छह जनवरी को यूएस कैपिटल में जो हुआ, निर्वाचित-राष्ट्रपति जो बाइडेन ने उसका उल्लेख ‘राष्ट्रद्रोह’ के रूप में किया है, न कि ‘विरोध’ या ‘विद्रोह’ की संज्ञा दी है. कुछ अन्य सीनेटरों और सामाजिक जानकारों ने भी उनके स्वर में स्वर मिलाया है. कुछ लोगों ने थोड़ा नर्म लहजा अपनाते हुए इसे चौंका देने वाली अराजकता और व्यवस्था का पतन बताया. कई अन्य निर्वाचित नेताओं, अधिकारियों और शख्सीयतों ने ‘लोकतंत्र का मंदिर’ अपवित्र करने वाली घटना कहा तो अन्य लोगों ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि क्या अब भी अमेरिका ‘एक पहाड़ी पर बसे सबसे चमकदार शहर’ होने का दावा कर सकता है.


पूरी दुनिया जिस घटना की गवाह बनी, उसकी चाहे जिस भाषा में आलोचना की गई लेकिन सभी इस एक बात से सहमत थे जो कुछ भी हुआ वह ‘बेमिसाल’ था. अब हमें निश्चित रूप से इस पूरे मामले में अभूतपूर्व ढंग से हुए सीमाओं के उल्लंघन की समीक्षा-जांच करते हुए, अभी तक हुई बातों के विपरीत इसे वर्तमान घरेलू श्वेत आतंकवादियों के परिदृश्य में देखना चाहिए. यह सच है कि 1812 के युद्ध के बाद से यूएस कैपिटल की सीमाओं का इस तरह अतिक्रमण कभी नहीं हुआ. हालांकि दो सौ साल पहले की घटना इससे कहीं बड़ी थी और कैपिटल और देश की राजधानी का अधिकांश हिस्सा 1814 में ब्रिटिश फौज ने जला दिया गया था.


चक शूमर ने ट्रंप के गुस्साए समर्थकों द्वारा कैपिटल में जबर्दस्ती घुसने के ‘बेमिसाल’ होने के अर्थ को नया आयाम देते हुए इसकी तुलना इतिहास में ‘बदनाम दिन’ के रूप में दर्ज सात दिसंबर 1941 से की, जब जापानियों द्वारा पर्ल हार्बर पर बमबारी की गई थी. जो लोग इस बात से विशेष आकर्षित नहीं होते कि ‘अमेरिका दुनिया का सबसे असाधारण राष्ट्र है’ या फिर जो इस धारणा से कम ही सहमत होते हैं कि अमेरिका सदा न्याय के पक्ष में खड़ा रहता है, उन्हें यूएस कैपिटल पर श्वेत पुरुषों (जिसमें महिलाएं भी कम नहीं थीं) की जुनूनी भीड़ द्वारा बेशर्मी से किया गया हमला, इस देश में गणतंत्र की स्थापना के बाद से उनके वर्चस्व को नए नजरिये से देखने को प्रेरित करता है.


टेलीविजन स्क्रीन पर नजर आई यूएस कैपिटल की इन तस्वीरों के हर तथ्य छोटा पड़ जाता है कि दंगाइयों के वहां घुसने के वजह से करीब दो घंटे तक रुकी रही संसद की कार्रवाई के दौरान पुलिस परिदृश्य से लगभग गायब थी. इस बात से अधिक चौंकाने वाला और कोई तथ्य नहीं हो सकता है. इस बात में दो राय नहीं है कि कानून का पालन कराने में यह एक भीषण विफलता थी.


एक पल के लिए इस तथ्य को परे रख देते हैं कि राष्ट्रपति की मौजूदगी में पुलिस की इतनी बड़ी नाकाम सामने आई. जबकि कुछ ही महीने पहले ब्लैक लाइव्स मैटर्स आंदोलन के दौरान उन्होंने खुद को कमांडर-इन-चीफ बताते हुए कहा था कि वह कानून की अवहेलना को बर्दाश्त नहीं करेंगे या फिर यह बात कि रिपब्लिकन हमेशा कानून और व्यवस्था के पक्ष में मजबूती से खड़े रहते हैं. अब सबसे विचारणीय बात है कि जैसा कहा जा रहा है, यह अतिक्रमण या आक्रमण इसलिए हुआ क्योंकि कैपिटल पुलिस और मैट्रोपोलिटन पुलिस ऐसे हमले के लिए तैयार नहीं थी या फिर श्वेत घरेलू आतंकी पूरी तरह आत्मविश्वास से भरे और आश्वस्त थे कि वे अपनी मर्जी के मुताबिक कानून तोड़ सकते हैं और वे ही सबसे प्रभावशाली हैं.


