कानून बनाने वाले हमारे कर्णधार शिक्षा के अधिकार में बदलाव के लिए तैयार है. 2009 के मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार वाले कानून में संशोधन किया जा रहा है. संसद के मौजूदा सत्र में लोकसभा ने संशोधन विधेयक पास कर दिया है. अब राज्यसभा की बारी है. दोनों सदनों में पास हो जाएगा तो नया कानून बन जाएगा और नए कानून के हिसाब से प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को फेल होने पर पिछली क्लासों में रोक दिया जाएगा. 2009 के कानून में क्लास 8 तक कोई बच्चा फेल नहीं किया जाता. नया कानून बन जाएगा तो बच्चों को क्लास 5 और क्लास 8 में फेल किया जा सकेगा-अगर वे फाइनल इम्तहान पास नहीं कर पाते.
बच्चे इम्तहान पास क्यों नहीं कर पाते. शिक्षा के अधिकार के मौजूदा कानून के नतीजे बहुत बुरे रहे, यह कहने वाले बहुत से लोग हैं. बताया गया है कि मौजूदा कानून के लागू होने के बाद भी प्राइमरी शिक्षा का स्तर गिरा है. सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ एजुकेशन (केब) ने 2014 में कहा था कि फेल न होने के कारण बच्चों में पढ़ने और टीचरों में पढ़ाने की इच्छा खत्म हो रही है. एनसीईआरटी के 2012 से 2015 के बीच के नेशनल एचीवमेंट सर्वे में कहा गया था कि क्लास 5 के आधे के अधिक बच्चे न गणित के सवाल हल कर पाए- न ही रीडिंग कॉम्प्रेहेंशन के. इससे पहले इतनी बुरी हालत नहीं थी. मौजूदा कानून ने पढ़ाई के स्तर का सत्यानाश कर दिया है.
ये है सिस्टम के फेल होने का सबूत
तब सोचा गया कि फेल न होने के डर से बच्चे पढ़ ही नहीं रहे. ढीठ हो रहे हैं- सब कुछ टेकेन फॉर ग्रांटेड लिया जा रहा है. इसलिए कानून को बदलना जरूरी है. बच्चों को फेल करो, क्लास रिपीट कराओ- वह पढ़ने को प्रोत्साहित होगा. इसके बाद पिछले साल 11 अगस्त को लोकसभा में नया संशोधन विधेयक पेश किया गया. 11 दिन बाद इसे विचार के लिए स्टैंडिंग कमिटी को भेजा गया- फिर इस सत्र में पास कर दिया गया. नया विधेयक कहता है कि हर एकैडमिक ईयर में क्लास 5 और 8 में रेगुलर इम्तहान होंगे. अगर बच्चा उसमें फेल हो जाता है तो उसे फिर से पढ़ाया जाएगा. रिजल्ट आने के दो महीने बाद फिर से इम्तहान होंगे. अबकी बार बच्चा पास नहीं होता तो वह पुरानी क्लास में फिर से पढ़ेगा. इसमें राज्यों को छूट दी गई है कि वे अपनी तरीके से बच्चों को फेल कर सकती हैं.
यूं हमारी शिक्षा प्रणाली ने कामयाबी जो मिथक गढ़े हैं, उनमें इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है. कामयाबी पास होने की, फेल होने की नाउम्मीदी. पर ठहरकर सोचने के लिए हमें समय निकालना ही होगा कि इस सिस्टम में फेल होने वाले के लिए कहीं गुंजाइश है या नहीं. फिर फेल होने का सारा दारोमदार क्या सिर्फ फेल होने वाले पर है? आंकड़े देखेंगे तो पाएंगे कि देश में लगभग एक तिहाई बच्चे प्राइमरी शिक्षा पूरी होने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं. जो बच्चे स्कूल नहीं जाते, उनमें से अधिकतर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों सहित कमजोर और सीमांत तबकों, धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के बच्चे और विकलांग बच्चे होते हैं. क्या इनकी इतनी बड़ी तादाद इस सिस्टम के फेल होने का सबूत नहीं है. फेल सिस्टम में बच्चों के फेल होने पर इतनी हाय तौबा!
शिक्षा से जुड़ी दूसरी समस्याओं से आंख मूंद ली गई है आंख
तो बच्चों के फेल होने का सारा ठीकरा बच्चों पर फोड़ा गया है. और शिक्षा से जुड़ी दूसरी समस्याओं से आंख मूंद ली गई है. समस्याएं गिनाने बैठेंगे तो परेशान हो जाएंगे. क्या हमारे यहां प्रोफेशनल क्वालिफाइड टीचर हैं... इसमें शक है. इसीलिए खुद सरकार ने पिछले साल अगस्त में एक संशोधन विधेयक पास करके टीचरों को मिनिमम क्वालिफिकेशन हासिल करने के लिए चार साल का समय दिया था. कारण यह था कि राज्यों ने अनक्वालिफाइड टीचरों की ट्रेनिंग तक पूरी नहीं की थी. इसके अलावा उनके क्वालिफिकेशन और स्किल को अपग्रेड नहीं किया गया है. बीएड-डीएड कोर्सों में जरूरी बदलाव नहीं किए गए हैं. टीचरों के पद खाली पड़े हैं. कई जगहों पर टीचर और स्टूडेंट्स का अनुपात ठीक नहीं है.
इसके अलावा शिक्षक नामक संस्था के क्षरण पर चर्चा करने की भी जरूरत है. न तो उनकी जवाबदेही तय है, न स्कूलों की. केब ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बच्चों के फेल-पास होने को स्कूलों और टीचरों के प्रदर्शन से जोड़कर देखा जाना चाहिए. स्कूलों की जिम्मेदारी के कई इंटरनेशनल उदाहरण हैं. जैसे अमेरिका में नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड एक्ट लागू है. इसके अंतर्गत अगर स्कूल मिनिमम टेस्ट स्कोर हासिल नहीं कर पाता तो उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ती है. टीचरों या हेडमास्टर की नौकरी जा सकती है. स्कूल को बंद किया जा सकता है. बच्चों को दूसरे स्कूलों में ट्रांसफर किया जा सकता है.
हम तो खुद फेल ही साबित हुए हैं
2009 के कानून में सीसीई सिस्टम एक बेहतरीन सिस्टम है. इसमें पेपर-पेंसिल टेस्ट, चित्र बनाना और पिक्चर्स को पढ़ना, साथ ही बोलकर अपने आपको एक्सप्रेस करने की आजादी है. इसमें एसेसमेंट का तरीका ट्रेडीशनल नहीं है. पैटर्न नया है, बस हमें उसे अपने सिस्टम में उतारने की जरूरत है. जाहिर सी बात है, हर बच्चे को पढ़ाने का तरीका अलग हो, उसकी क्षमता, हालात के हिसाब से... तो क्या गलत है.
किसी सरकारी प्राथमिक स्कूल का फाटक खुलने का इंतजार करते बच्चों का चेहरा देखा है. कच्ची जमीन की मिट्टी को माथे पर लगाते प्रसन्न चित्त भीतर दाखिल होते हैं. लगता है मंदिर आए हैं- शिक्षा के मंदिर. परिवार के फर्स्ट लर्नर्स... कुपोषण-अल्पपोषण के शिकार. अपने हालात से रोजाना जूझते. दस बाई दस के कमरे में आठ-दस लोगों के परिवार के बीच, तीन जून के भरपेट खाने के सपने संजोये. क्या उन्हें फेल करने का हक हमें है- हम तो खुद उनके सामने फेल ही साबित हुए हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)