इस देश में स्वदेशी बनाम विदेशी की लड़ाई बहुत पुरानी है. ऐसे में योग गुरू बाबा रामदेव कब इस लड़ाई में धीरे से कूद गए पता ही नहीं चला. कूदे तो कूदे अपने साथ सैकड़ों उत्पाद भी ले आए. ऐसे उत्पाद जिनका सीधा मुकाबला विदेशी कंपनियों से था. शुरू शुरू में लोग चौंके, हंसे, बहुत से मल्टीस्टोर्स में उन उत्पादों को जगह तक नहीं मिली लेकिन एक बार जब उन उत्पादों का चमकना शुरू हुआ तो फिर उन्होंने बाजार के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया.


बाबा रामदेव ने उन उत्पादों को ‘स्वदेशी’ की भावना से जोड़ा और अब बाजार उनका है. फिलहाल बाबा रामदेव के उत्पादों की गुणवत्ता पर बहस करना लक्ष्य नहीं है. बहस तो इस बात पर होनी चाहिए कि टी-20 की पूरी दुनिया की सबसे लोकप्रिय लीग ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ में ‘इंडियन’ के नाम पर कटौती क्यों होती जा रही है. एक आम क्रिकेट प्रेमी को ये बात इसलिए खटकती है क्योंकि इस लीग पर उस टीम के खिलाड़ियों का कब्जा होता जा रहा है जिससे आए दिन भारतीय टीम की ‘तू-तू मैं मैं’ लगी रहती है.


ज्यादा इतिहास में ना भी जाएं तो पिछले दस साल में यानि एक दशक में दो बातें कोई नहीं भूल सकता. पहली 2007 में सिडनी का मंकीगेट एपीसोड और दूसरा उसके बाद भी आईपीएल में कंगारुओं की एंट्री. हाल में खेली गई ऑस्ट्रेलिया सीरीज में भारतीय खिलाड़ियों पर हुए जुबानी हमले भी ना तो किसी से छिपे हैं ना ही कोई भूला है. आईपीएल टीम मालिकों को ये बातें क्यों नहीं दिखतीं समझ से परे है.


कंगारुओं के आईपीएल में खेलने में हर्ज नहीं


बड़ा सीधा सा तर्क है. दरअसल तर्क है ही नहीं क्योंकि शायद ही कोई क्रिकेट फैन हो जिसे आईपीएल में ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के खेलने से तकलीफ है. तकलीफ तो उस बात से है जो हम आपको अब बताने जा रहे हैं. आईपीएल की आठ टीमों से तीन टीमों के कप्तान ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी हैं. अगर उन टीमों के पास भारतीय खिलाड़ियों को कमान सौंपने का विकल्प ना होता तो भी बात पच जाती. लेकिन विकल्प देख लीजिए. राइजिंग पुणे सुपरजाइंट यानि RPS ने स्टीव स्मिथ को टीम की कमान सौंपी है. उसी टीम में महेंद्र सिंह धोनी, अजिंक्य रहाणे और आर अश्विन जैसे धुरंधर खिलाड़ी शामिल हैं.


आर अश्विन फिलहाल आईपीएल से बाहर हैं लेकिन धोनी को कप्तानी से हटाने का विवादास्पद फैसला इसी टीम ने लिया था. बतौर कप्तान धोनी के चमत्कार गिनाने की जरूरत नहीं है. कुछ ऐसी ही कहानी सनराइजर्स हैदराबाद की भी है. जिस टीम में युवराज सिंह और शिखर धवन जैसे खिलाड़ी शामिल हैं उस टीम की कमान डेविड वॉर्नर के हाथ में है. किंग्स इलेवन पंजाब के मालिकों की सोच भी कुछ ऐसी ही है. जिन्होंने मुरली विजय की बजाए ग्लेन मैक्सवेल को टीम की कमान सौंपी है.
ये सच है कि कोई भी भारतीय खिलाड़ी इस बारे में कुछ नहीं कहेगा. उसे कप्तानी से ज्यादा फिक्र इस बात पर होगी कि उसका व्यक्तिगत प्रदर्शन कैसा रहने वाला है. ऐसा इसलिए क्योंकि उसकी कमाई का सीधा रिश्ता उसके व्यक्तिगत प्रदर्शन से है.


ऑस्ट्रेलियाई लीग बिग बैश से तुलना


लगे हाथ आप ये भी जान लीजिए कि ऑस्ट्रेलिया में ‘बिग बैश’ के नाम से जो घरेलू लीग खेली जाती है उसकी स्थिति क्या है. वहां की घरेलू लीग में 8 में से 7 टीमों के कप्तान उनके अपने खिलाड़ी हैं. सिर्फ एक टीम की कमान विदेशी खिलाड़ी के हाथ में है. एडीलेड स्ट्राइकर्स की कप्तानी ब्रैड हॉज करते हैं. होबार्ट हरीकेंस की जॉर्ज बेली, मेलबर्न रेनगैड्स की एरॉन फिंच, मेलबर्न स्टार्स की डेविड हसी, पर्थ स्क्रॉचर्स की एस्टन एगर, सिडनी सिक्सर्स की मॉसेस हेनरिक्स और सिडनी थंडर्स की कप्तानी शेन वॉटसन करते हैं. ले-देकर ब्रिसबेन हीट इकलौती टीम है जिसकी कप्तानी न्यूजीलैंड के ब्रैंडन मैककलम के हाथ में है. कमाल है ऑस्ट्रेलिया को दुनिया की किसी और टीम के खिलाड़ियों में कप्तानी की काबिलियत नहीं दिखती.


बस नजरिए का फर्क है


असल में ये फर्क नजरिए का है. आईपीएल टीम मालिकों को लगता है कि ‘उनके’ खिलाड़ी ज्यादा ‘प्रोफेशनल’ ढंग से टीम संभालेंगे. कई टीमों के कोच की जिम्मेदारी भी विदेशी खिलाड़ियों के हाथ में है. टीम मालिकों ने ग्रेग चैपल और डंकन फ्लेचर जैसे विदेशी खिलाड़ियों की कोचिंग में टीम इंडिया की दुगर्ति पर से आंखे फेर ली हैं. यकीन मानिए ये बहस एक बार फिर तेज होगी कि क्या हम अपने खिलाड़ियों की बजाए विदेशियों की काबिलियत पर आंख मूंदकर भरोसा कर रहे हैं? कहीं आईपीएल के टीम मालिकों को भी स्वदेशी की माला जपने वाले बाबा रामदेव की जरूरत तो नहीं.