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BLOG : कश्मीर के पत्थरबाजों के हाथ में क्या रखें पीएम मोदी...
कश्मीर घाटी फिर सुलग रही है. श्रीनगर लोकसभा सीट के लिए सात फीसद मतदान होता है और आठ लोग चुनावी हिंसा में मारे जाते हैं. 38 बूथों पर फिर से वोट डाले जाते हैं लेकिन बहुत से बूथ वोटरों के लिए तरसते रह जाते हैं. अनंतनाग सीट के लिए मददान आगे सरका दिया जाता है. एक वीडियो सामने आता है जिसमें अर्ध सैनिक बलों और यहां तक कि सेना के जवानों के साथ नौजवान हंसी ठिठौली कर रहे हैं. उनकी टोपी से लेकर पीठ पर लटके बैग से मजाक कर रहे हैं.
एक अन्य वीडियो वायरल होता है जिसमें सेना के वाहन के आगे पत्थरबाज को बांधा गया है. आधी अधूरी कहानियां सोशल मीडिया में आ रही हैं. आधा सच ही बयान हो रहा है नेताओं के बयानों में. कुछ तो खुलकर पत्थरबाजों का बचाव कर रहे हें तो कुछ कानून व्यवस्था की आड़ में आम कश्मीरी नागरिक की हिमायत कर रहा है. कुछ खुल कर कोस रहे हैं लेकिन सेना की बहादुरी और संयम की आड़ में राजनीति करने से भी नहीं चूक रहे हैं. यह सब उस जम्मू कश्मीर में हो रहा है जहां उन्हीं दलों की सरकार है जो दल दिल्ली में भी हैं. बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के रुप में चुनावी रैलियां करने वाले नरेन्द्र मोदी तब कहा करते थे कि समस्या बॉर्डर पर नहीं है, समस्या तो दिल्ली में है. अब उन्हें उनके इस भाषण की याद दिलाते हुए कोई भी सवाल नहीं पूछ रहा है कि समस्या आखिर कहां है और सुलझ क्यों नहीं पा रही है या यूं कहा जाए कि क्यों उलझती जा रही है. पूर्व प्रधानमंत्री जम्हूरियत और इंसानियत की बात करते थे. सिर्फ बात नहीं करते थे उसपर अमल करने की गंभीर कोशिश भी करते थे. इसी सूत्र को मनमोहन सिंह ने भी अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में आगे बढ़ाया था. जब जम्हूरियत यानि लोकतंत्र की बात होती थी तो कश्मीर के अलगाववादियों से भी मेल मुलाकात में दोनों को परहेज नहीं था. अलगाववादी नेताओं के सुपुत्रों सुपुत्रियों को सरकारी मदद मिलने और सुविधाएं देने के आरोप भी बाद में लगे. यह सच है कि उस दौर में कश्मीर की समस्या तो हल नहीं हो सकी लेकिन शांति जरुर बनी रही. लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बड़ी तादाद में वोटर भी वोट डालने आते रहे. अलगाववादी तत्वों की वोट नहीं देने की अपील को वोटर नकारते रहे. इस दौरान घाटी के हिस्सों से आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट हटाने की मांग भी होती रही, सेना पर दुराचार करने के आरोप भी लगते रहे ( आरोप निराधार भी साबित होते रहे ), सेना जनता की मदद करती रही खासतौर से बाढ़ के समय में, पत्थरबाज तब भी थे लेकिन उनकी संख्या कम हुआ करती थी और कुल मिलाकर कश्मीर में समस्याएं कालीन के नीचे ढककर शांति की बात सभी करते रहे. राज्य में बीजेपी और पीडीपी की सरकार बनने के साथ ही उम्मीद बंधी थी कि कश्मीर समस्या का वास्तव में समाधान हो सकेगा. प्रधानमंत्री मोदी ने घाटी की बाढ़ के समय वहां जाकर बड़े वायदे किए. तमाम टीवी चैनलों में सेना, अर्धसैनिक बल और एनडीआरएफ की टीमें बाढ़ पीड़ितों की मदद करती दिखी. आम कश्मीरी सेना का गुणगान करते दिखे. तब छह सौ से ज्यादा पत्थरबाजों को जेल से रिहा कर के नई सरकार ने अपनी तरफ से दोस्ती का हाथ भी बढ़ाया. लेकिन अलगाववादी, पाकिस्तान और भारत के त्रिकोण में मामला पहली बार फंसा और फिर उलझता ही चला गया. महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद जब तक रहे तब तक वह अपने अनुभव और बुजुर्गियत के हिसाब से चीजों को संभालते रहे. उनकी बात पार्टी के नेता भी मान जाते थे और अलगाववादियों को भी वह मना लिया करते थे. लेकिन यथास्थिति जैसी स्थिति ही बनी हुई थी. केन्द्र की नई सरकार ने कुछ नया करने की सोची. दरअसल पाकिस्तान से सीजफायर का उल्लघंन कर भारतीय बीएसएफ और सेना को उकसान शुरु कर दिया था , बार्डर और निंयत्रण रेखा पर तनाव लगातार बढता जा रहा था. ऐसे में पीडीपी और बीजेपी सरकार को एक होना था , उसके बाद एनडीए सरकार में आम सहमति होनी थी और उसके बाद सभी राजनीतिक दलों को एक मंच पर आना था लेकिन ऐसा हो नहीं सका. पत्थरबाजों पर सेना सख्त हुई तो महबूबा मुफ्ती को लगने लगा कि अत्याचार हो रहा है. सेना को इतनी भी सख्ती नहीं करनी चाहिए थी. ऐसे बयानों को केन्द्र रोक नहीं सका और बाकी विपक्षी दलों ने इसका राजनीतिक फायदा उठाना शुरु कर दिया. यहां मोदी सरकार की बड़ी जिम्मेदारी बनती थी. ऐसा नहीं है कि जिम्मेदारी निभाने से सरकार चूकी लेकिन समस्या की सही नब्ज पकड़ नहीं पाई. यह वक्त जम्हूरियत और इंसानियत की रणनीति को सही अर्थों में लागू करने का था. सरकार का अपना अलग इकबाल होता है और इस इकबाल के आगे लोग या तो खुद झुकते हैं या फिर इस अंदाज में झुकाया जाता है कि किसी को न लगे कि जबरदस्ती की जा रही है. प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान बहुत बाद में आया कि कुछ नौजवान पत्थर काट कर सुरंग बनाते हैं और कुछ लोग पत्थर उछालते हैं. मोदी सरकार के मंत्री कुछ स्टिंग आपरेशनों का हवाला देकर पाकिस्तान को जिम्मेदार बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्रि करते रहे. इन स्टिंग आपरेशनों में दिखाया गया था कि कैसे पत्थरबाजों को पाकिस्तान पैसे भिजवाता है. कैसे पत्थर उछालने के लिए उकसाता है और कैसे बढावा देता है. बड़ा सवाल उठता है कि पत्थर के बदले पैसा लेने वाले हाथों में भारत सरकार आखिर क्या रखे ताकि समस्या का स्थाई हल निकल सके. ऐसी किसी योजना की जानकारी कम से कम हमारे पास नहीं है. यह पत्थरबाज भटके हुए युवा हैं या आंतकवादियों-अलगाववादियों के समर्थक.....इस बहस में पड़ने से अच्छा यही होगा कि सभी पक्षों से बात हो और फिर आगे संवाद हो और इसी में से निकलेगा समाधान का रास्ता.(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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