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BLOG: किसान आंदोलन पर सबसे बड़ी अदालत से क्या कोई बड़ा फैसला होगा....

सरकार और किसानों की बातचीत में कोई फैसला नहीं हो सका. दोनों पक्ष जिस तरह से अपनी अपनी जिद पर अड़ गये हैं उसे देखते हुए किसी फैसले पर पहुंच पाना असंभव ही नजर आता है. तो क्या माना जाए किसानों का आंदोलन लंबा चलने वाला है. या फिर बीच का रास्ता निकलने की संभावना बनी हुई है. यह रास्ता अगर आपसी बातचीत में नहीं निकला तो क्या सुप्रीम कोर्ट रास्ता निकाल सकता है.

किसानों और सरकार के बीच की रस्साकशी पर 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है. किसान इसमें पक्षकार नहीं है. यानि किसानों ने तीन कानूनों को खत्म करने का मामला अदालत के सामने नहीं उठाया है और उनका ऐसा कोई इरादा भी नहीं है. ऐसे में स्वभाविक है कि सुप्रीम कोर्ट में 11 जनवरी की सुनवाई में कुछ खास होने वाला नहीं है. बिना किसानों के मुंह से किसानों का पक्ष जाने अदालत एकतरफा कार्रवाई करने वाली नहीं है. लेकिन फिर भी कोर्ट को चार अलग अलग मांगों पर सुनवाई करनी है. पहला- तीन कानून संविधान के दायरे में नहीं आते हैं लिहाजा इन्हे रदद किया जाए. दूसरा- किसानों को दिल्ली में विरोध प्रदर्शन करने की कोई जगह दी जाए. तीसरा- किसानों के आंदोलन से आम जनता को तकलीफ हो रही है लिहाजा ब्लाकेड हटाया जाए. चौथा- किसानों के बड़ी संख्या में एक जगह जमा होने के कारण कोरोना का संकट पैदा हो गया है या नहीं इसपर स्थिति साफ हो.

पहली मांग पंजाब सरकार की तरफ से की गयी है. पंजाब सरकार का कहना है कि कृषि राज्यों की सूची में आता है लिहाजा केन्द्र को इसपर कानून बनाने का कोई हक नहीं है. अलबत्ता कृषि व्यापार जरुर समवर्ती सूची में आता है. लेकिन सरकार ने जो तीन नये कानून बनाए हैं वह कृषि के तहत आते हैं लेकिन सरकार बता रही है कि वो कृषि व्यापार के तहत आते हैं. इस तर्क को देते हुए मांग की जाएगी कि लिहाजा तीनों कानून अवैध है, असंवैधानिक है. इसलिए तीनों को सरकार या तो वापस ले या फिर अदालत तीनों कानुनों को रदद घोषित कर दे. अब यहां बहस दिलचस्प हो सकती है. अपने अपने नजरिया से राज्य और केन्द्र कानूनों का विशलेषण कर सकते हैं. लेकिन यह मामला सुनवाई पुरी होने में समय लगाने वाला है. इसके लिए अदालत को संविधान पीठ का गठन करना पड़ेगा. इस सबमें समय लगना तय है.

केन्द्र सरकार कुछ समय पहले तक कह रही थी कि आपसी बातचीत में ही हल निकल आए तो अच्छा. यहां तक कि अदालत को भी कह दिया गया था कि किसानों के साथ बातचीत चल रही है और समझौते पर पहुंचने की उम्मीद भी है. लिहाजा अदालत अभी दखल नहीं दे. यह तब की बात है जब अदालत ने एक कमेटी गठित करने का सुझाव दिया था. साथ ही यह भी कहा था कि अगर कमेटी का नतीजा आने तक कानूनों के अमल पर रोक लगा दी जाती है तो अदालत किसानों से बात कर आंदोलन को फिलहाल के लिए खत्म करवा सकती है. लेकिन तब केन्द्र सरकार मानी नहीं थी लेकिन अब अचानक मोदी सरकार ने सुर बदला है और कहना शुरु किया है किसान चाहें तो अदालत जा सकते हैं. इसके पीछे दो कारण हैं. एक , किसानों पर दबाव डालना और दो, सरकार को लगता है कि अदालत ने सुनवाई शुरु कर दी तो किसानों को धरना उठाना ही पड़ेगा. ऐसे में सरकार को समय मिल जाएगा. किसान भी घर पहुंच चुके होंगे और ठंडे दिमाग से काम ले रहे होंगे. ऐसे में अदालत के अंदर या बाहर बीच के रास्ते की तलाश आसान हो जाएगी.

किसान भी समझ रहे हैं. वो जान गये हैं कि अदालत ले जाने की बात कह कर सरकार उन्हें फंसाने की कोशिश कर रही है. किसानों को लगता है कि जब कानून सरकार ने बनाए, जब जवाबदेही सरकार की है तो अदालत को बीच में क्यों घसीटा जाए. सरकार से ही बात हो सरकार को ही कानून वापस लेने के लिए मजबूर किया जाए और अदालत में समय खराब करने से बचा जाए.

किसान समझ रहे हैं कि अदालत में बहुत समय लगने वाला है और इस समय का इस्तेमाल सरकार उनके खिलाफ ही करने वाली है. ऐसे में देखना दिलचस्प रहेगा कि 11 जनवरी को अदालत क्या रुख अपनाती है. क्योंकि 15 जनवरी को सरकार और किसानों के बीच फिर से बातचीत होनी है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि अदालत भी कहे कि चलो 15 जनवरी और देख लेते हैं. उसमें कोई समझौता नहीं हुआ तो अदालत फिर पूरे मामले को अपने हाथ में लेगी. होने को बहुत कुछ हो सकता है जिसपर सबकी नजरें हैं.

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