आर्थिक सर्वेक्षण का रंग इस बार गुलाबी था. गुलाबी इसीलिए क्योंकि सरकार को चिंता है कि लड़कियों के साथ लगातार गलत हो रहा है. पैदा होने से पहले मारी जा रही हैं, जिंदा हैं तो पढ़ाई लिखाई के बाद काम नहीं कर पाती, घर से बाहर हों या अंदर हिंसा की शिकार होती हैं. इसी चिंता को जाहिर करने के लिए इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण को गुलाबी रंग का कर दिया गया. इस भावना के साथ कि औरतों का सशक्तीकरण किया जाना चाहिए. जेंडर इक्वलिटी की बात करनी चाहिए. आर्थिक सर्वेक्षण को तैयार करने वाले चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर अरविंद सुब्रह्मण्यम ने कहा, हमारे यहां 63 मिलियन से अधिक औरतें आंकड़ों से ही 'गायब' हैं. मतलब उन्हें होना तो चाहिए था लेकिन वे हैं ही नहीं.
सेक्स रेश्यो अपने यहां बहुत खराब है. 2011 की सेंसस रिपोर्ट कहती है कि हमारे यहां हर हजार लड़कों पर लड़कियां सिर्फ 939 हैं. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की पिछले साल की 'यूथ ऑफ इंडिया' रिपोर्ट में कहा गया था कि आने वाले सालों में लड़कियों का अनुपात तेजी से गिरेगा. 2021 तक लड़कियों की संख्या 904 रह जाएगी और 2031 तक 898 पर धड़ाम गिर जाएगी. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था लड़कों की आबादी लगातार बढ़ रही है.
इसकी वजह सभी जानते हैं. जन्म से पहले भ्रूण की जांच और फिर लड़की का पता चलने पर भ्रूण हत्या. डॉक्टर को पैसे खिलाइए यह सब बहुत आसानी से हो सकता है. यूं 1994 के पीसीपीएनडीटी एक्ट के तहत यह गैरकानूनी है. पीछे देश में इस बात पर भी विचार किया जा रहा था कि सेक्स डिटरमिनेशन को वैध बना दिया जाए. पिछले साल अप्रैल में महाराष्ट्र विधानसभा की लोक लेखा समिति ने कहा था कि कन्या भ्रूण-हत्या रोकने के लिए डिलिवरी से पहले सेक्स डिटरमिनेशन को अनिवार्य बनाया जाए. मतलब अजन्मे शिशु के माता-पिता जब सोनोग्राफी के लिए अस्पताल में आएं तो उन्हें बच्चे के सेक्स के बारे में बता दिया जाए. फिर गर्भावस्था के दौरान माता-पिता पर नजर रखी जाए. इससे सेक्स रेश्यो दुरुस्त होगा. सोचने की बात है, ऐसा करने से क्या सेक्स रेश्यो बढ़ेगा? यह तो रसातल में चला जाएगा.
हमारे यहां तमाम कानून होने के बावजूद लड़कियां घट रही हैं. आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि लड़के होने पर परिवार बच्चे पैदा करने बंद कर देते हैं. लड़कियां होती हैं तो बच्चों की लाइन लगती जाती है. यह डेटा भी इस सर्वेक्षण में शामिल है कि हमारे यहां 21 मिलियन लड़कियां अनचाही हैं. माता-पिता, परिवार उन्हें पैदा नहीं कर चाहता था. किसी तरह हो गईं तो क्या करें. इसीलिए अनमने ढंग से उन्हें पाला जाता है. उन्हें पूरा पोषण नहीं दिया जाता, स्कूल नहीं भेजा जाता, बीमार होने पर दवा दारू नहीं कराई जाती. चाहे अमीर हो या गरीब, दोनों इस सोच का शिकार है कि लड़के हमें इस भव सागर से तारेंगे. इसीलिए दिल्ली जैसे अमीर शहर में भी लड़के-लड़कियों का सेक्स रेश्यो दिनों दिन बिगड़ता जा रहा है. लड़कियां हमें नहीं चाहिए. हमें लड़के ही चाहिए.
