आखिर मुसलमान तीन तलाक के सवाल पर बहस से क्यों डरता है, क्या हैं वजहें?
शादी और तीन तलाक की सीरीज़ की दूसरी कड़ी में आज इस मुद्दे पर बात करेंगे कि आखिर मुसलमान तीन तलाक के सवाल पर बहस से क्यों डरता है और इसके पीछे की क्या वजहें क्या हैं.
इस बहस के आग़ाज़ से पहले ये याद दिलाते चले कि पिछली कड़ी में हम बता चुके हैं कि इस्लाम में शादी तोड़ने के चार तरीके हैं. तलाक, तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह. शादी तोड़ने के लिए तलाक का अधिकार मर्दों को है तो इसी तरह शादी को खत्म करने के लिए तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह का अधिकार औरतों को है. लेकिन सारा झगड़ा तलाक को लेकर है.
दरअसल इस्लामी समाज में तलाक देने के तीन तरीके चलन में हैं. तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-बिद्अत. पहले दो तरीके सही हैं जिनमें तलाक की प्रक्रिया तीन महीने में पूरी होती है इस प्रकिया के दौरान न सिर्फ पति-पत्नी शामिल होते हैं, बल्कि दोनों खानदान भी शरीक होते हैं. लेकिन झगड़ा तीन तलाक यानि एक साथ तलाक, तलाक, तलाक को लेकर है. इसे तलाक-ए-बिद्अत कहा जाता है और तलाक का यही तरीका झगड़े की पैदावार है.
तीन तलाक क्या बला है, इसपर बहस करने से पहले ये सारी बातें जरूर जानें
तलाक-ए-बिद्अत का मतलब होता है तलाक देने का ऐसा तरीका जो नया है और इस तरीके से तलाक देने वाला पापी है. सीधे शब्दों में ये कहें कि एक ही बार में तीन तलाक दे देना सही नहीं है और अगर कोई ऐसा करता है तो वो गुनाहगार है. कुछ अपवाद को छोड़कर सभी सुन्नी संप्रदायों में तीन तलाक की मान्यता है. लेकिन इसे लेकर पैगमबर मोहम्मद के निधन के 12 साल बाद से ही बहस जारी है. लेकिन मुद्दे की बात ये है कि क्या तीन तलाक पर पाबंदी शरीअत से छेड़छाड़ होगी?
क्या तीन तलाक पर पाबंदी शरीअत से छेड़छाड़ है?
एक बात याद रहे कि इस्लामी शरीअत (कानून) कुरआन और हदीस (पैगंबर मोहम्मद की कहीं बातें और किए गए काम) नहीं है. कुरआन और हदीस से छेड़छाड़ नहीं हो सकती, लेकिन शरीअत से छेड़छाड़ हो सकती है और बीते 1450 साल के इस्लामी इतिहास में इसकी भरपूर मिसालें भरी पड़ी हैं.
समझने की बात ये है कि कुरआन में सिर्फ 83 जगहों पर कानून की बातें कही गई हैं. यानि शरीअत रफ्ता-रफ्ता बना है और इसके बनाने में कुरआन, हदीस के साथ-साथ इंसानी अक्ल को भी शामिल किया गया है. इस्लाम में इंसान को ग़लती का पुतला कहा गया है यानी सीधी बात ये है कि जब शरीअत बनाने में इंसानी अक्ल लगाया गया है तो इसमें ग़लती से इनकार नहीं किया जा सकता है. इसका मतलब हुआ कि शरीअत का रिव्यू किया जा सकता है. और सच्चाई ये है कि लगातार शरीअत का रिव्यू किया जाता रहा है और मौके-मौके पर इसमें तब्दीली भी की जाती रही है.
क्या भारत में कभी शरीअत में बदलाव हुए हैं?
जी हां! भारत में भी शरीअत (मुस्लिम पर्सनल लॉ) में बदलाव किए गए हैं और वो भी खुद मुसलमानों ने आगे बढ़कर ऐसा किया. याद रहे कि भारत में अंग्रेजी दौर में ही मुस्लिम पर्सनल लॉ के कई कानून पास किए गए और खुद मुसलमानों ने इसमें बदलाव के सुझाव दिए. ये बात 1945 की है. मुद्दा था कितने सालों तक पति के ग़ायब रहने पर उसे लापता माना जाए. पहले के कानून में ये मुद्दत 90 साल थी, जिसे मुसलमानों ने बदलवाकर चार साल कर दिया.
