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BLOG: 2019 में क्या राम ही करेंगे बीजेपी का बेड़ा पार?

राम मंदिर का मुद्दा चुनाव आते ही फिर गरमाने लगा है. संत समाज कानून के जरिए मंदिर बनाने की मांग कर रहा है. साथ ही अल्टीमेटम भी दे रहा है. विश्व हिंदू परिषद से बड़े बेआबरु होकर निकले प्रवीण तोगड़िया भी संत समाज के साथ हैं और उनका पूर्व संगठन विश्व हिंदू परिषद भी. अब तो खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने ही मोदी सरकार से राम मंदिर के लिए अध्यादेश लाने की मांग कर डाली है. वह भी खुल्लमखुल्ला एकदम सार्वजनिक. शिवसेना भी इसी बात पर जोर दे रही है.

अब सवाल उठता है कि आखिर संघ और उसके सहयोगी संगठन इतने उतावले क्यों हैं? जब मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और जहां 29 अक्टूबर से इसपर नियमित सुनवाई शुरू होने के भी आसार है तब क्यों इतनी बेचैनी हो रही है. आखिर कोर्ट के फैसले का इंतजार क्यों नहीं किया जा रहा है. सवाल उठता है कि मोदी सरकार और बीजेपी सार्वजनिक तौर पर कह चुकी है कि अदालत के फैसले का इंतजार किया जाएगा और उस फैसले का सम्मान भी किया जाएगा, तो फिर संघ समेत सहयोगी संगठन मोदी सरकार को चुनौती क्यों दे रहे हैं? सवाल उठता है कि क्या यह सब मिलीभगत है या यूं कहा जाए कि नूरा कुश्ती तो नहीं है.

सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि आखिर मोहन भागवत को सार्वजनिक रूप से यह बात कहने की जरुरत क्यों पड़ी, वह मोदी से रू-ब-रू मिलकर या फिर मोबाइल फोन पर भी तो उनसे यह बात कह सकते थे. पूरे देश को आखिर क्यों यह बताने की जरुरत पड़ी कि देखिए, हम अपने ही प्रधानमंत्री से अपील कर रहे हैं कि वह राम मंदिर के लिए अध्यादेश लाए. साफ है कि संघ प्रमुख की मांग या राय या सिफारिश या प्रार्थना या मनुहार या अनुनय या गुहार या अर्ध आदेश या संकेत क्या मोदी टाल सकते हैं, नकार सकते हैं, इनकार कर सकते हैं. अगर हां तो फिर इस मांग में कोई दम नहीं है. अगर नहीं तो तय है कि चुनावों से पहले कुछ होने वाला है.

बीजेपी या यूं कहा जाए कि मोदी सरकार की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि वह अब विपक्ष में नहीं है. विपक्ष में रहते हुए राम मंदिर की मांग करना बहुत सहज सरल आसान हो जाता है. लेकिन, अगर आप साढ़े चार साल से केन्द्र में सत्ता में हैं, लोकसभा में अपने दम पर बहुमत में हैं, जब देश के आधे से ज्यादा राज्यों में आपकी सरकारें हैं, जब यूपी में भी दो तिहाई बहुमत से आप सत्ता में हैं. तब राम मंदिर को लेकर संत समाज के सवालों के जवाब देना बेहद मुश्किल हो जाता है. उग्र हिदुंत्व की पैरवी करने वाले उस वोटर को भी जवाब देना मुश्किल हो जाता है जिसने राम मंदिर की आस में ही 2014 में भर भर झोली वोट दिया था. देश के करोड़ों राम भक्तों को भी संतुष्ट करना कठिन हो जाता है.

इसके साथ ही जब रोज पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ रहे हों, जब रसोई गैस की कीमत में इजाफा हो रहा हो, जब उम्मीद के मुताबिक नौकरियां नहीं मिल रही हो, जब अच्छे दिन की चर्चा से बचा जा रहा हो तब राम मंदिर की बात करने को आस्था से जोड़ा जाए या राजनीति से. जब आमतौर पर लोग कहने लगे हों कि 2019 में मोदी जी ही जीतेंगे क्योंकि सामने कोई नहीं है. लेकिन साथ यह भी जोड़ते हों कि पिछली बार से कुछ सीटें कम आएंगी तो सत्ता पक्ष की चिंता बढ़ जाती है. ऐसा इसलिए कि आमतौर पर लोग मोदी काल के विकास के कामों से ज्यादा तरजीह विकल्पहीनता को दे रहे हों.

ऐसा इसलिए कि कुछ सीटें का कम होना किस सीमा तक कम होना होगा. यही चिंता संघ को सता रही है. यही चिंता संगठन को भी सता रही है. यही चिंता सरकार को भी जरूर सता रही होगी. सरकार इस हकीकत को भी जानती है कि सिर्फ विकास के नाम पर चुनाव लड़ा तो जा सकता है लेकिन जीता नहीं जा सकता. सरकार यह भी समझती है कि जाति हावी हो गयी तो लेने के देने पड़ सकते हैं. सरकार को इस बात का भी भान है कि धर्म ही जाति को तोड़ता है. ऐसा 2014 के चुनाव में भी हुआ था और पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में भी हुआ था. पिछले बिहार के विधानसभा चुनावों में जाति हावी रही और बीजेपी हार गई. लिहाजा चुनाव में धर्म को ऊपर रखना जरूरी है. ऐसे में राम मंदिर से बड़ा भावनात्मक मुद्दा नहीं हो सकता जिसका सियासी फायदा उठाया जा सके.

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मोदी सरकार राम मंदिर पर कानून बनाने या उससे पहले अध्यादेश लाने की स्थिति में है. जो पार्टी अब तक कहती रही हो कि हर हालत में अदालत के फैसले का इंतजार किया जाएगा और उसका सम्मान किया जाएगा वह सरकार अध्यादेश किस मुंह से लाएगी. लेकिन यह बात नैतिकता के उस बाजार में ही फिट बैठती है जो भारतीय चुनावी मैदान में लुट चुका है. मर्यादा का खयाल न तो कांग्रेस ने रखा और बीजेपी ने भी नफा नुकसान के हिसाब से ही इसका ध्यान रखा. सत्ता के गलियारों में आमतौर पर कहा जा रहा है कि मोदी 2019 के चुनाव से पहले कुछ बड़ा कुछ चौंकाने वाला कर सकते हैं. नोटबंदी हो चुकी. सर्जीकल स्ट्राइक हो चुकी. तो आगे क्या राम जी ही करेंगे बेड़ा पार.

(नोट उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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