‘वे तोड़ती पत्थर देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर’, ना जानें क्यों महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता की ये पंक्तियां मुझे उस रैगांव के चौराहे पर बांस की सामान्य सी कुटिया बनाकर रह रहीं विमला बागरी को देख कर याद आ गईं. जब पहली बार ये खबर मिली कि कोई महिला सड़क के लिये सड़क किनारे झोपडी में रहकर वनवास भोग रही है तो सुनकर हैरानी हुई. कहां कलयुग में सतयुग की बातें. मगर जब अपने सतना के साथी व्यंक्टेश से बात की तो उन्होंने वाट्स एप पर जो वीडियो भेजा उसे देखकर ये हैरानी और बढ गई.
बस फिर क्या था रात की रेवांचल से चलकर सुबह सतना उतरे और दस बजे जब रैगांव चलने लगे तो आ गये धीरेंद्र सिंह धीरू वो रैगांव के 1990 में निर्दलीय एमएलए रहे थे और विमला उनकी ही पत्नी हैं. धीरू बताने लगे कि सतना से रैगांव और आगे जाकर करसरा गांव तक की 24 किलोमीटर लंबी सड़क इतनी टूटी हुई और उपेक्षित है कि जब हम थक हार गये धरना प्रदर्शन करके तो फिर असहाय होकर जनता के दुख दर्द में शामिल होने की सोची और सड़क के किनारे ही बैठ गये कुटिया बनाकर. विमला तो 13 फरवरी से वहीं पर हैं मैं सतना आता जाता रहता हूं. मगर रात में वहीं पर रूकता हूं. चलिये आप भी देखिये बदहाल सड़क और हमारा वनवास.
सतना से बाहर पन्ना रोड़ पर एक, दो किलोमीटर चलने के बाद ही दाईं तरफ मुड़ती है रैगांव की ओर जाने वाली रोड. इस सड़क की खस्ता हालत शुरू से ही दिखनी शुरू हो जाती है. अलबत्ता टूटी सड़क के किनारे लगे टेढ़ें मेढ़ें पीले बोर्ड को पढ़ने के बाद जाना कि बारह साल पहले चार करोड़ रूपये खर्च कर इस सड़क की आखिरी बार मरम्मत की गई थी. अब इन बारह सालों में सड़क फिर अपने मौलिक पुरातन रूप को पा गई थी. सामने से आते दूधिये पुष्पेंद्र दिखे जिनसे सड़क की बात की तो फट से गए. अरे साब इसे सड़क मत कहो टूटी फूटी चौड़ी पगडंडी है, जिसमें घुटने तक के गहरे गड्ढे हैं, कभी गाड़ी फंसती है तो कभी गिरती है. कई दफा हमारे दूध के केन इन गड्ढों में गिरे हैं मगर अब आना जाना तो पड़ता ही है शहर, भगवान का नाम लेकर चले आते हैं सतना.
यही दुख दर्द इस रास्ते पर हिचकोले खाकर चलने वाली बसों और ड्राइवरों का सुना. सब परेशान मगर मजबूरी का नाम सतना रैगांव की सड़क. करीब बीस किलोमीटर लंबी इस सड़क से सौ से ज्यादा गांव जुडे हैं. तीस से पैंतीस पंचायतें इस सड़क के दोनों ओर बसीं हैं मगर सड़क की बदहाली दूर कोई नहीं कर पा रहा. रास्ते में कई जगह सड़क दिखती ही नहीं दिखते हैं तो बड़े गहरे से गड्ढे, जिनमें अंदर उतारकर ही गाड़ी ले जानी पडेगी दूसरा कोई रास्ता है ही नहीं कि बच कर बगल से आप निकल सको. बीस किलोमीटर का रास्ता दो घंटे में पूरा कर हम जब रैगांव पहुंचे तो अच्छी खासी चहल पहल गांव में हो गई थी. सूरज आसमान पर चढ़ गया था और ये गांव अपने काम में लग गया था बिना किसी से किसी की शिकायत के साथ.
इसी गांव के चौराहे पर बांस की बल्लियों को गाड़कर और छत पर पन्नी बिछाकर उसके नीचे बैठीं हैं तकरीबन पचास साल की उम्रदराज महिला विमला बागरी. करीब बीस बाय तीस फीट की इस कुटिया में एक छोटा सा अलग एंटी चैंबर जैसा पार्टीशन कर बनाया गया कमरा भी है, जिसमें तख्त के ऊपर रखे हैं गद्दे और तकिये. मगर विमला इस छोटे कमरे में कम अक्सर बाहर ही ज्यादा बैठती हैं और आने जाने वालों को पर्चे बांटती हैं. इन पर्चां में लिखा है कि वो सड़क के लिये सड़क के किनारे बैठकर ही वनवास कर रहीं हैं. विमला कहती हैं एक महीने से ज्यादा का वक्त हो गया है सतना का घर परिवार बेटे बहू और पोते को छोड़कर यहां बैठे हैं. रात यही कुटिया में या पास के मंदिर से लगा जो आश्रम हैं वहां पर सो जातीं हैं. सतना से घर का खाना नहीं आता. यहीं गांव के लोग बुलाते हैं तो जाते हैं खाना खाने वरना जो मंदिर में बन जाता है वहीं खाकर काम चला रहे हैं. शुरूआत में डर लगता था लोग भी भरोसा नहीं करते थे मगर शारदा मैय्या का सहारा है अब तो यहां भीड़ लगी रहती है पूरे वक्त. लोग समझ रहे हैं कि सड़क बनवाने आईं हैं विमला और बिना बने वापस नहीं जायेंगी.
हम जब तक आस पास के लोगों से बात कर रहे थे तभी आ गये तहसीलदार साहब कहने लगे अब मैडम उठिये घर चलिये इस सड़क का टेंडर तो हो गया है बन जायेगी जल्दी, क्यों धूल और धूप खा रही हो. जवाब में धीरू कहते हें कि जरा पूछिये कि टेंडर हो गया तो फिर एग्रीमेंट क्यों नहीं हो रहा, काम कहां अटका है तहसीलदार साहब को पता चलता है कि एग्रीमेंट के लिये ठेकेदार कुछ महीने का वक्त और चाह रहा है. यानि कि लालफीताशाही के भंवर में सड़क उलझी है. इस विधानसभा में बीस साल तक बीजेपी के विधायक रहे. अब बीएसपी की विधायक उषा चौधरी हैं जो पीडब्ल्यूडी कमेटी की सदस्य भी हैं मगर सड़क बनाने का नाम नहीं ले रहीं. मगर गांव के युवाओं ने उम्मीद नहीं छोड़ी है. चलने लगे तो आदर्श ने कहा सर इसे एबीपी न्यूज में घंटी बजाओ में जरूर दिखाना. सरकार की घंटी बजेगी तो सड़क जरूर बनेगी. मगर आदर्श नहीं जानता कि यदि आदर्श स्थिति होती तो सड़क कब की बन चुकी होती.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)