तीन तलाक पर बदलाव में दिक्कत क्या है?
मौटे तौर इस दिक्कत को दो हिस्सों में बांटकर समझा जा सकता है. पहली वजह सियासी और असुरक्षा की भावना है तो दूसरी वजह धर्म अंदर के बवाल हैं.
पहली वजह: सियासी और असुरक्षा की भावना
बात की शुरुआत पहली वजह से ही करते हैं. भारतीय संसद, नौकरशाही, अदालतें और मीडिया जितनी ज़ोर से चिल्ला लें, डंका पीट-पीट कर कहें... देश में सभी लोगों की तरक्की की जितनी भी गौरवगाथा की जाए या मुसलमानों को उनकी बदहाली के लिए उन्हें कितने भी कोसे, लेकिन वो उस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की के लिए देश के चारों स्तंभों को जो काम करने चाहिए वे नहीं किए गए हैं. सरकार की बनाई खुद की रिपोर्टें इसकी चुगलती करती हैं. अभी उसपर विस्तार से जाने का समय नहीं है. इसका सीधा मतलब ये है कि मुसलमानों का बड़ा तबका सरकार की हर अच्छी और बुरी कोशिश को शक की निगाह से देखता है. और उसे लगता कि सरकार धीरे-धीरे उसकी शिनाख्त मिटाकर उसे हाशिए पर डाल देना चाहती है. आगे की कड़ी में इससे जुड़े सत्ता की उस सियासत पर भी बात होगी, जो वोट की झोली भरते हैं.
दूसरी वजह: धर्म के अंदर के बवाल
ये वजह काफी दिलचस्प है. इसमें दो पेंच भी हैं. पहली दिक्कत ये है कि आजादी के बाद से ही मौलाना और उलेमा ये कहते आए हैं कि शरीअत में बदलाव मुमकिन नहीं है और तीन तलाक पूरी तरह से इस्लामी है. इसमें बदलाव को स्वीकार करने का मतलब है भारत में इस्लाम खतरे में है. यानी आम मुसलमानों को शरीअत या तीन तलाक में किसी बदलाव के लिए तैयार नहीं किया और अब अचानक इसे ग़ैर इस्लामी करार देना उनके लिए एक व्यवहारिक मुश्किल है.
धर्म के अंदर दूसरा बवाल सांप्रदायिक बर्चस्व का है. तीन तलाक की प्रथा सुन्नी मुसलमानों (सूफी, बरेलवी और देवबंदी) के बीच है, लेकिन सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय है अहल-ए-हदीस, वो एक साथ तीन तलाक को नहीं मानता है. दिक्कत ये है कि भारत में जो सुन्नी मुसलमान हैं उनमें अहल-ए-हदीस मुसलमानों की तादाद बहुत ही कम है मुश्किल से पांच फीसदी होंगे.. अब अगर तीन तलाक में बदलाव को स्वीकार कर लिया गया तो इसका मतलब होगा कि अहल-ए-हदीस मुसलमानों ने सूफी, बरेलवी और देवबंदी मुसलमानों को पटखनी दे दी. इस बदलाव में ये भी एक बड़ा रोड़ा है.
एक दिक्कत एक ऐसी बीमारी है जो देश-दुनिया के हर मज़हब के धर्मगुरूओं में पाई जाती है. वो है... किसी भी नए और अच्छे बदलाव का विरोध करना है. दुनिया का इतिहास इससे भरा पड़ा है. आखिर मुसलमान इस बीमारी से क्यों अछूते होते... वो भी इस बीमारी में मुबतला हैं और ये बीमारी शिद्दत के साथ है.
और यही वजह है कि भारतीय मुसलमान तीन तलाक पर बहस से डरता है. अगली कड़ी में जानेंगे कि देश में अलग-अलग समुदायों के लिए पर्सनल लॉ क्या हैं और क्या सभी राज्यों और सभी समुदायों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाना और उसे लागू करना मुमकिन है?
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