BLOG: कश्मीर में हमने जो किया है उसका पूरा अर्थ समय के साथ सामने आएगा
कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा हटने के बाद कुछ लोग इस बात से संतुष्ट हैं कि भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य अब दिल्ली द्वारा सीधे शासित एक केंद्र शासित प्रदेश है.
कश्मीर में हमने जो किया है उसका पूरा अर्थ समय के साथ सामने आएगा. फिलहाल कश्मीर समेत पूरे भारत में यह नैरेटिव सेट किया जा रहा है कि हम सभी के लिए यह एक अच्छी बात है. कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा हटने के बाद कुछ लोग इस बात से संतुष्ट हैं कि भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य अब दिल्ली द्वारा सीधे शासित एक केंद्र शासित प्रदेश है. बेशक अन्य राज्यों को भी विशेष दर्जा प्राप्त है, लेकिन कश्मीर को धर्म के कारण एक विशेष तरीके से देखा गया.
हममें से बहुत से लोगों ने यह नहीं सोचा कि इस कारण से कश्मीर को विशेष दर्जा मिलना अच्छी बात है. हममें से जो लोग यह सोचते हैं कि जम्मू और कश्मीर को सच्ची स्वायत्तता प्रदान करना, उसके मूल रूप में अनुच्छेद 370 को ईमानदारी से बनाए रखना सही और उचित था, बहुत कम हैं.
इसके बाद आर्थिक पहलू है. कश्मीर और विशेष रूप से श्रीनगर में गरीबी, अशिक्षा और अन्य मानव विकास संकेतकों के वो स्तर नहीं हैं जो अन्य राज्यों में हैं. कश्मीरी अत्यधिक उद्यमी हैं और न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर व्यापार में पाए जा सकते हैं. इसलिए यह कभी नहीं था कि यह आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ राज्य था. अब तर्क यह है कि राज्य गैर-कश्मीरियों के निवेश करने के लिए उपलब्ध होगा क्योंकि अब वे वहां संपत्ति रखने में सक्षम होंगे. यह कुछ ऐसा है जिसे हम समय के साथ समझ पाएंगे.
तीसरी बात यह कही गई है कि यहां एक नई तरह की राजनीति की शुरूआत होगी. कश्मीरी परिवार आधारित दलों से मुक्त होंगे और उन्हें नए लोकतांत्रिक अवसरों की खोज करने का अवसर मिलेगा. यहां गौर करने वाली बात यह है कि कश्मीरी ऐसे तथाकथित परिवार आधारित दलों में विश्वास किस हद तक कायम करते हैं. बाहरी लोगों के लिए यह कहना सही नहीं है कि कश्मीरी किस पार्टी को वोट दें और किसे वोट न दें. तथ्य यह है कि या तो हम मानते हैं कि भारत ने कश्मीर में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए हैं या हम इसे नहीं मानते हैं. यदि हम ऐसा करते हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि मतदाताओं का विश्वास जीतने वाली पार्टियां वही हैं जिन्हें अब हम नीचा दिखा रहे हैं और गाली दे रहे हैं.
यदि यह सच है कि राजनीति की जगह खुल गई है, तो हमें विचार करना चाहिए कि इस स्थान को कैसे भरा जाएगा. फिलहाल सबसे शक्तिशाली लोकप्रिय ताकतें जो चुनावी क्षेत्र में नहीं हैं, वे अलगाववादी हैं. हुर्रियत और उससे जुड़ी पार्टियां जिनमें कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी शामिल हैं, हाल के दिनों की भारत की कार्रवाइयों की ओर इशारा कर सकते हैं और कह सकते हैं कि कश्मीरियों को वह नहीं मिला जो वे पारंपरिक राजनीतिक दलों से चाहते थे. एक उम्मीद है कि दिल्ली ने इस संबंध में अपने एक्शन के परिणामों के बारे में सोचा है.
शेष भारत को कश्मीरियों के बारे में यह नहीं पता है कि वो कर्फ्यू के हालात में हैं और उनके संचार में कटौती हुई है. यह उनके लिए नया नहीं है. एक कारण यह है कि भारत दुनिया के मीडिया स्वतंत्रता सूचकांक में सबसे नीचे है. (यह नंबर 140 पर है और पिछले साल में दो स्थान गिर गया है) कश्मीरियों के पास नियमित रूप से लंबे समय तक फोन और इंटरनेट बंद रहता है. हमने कश्मीरियों से अभी तक नहीं सुना है कि वे अपने राज्य से राज्य का दर्जा छिन जाने व विशेष दर्जा हटाने के बारे में क्या सोचते हैं.
अभी हमें कश्मीर से सोशल मीडिया की आवाज़ें सुनने को मिल रही हैं जो प्रामाणिक नहीं हैं क्योंकि श्रीनगर और अन्य कस्बों और शहरों के अंदर इंटरनेट की कोई पहुंच नहीं है. अगर कर्फ्यू हटा लिया जाता है और संचार के माध्यमों को खोला जाता है, तो भारत और दुनिया को पता चल जाएगा कि कश्मीरियों की प्रतिक्रिया वास्तव में क्या है. फिर से, भारत में जो कहा गया है वह मायने नहीं रखेगा क्योंकि यह तीन दशकों से मायने नहीं रखता. वे खुद को उनके वैध अधिकारों के लिए लड़ते हुए देखते हैं. हम उन्हें पत्थरबाजों और आतंकवादियों के रूप में देखते हैं.
संयुक्त राष्ट्र की कुछ बिखरी हुई टिप्पणियों और प्रस्तावों के बाद दुनिया ने कश्मीर मुद्दे पर लंबे समय से रुचि खो दी है, जिनमें से कोई भी लागू नहीं है. भारत अपने आंतरिक एक्शन को लेकर आज विश्व स्तर पर चिंतित नहीं है. अधिकांश सुरक्षा परिषद के सदस्यों के साथ इसके अच्छे संबंध हैं और रूसी वीटो पर भरोसा करने की आवश्यकता नहीं है. दुनिया को कश्मीर में हमारे कर्फ्यू और कम्युनिकेशन ब्लैकआउट की बहुत कम सूचना मिलेगी क्योंकि इसने इसे तीन दशकों तक अनदेखा किया है.
आखिरी चीज जिस पर हमें विचार करना चाहिए, वह यह है....जिसे हम आतंकवादी हिंसा कहते हैं, वह भारत में तीन स्थानों तक सीमित है- पूर्वोत्तर, आदिवासी बेल्ट (जिसे हम माओवादी उग्रवाद कहते हैं) और कश्मीर. अधिकांश भाग के लिए इन स्थानों पर हिंसा स्थानीयकृत की गई है. सांप्रदायिक दंगा और हिंसा शेष भारत में हुई है, उदाहरण के लिए 1992 के बाद और 2002 के बाद. लेकिन यह एपिसोडिक था. बहुत ज्यादा सोचा नहीं गया है कि यह हिंसा क्यों की गई है. एक उम्मीद है कि इसके लिए पर्याप्त विचार दिया गया है कि इस हिंसा का दीर्घकालिक परिणाम कैसा दिखेगा और हम इसे कैसे शामिल करेंगे.
फिलहाल धारा 370 के हटाए जाने पर यही नैरिटिव है कि अभी भी ये सकारात्मक है, हालांकि उत्सुकता शायद कम हो गई है. एक बार जब दूसरा पक्ष खुद को व्यक्त करने लगेगा तो हम यह जानना शुरू कर देंगे कि हमारे कार्यों के क्या परिणाम हुए हैं, और पूर्ण अर्थ तो समय के साथ ही सामने आएगा.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)