इस पूरे प्रहसन में एक पुलिसकर्मी मारा गया. हालांकि कई सीनिटरों और सांसदों ने कैपिटल पुलिस की इस बात के लिए प्रशंसा की है कि वह उन्हें सुरक्षित रखने के लिए जी जान से लगी थी, मगर दुनिया ने जो तस्वीरें देखीं, वे काफी जुदा हैं. सबने देखा कि शुरू से ही दंगाइयों को आसानी से सुरक्षा के कई स्तर पार करते हुए कैपिटल-परिसर में घुसने दिया गया और वे यहां से होते हुए लोकतंत्र के गर्भगृह तक पहुंच गए. फिर घंटों तक यही क्रम बना रहा.


कई दंगाई परिसर के गोल घेरे में आराम से ऐसे घूमते रहे, मानो वे सैर पर हैं. वे वहां लोकतंत्र की स्थापना करने वाले पुरखों की तस्वीरों को निहार रहे थे और उनके साथ फोटो खींच रहे थे. कुछ लोगों ने तो वहां पर पुलिसवालों के साथ सेल्फियां भी लीं. कुछ लोगों को पूरी विनम्रता से शौचालयों की तरफ राह दिखाते भी नजर आए। हमें यही तसल्ली कर लेनी होगी कि इस ‘विद्रोह’ की एक यादगार तस्वीर में भारी-भरकम बूटों से लैस जो दंगाई स्पीकर नेंसी पलोसी के दफ्तर में घुस कर उनकी डेस्क पर खड़ा है, उसे कोई पुलिसवाला सम्मान प्रकट करते हुए अपनी सुरक्षा में वहां नहीं लाया है.


पूरे परिसर को खाली कराने में पुलिस को घंटों लग गए. लेकिन उस शाम तक कुछ गिने-चुने दंगाइयों और बदमाशों को छोड़ कर कोई उल्लेखनीय गिरफ्तारी नहीं हुई थी. बाद में देर रात कुछेक दर्जन लोग गिरफ्तार हुए भी, मगर मुख्य रूप से उन पर वाशिंगटन में छह बजे से कर्फ्यू का उल्लंघन करने के आरोप लगाए गए.
मैं संभवतः यह सोचने या अनुमान लगाने वाला पहला या अकेला व्यक्ति नहीं हूं कि अगर इस पूरे परिदृश्य में अश्वेत लोगों की बहुलता होती तो नतीजा कुछ और होता। अगर संघीय सरकारी संपत्ति की सीमाओं को पार करके कैपिटल में घुसने वाली और वहां निर्वाचित नेताओं-अधिकारियों की जान को खतरे में डालने वाली भीड़ अश्वेत होती तो पुलिस तथा सैन्य शक्ति का पूरी ताकत और बर्बरता-निर्दयता से इन दंगाइंयों -विरोधियों नहीं- पर इस्तेमाल होता. सैकड़ों लोग गिरफ्तार कर लिए जाते और संभव है कि ‘गिरफ्तारी का विरोध करते’ कुछ को गोली भी मार दी जाती. खुद राष्ट्रपति इन ‘कुत्तों’ को मार गिराने के लिए चीख रहे होते.


श्वेत घरेलू आतंकी लंबे समय से सैद्धांतिक रूप से अमेरिका की ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के लिए खतरा रहे हैं. कुछ मौकों पर एफबीआई भी यह स्वीकार कर चुकी है. इसके बावजूद यूएस कैपिटल पर खुलेआम हुए हमले से इस बात पर फिर सशक्त मुहर लगती है कि खतरे को गंभीरता से नहीं लिया गया है. बल्कि इन घरेलू आतंकियों की श्वेत-श्रेष्ठता को बरकरार रखने के लिए ट्रंप के राष्ट्रपति-काल समेत, विभन्न रूप में दशकों पहले से रिपब्लिक पार्टी की स्थापना साथ ही इनका लाड़-प्यार से पालन-पोषण किया गया.


यूएस कैपिटल पर पूरी बेशर्मी और दादागिरी के हमला करने वाले इन आतंकियों को ठीक-ठीक यह पता था कि उन्हें इस काम के लिए अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति उकसा रहे हैं और इसमें उनकी मदद करेंगे. राष्ट्रपति को अपने इरादों में कुछ सांसदों और कुछ प्रतिष्ठित लोगों की तरफ से बढ़ावा भी मिला और इन लोगों ने हजारों-लाखों लोगों को सड़क पर उतरने, हंगामा करने और देश की सर्वोच्च सत्ता को फिर से अपने हाथ में लेने के लिए उकसाया. यदि अमेरिकी नागरिक पहले इस बात को पहचान नहीं पाए थे तो उन्हें अब इस तथ्य के प्रति खुद को जागरूक कर लेना चाहिए कि वह एक ऐसे आदमी को व्हाइट हाउस में पहुंचाने के लिए जिम्मेदार थे, जो घरेलू आतंकवदियों से अपनी आत्मीयता को जुड़ा हुआ पाता है. अब इस व्यक्ति को स्वयं को कहां रखना चाहिए, इसके लिए कोई अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं है.


(विनय लाल लेखक, ब्लॉगर, सांस्कृतिक आलोचक और यूसीएल में इतिहास के प्रोफसर हैं)


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