हमें लड़के चाहिए, तभी महाराष्ट्र में आयुर्वेद, मेडिसिन और सर्जरी की बीए स्तर की टेक्स्टबुक में पूरे एक पैसेज में बताया जाता है कि लड़के को जन्म देने के लिए हम क्या-क्या कर सकते हैं. घुड़साल में उगने वाले बरगद के पेड़ की उत्तर या पूरब दिशा में फैली टहनियों को कुछ-कुछ में पीसकर खाएं या औरत जमीन पर नाक के बल लेटकर नथुनों में कुछ उड़ेले, लड़का पैदा होगा. पूरा सूत्र देना ठीक नहीं. हां, इतना जरूर है कि इतने प्रपंच आप लड़के पैदा करने के लिए करें, भवसागर से पार जो होना है. यकीन मानिए कि इस कैरिकुलम को पास करने वाला आयुष मंत्रालय था. खबर के बाद किताब हटाई गई या नहीं, इसकी कोई जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन इससे हमारे नजरिए के धुर्रे जरूर उड़ जाते हैं.
औरतें गायब होंगी तो क्या होगा? औरतों के खिलाफ हिंसा बढ़ेगी. सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की एक रिपोर्ट कहती है कि इससे बहु विवाह का खतरा बढ़ेगा. कई जगहों पर विधवाओं की जबरन शादियां और गरीब परिवारों की लड़कियों को खरीदने की प्रवृत्ति भी बढ़ेगी. लड़कियां होंगी ही नहीं तो ब्याह किससे करेंगे. 2014 में हरियाणा के जींद में आम चुनावों के दौरान कुंवारा यूनियन ने एक नारा दिया था- 'बहू दिलाओ, वोट लो'. मतलब जो कन्या भ्रूण हत्या खत्म करेगा, उसे ही वोट मिलेगा.
उत्तर भारत के कई राज्यों में पूर्वी भारत से लड़कियां खरीदकर शादियां रचाने के कई मामले सामने आए हैं. 2014 में हरियाणा में हुई एक फील्ड स्टडी में पाया गया कि वहां 9,000 मैरीड लड़कियां दूसरे राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, असम, ओड़िशा, उत्तराखंड वगैरह से खरीदकर लाई गई हैं. इन्हें मोलकी कहा जाता है क्योंकि इन्हें मोल लेकर यानी खरीदकर लाया गया है. फिर उन्हें शोषण का शिकार होना पड़ता है, बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं होती. सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी साल एक फैसले के दौरान औरतों की तस्करी पर सरकार को फटकार लगाई थी. कोर्ट ने कहा था कि लड़कियां कम होंगी तो औरतों की तस्करी को आप रोक ही नहीं सकते.
युनाइटेड नेशन ने 2013 की अपनी रिपोर्ट में भी कहा था कि भारत में शादी के लायक लड़कियों की मांग इतनी ज्यादा है कि ब्राइड ट्रैफिकिंग वहां एक फलता-फूलता बिजनेस बन रहा है. इसी पर कई साल पहले मनीष झा की एक फिल्म आई थी 'मातृभूमि'. फिल्म 2050 के भारत पर बेस्ड थी, जब लड़कियां बचेंगी ही नहीं. एक गांव में सिर्फ आदमी ही आदमी हैं. तब एक बाप अपने पांच बेटों के लिए एक लड़की खरीदकर लाता है. लड़की की क्या दुर्गत होती है, यह बताने की जरूरत नही. गांव भर लड़की का दैहिक शोषण करता है. अंत में लड़की गर्भवती होती है और बच्ची को जन्म देती है. उम्मीद वहीं शुरू होती है.
देश और अपने समाज को बचाना है तो बेटियों के पैदा होने पर खुश होना सीखना होगा. हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण का गुलाबी रंग, अपनी स्टीरियोटाइपिंग से कुछ चुभता है. हर औरत को यह रंग पसंद नहीं होता. मेट्रो के रिजर्व कंपार्टमेंट और ऑटो रिक्शा से लेकर इकोनॉमिक सर्वे तक को गुलाबी करने की जरूरत नहीं है. इसकी बजाय औरतों के लिए काम करने की जरूरत है. कई मामले में वे पिछड़ रही हैं. आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हैं. संपत्ति में उन्हें हक नहीं मिलता. उनका अनपेड वर्क बढ़ रहा है, पेड वर्क में पार्टिसिपेशन कम हो रहा है. इस पर भी ध्यान देना जरूरी है. पॉलिटिकली सेफ होकर पितृसत्तात्मक सोच को दोष देने से कुछ नहीं होगा. मौजूदा सरकारी नीतियों और उनसे बनने वाली आर्थिक व्यवस्थाओं पर भी विचार करना होगा. तभी औरतें गायब होने से बचेंगी.
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