बतौर खेल पत्रकार मैंने पाकिस्तान के चार दौरे किए. इन दौरों की तमाम यादें ताजा हैं. भारत पाकिस्तान की टीमें जब कभी आमने सामने होती हैं वो किस्से याद आते हैं. आज आपको सुनाता हूं पाकिस्तान के महान क्रिकेटर हनीफ मोहम्मद का किस्सा. जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. जब हम हनीफ मोहम्मद के घर पहुंचे तो उनका दरवाजा बंद था. घंटी बजाई तो थोड़ी देर में हनीफ साहेब खुद निकले.


हमने अपना परिचय दिया, बिना बताए आने के लिए माफी मांगी और इंटरव्यू करने की गुजारिश की. उन्होंने हमें अंदर आने को कहा, ड्राइंग रूम में बिठाया और थोड़ी देर में आने की बात कहकर घर के अंदर चले गए. थोड़ी ही देर में हनीफ साहेब वापस लौटे, इस बार उन्होंने कुर्ता पायजमा पहन रखा था, मुंह में पान था और चेहरे पर चमक. मुझे समझ आ गया कि हमने उन्हें सोते से जगा दिया था.


हनीफ साहेब से मिलने का सीधा मतलब था कि पाकिस्तान के क्रिकेट इतिहास को खंगालना. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि पाकिस्तान की टीम ने जो पहले 100 टेस्ट मैच खेले, उसमें से कोई भी टेस्ट मैच ऐसा नहीं था जिसमें हनीफ मोहम्मद के परिवार के किसी ना किसी खिलाड़ी की नुमाइंदगी ना रही हो. दरअसल हनीफ मोहम्मद पांच भाई थे. जिनमें से 4 ने पाकिस्तान के लिए टेस्ट क्रिकेट खेला, पांचवे भाई फर्स्ट क्लास क्रिकेटर थे, उन्हें एक टेस्ट मैच में बारहवें खिलाड़ी के तौर पर भी रखा गया था.


वजीर मोहम्मद, हनीफ मोहम्मद, मुश्ताक मोहम्मद, सादिक मोहम्मद और थोड़े बदकिस्मत रहे रईस मोहम्मद. हनीफ साहेब का जन्म 1934 को जूनागढ़ में हुआ था. मेरे दिमाग में ये सवाल घूम रहा था कि 1943-44 के आस पास जब उन्होंने खेलना शुरू किया होगा, तब क्या ऐसा माहौल था कि एक ही घर से 4-4 टेस्ट क्रिकेटर पैदा हों. बातचीत में मैंने ये बात पूछ ही ली, हनीफ साहेब मुस्कराए.


कहने लगे- भई, ये हमारी अम्मी की देन हैं. अम्मी ने खुद भी जूनागढ़ क्लब में कई ट्रॉफियां जीती थीं, वो बैडमिंटन और कैरम की जबरदस्त खिलाड़ी थीं. अब सारी बात समझ आ गई कि ये खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब जैसी कहावत वाला घर नहीं था. हनीफ साहेब खुद ही बताने लगे ‘एक रोज मां ट्रॉफी जीत कर लौटीं और बोलीं कि ये देखो मैंने ये ट्रॉफी जीती, अब तुम लोग भी जाओ और क्रिकेट के खेल में नाम करो.’


मां की यादों में खोते चले गए हनीफ साहेब. बोले आपको एक दिलचस्प किस्सा सुनाता हूं. मैंने सोचा कि ये सारी बातें अगर कैमरे पर हों तो बाद में उनका वक्त जाया नहीं होगा. मैंने हनीफ साहेब को बाहर चलने को कहा. वो बाहर आकर लॉन में लगे झूले पर बैठ गए. इंटरव्यू शुरू हो गया. हनीफ साहब 1947 के बंटवारे के बारे में कहने लगे, मुझे कुछ ज्यादा तो याद नहीं लेकिन इतना याद है कि जब मेरे मोहल्ले में फौज आती थी, तो हमें अम्मी अब्बा ये कहते थे कि घर के बाहर दिखना तक नहीं है. यहां तक कि खिड़कियां खोलने पर भी मनाही थी.


फिर जब जूनागढ़ के नवाब भी पाकिस्तान चले गए तो तमाम मुस्लिम परिवारों की तरह हमारे अम्मी-अब्बा भी रातों रात जूनागढ़ से निकल गए जिससे हमें कोई देख ना सके. पानी के रास्ते हमारा पूरा परिवार कराची पहुंचा. सर पर छत नहीं थी. हमने तमाम कवायदों के बाद एक हिंदू मंदिर में पनाह ली और कई साल तक वहीं रहे.


पान का अगला जोड़ा मुंह में डालते हुए हनीफ साहेब ने क्रिकेट की यादों को बताना शुरू किया. 1960 की बात है. ब्रेबॉर्न स्टेडियम में (मुंबई) में मैच था. हमारे भारत दौरे का पहला टेस्ट. मैच से पहले मैं कार से कहीं जा रहा था. तमाम फैंस हमसे मिलने के लिए आए थे. मैंने कार के अंदर बैठे बैठे ही कुछ से हाथ मिलाया. जब हाथ अंदर किया तो गला सूख गया. मेरा हाथ किसी ने रेजर से काट दिया था. मुझे लगा शायद ये किसी से अनजाने में हो गया होगा, पर इतना साफ था कि हाथ में जो कटने का निशान था वो रेजर का ही था.

जबरदस्त खून बह रहा था. तुरंत इंजेक्शन लगाया गया जिससे शरीर में जहर ना फैले. इसके बाद टेस्ट मैच से पहले पैर की उंगलियों में भी चोट लग गई. डॉक्टर ने मैच से पहले मुझे अनफिट घोषित किया, लेकिन कप्तान फजल महमूद चाहते थे कि मैं टेस्ट मैच जरूर खेलूं. टेस्ट मैच देखने के लिए मेरी अम्मी भी आ रही थी. मैं भयानक दर्द के बावजूद टेस्ट मैच खेल गया. उस मैच में मैंने 160 रन बनाए थे. टेस्ट मैच ड्रॉ रहा लेकिन अब भी वो मेरी बेहतरीन पारियों में से एक है. इसके बाद हनीफ साहेब के किस्से चलते रहे. हम भी खुद को खुशकिस्मत मानकर किस्से सुनते रहे.