने की कोशिश की जा रही है. उनके साथ-साथ स्कूल का पूरा स्टाफ भी नजर में रहने वाला है. उनके निजता के अधिकार का क्या होगा?
इस पूरी बहस में शिक्षकों के निजता का अधिकार भी खतरे में है. बच्चों को अनुशासित और सुरक्षित रखने के फेर में शिक्षकों के निजता के हक को भी ताक पर रखा जा रहा है. यह कहा जा रहा है कि इसके पीछे स्कूलों में पढ़ाई का अच्छा माहौल पैदा करना भी है. लेकिन निगरानी से स्कूलों का माहौल बदल सकता है, इस पर कोई स्टडी अब तक नहीं हुई है. स्कूलों का माहौल दरअसल जवाबदेही तय करके बदला जा सकता है. इसी साल मई में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा जारी किया गया है. इस मसौदा को तैयार करने वाली कमिटी ने साफ कहा है कि स्कूलों में बच्चों के प्रदर्शन में सुधार के लिए यह जरूरी है कि स्कूलों की जवाबदेही तय की जाए. जैसे अमेरिका में नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड एक्ट लागू है. इसमें हर साल स्कूलों के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जाता है. अगर कोई स्कूल इस मूल्यांकन में फेल हो जाता है तो उसके गंभीर परिणाम होते हैं.
टीचर या हेडमास्टर को नौकरी से निकाला जा सकता है. स्कूल को बंद किया जा सकता है. बच्चों को दूसरे स्कूल में ट्रांसफर किया जा सकता है. साठ के दशक में समाजशास्त्री इरविग गॉफमैन ने जिन्हें टोटल इंस्टीट्यूशंस कहा था, उनमें स्कूल भी शामिल थे. टोटल इंस्टीट्यूशंस में रहने वाले लोगों को एक खास लक्ष्य को पूरा करने के लिए काम करना होता था. स्कूल भी इसी तरह प्रोडक्ट्स के रूप में बच्चों को तैयार करते हैं. इन प्रोडक्ट्स में कोई कोर-कसर न रह जाए, इसीलिए उनकी निगरानी करते रहने की जरूरत है. पर कुछ कोर-कसर रह जाए तो अच्छा. क्योंकि अपूर्णता ही मनुष्य होने की पहली शर्त होती है. जैसा कि मशहूर रूसी कवि काएसिन कुलिएव ने अपनी कविता बचपन की नदी में कहा है- उमड़ने दो उसे दूर, दूर, दूर तलक/बहने दो उसे-अविराम/वह जो तुम्हारा प्रारंभ है, तुम्हारा उद्गम.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)