जब दुनिया भर में #Metoo कैंपेन चल रहा था, तब सुप्रीम कोर्ट एक पीईएल की सुनवाई कर रहा था. यह पीईएल देश में रेप, यौन शोषण, स्टॉकिंग वगैरह से जुड़े कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाने पर थी. पीईएल दाखिल करने वाली वकील का कहना था कि देश में इन कानूनों में सिर्फ महिलाओं को संरक्षण मिला हुआ है. इसे किसी एक जेंडर तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए. अपराध कोई भी कर सकता है, आदमी भी, औरत भी इसलिए कानून में जेंडर तय नहीं किया जा सकता. उसे किसी खास जेंडर के अपराधियों के बीच भेदभाव नहीं करना चाहिए. जिस जेंडर का व्यक्ति अपराध करे, उसे सजा मिलनी चाहिए. कहने का मतलब यह था कि यौन उत्पीड़न औरतों का नहीं, दूसरे जेंडर वालों का भी होता है. जबकि हमारे देश में इन कानूनों में सिर्फ आदमियों को ही सजा का प्रावधान है.  इसे जेंडर न्यूट्रल बनाया जाना चाहिए. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पीईएल को रद्द कर दिया लेकिन इस मुद्दे पर लगातार बहस छिड़ी हुई है.



रेप और यौन शोषण से जुड़े कानून अपने यहां सिर्फ औरतों को न्याय दिलाने का काम करते हैं. मर्दों के हितों के लिए काम करने वाले इस कानून को जेंडर न्यूट्रल बनाने के हिमायती हैं. चूंकि आईपीसी के सेक्शन 354, 354 ए, 354 बी, 354 सी, 354 डी और 375, सभी यौन हिंसा के अपराधी को पुरुष के रूप में डिफाइन करते हैं, जो किसी औरत की बिना सहमति के सेक्सुअल एक्टिविटी में शामिल होता है. पीछे, पुणे में एक ट्रांसजेंडर के साथ रेप हुआ तो अपराधियों को सजा नहीं मिल पाई. ट्रांसजेंडरों के राइट्स के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट्स का भी कहना है कि कानून में इस बात का कोई प्रावधान नहीं है कि ट्रांसजेंडर भी असॉल्ट का शिकार हो सकते हैं.



इससे पहले लॉ कमीशन की 172 वीं रिपोर्ट में रेप की जेंडर न्यूट्रल परिभाषा का प्रस्ताव रखा गया था. फिर क्रिमिनल लॉ विधेयक 2012 में कहा गया कि आईपीसी में रेप शब्द की जगह सेक्सुअल असॉल्ट का इस्तेमाल किया जाए. दिल्ली में 16 दिसंबर के गैंग रेप के बाद जस्टिस वर्मा कमिटी ने सभी विक्टिम्स को कवर करने के लिए महिला की जगह व्यक्ति शब्द का इस्तेमाल किया. 2013 में सरकार क्रिमिनल लॉ का अध्यादेश लेकर आई लेकिन इसे महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों की जबरदस्त आलोचना सहनी पड़ी. फिर सरकार ने इस परिषाभा को जेंडर स्पेसिफिक ही रहने दिया. मतलब, उसमें महिलाएं ही विक्टिम मानी गईं. अपराधी मर्द ही रहा. ट्रांसजेंडर हाशिए से बाहर हो गए हमेशा की तरह.



अपराध को मर्द और औरत के दायरों से बाहर निकलकर देखना लॉजिकल लगता है. हमारे देश के तमाम दूसरे कानून जेंडर न्यूट्रल हैं. अपराध अपराध है और उसे उम्र, जाति, जेंडर या सेक्सुअल ओरिएंटेशन से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. बेशक, सही भी है. लेकिन यह नजरिया ही प्रॉब्लम भरा है. अपराध की प्रकृति को न समझने जैसा. अपराध को समझने के लिए अपराधियों, विक्टिम और उन सामाजिक संदर्भों को समझना उतना ही जरूरी है, जिसमें अपराध होते हैं. रेप और यौन हिंसा के दूसरे अपराधों को भी इसी तरह समझा जा सकता है. खासकर भारत जैसे देश में. पितृसत्ता हमारे समाज के ताने-बाने में बसी हुई है. यौन हिंसा को यहां महिला या जिसे आप नॉन मेल बॉडी कह सकते हैं पर अपनी ताकत आजमाने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.



मशहूर अमेरिकन फेमिनिस्ट जिल फिलिपोविक ने बोलिविया और भारत में रेप की घटनाओं पर न्यूजपेपर गार्जियन में एक आर्टिकल लिखा था ‘रेप इज अबाउट पावर, नॉट सेक्स’ इसमें उनका कहना था कि जिन समाजों में औरतें सेकेंड क्लास सिटिजन हैं, जहां औरतों के शरीर को पॉलिटिसाइज किया जाता है, जहां सोशल हेरारकी में मर्दों को विशेषाधिकार और अथॉरिटी मिलती है, वहां रेपिस्टों को बढ़ावा मिलता है. वे अपराध को प्रवृत्त होते हैं.



इसीलिए जब समाज में स्थितियां एक समान नहीं हैं तो मर्द और औरत को किसी कानून में बराबरी कैसे मिल सकती है. यहां तक कि औरतों को औरतों के बीच भी बराबर नहीं माना जाता. जैसे एक सवर्ण और एक दलित औरत में चाहे कितनी बराबरी की बात की जाए, दोनों में बराबरी संभव ही नहीं. एक कदम किनारे निकलते हुए यह डेटा आगे रखा जा सकता है कि देश में एक औसत दलित औरत की मौत ऊंची जातियों की औरतों के मुकाबले लगभग 15 साल पहले हो जाती है. इसका कारण गंदगी है. साफ पानी और हेल्थकेयर न मिलना है.



रेप और यौन हिंसा के दूसरे कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाने वालों के पास ऐसे कोई उदाहरण नहीं, जब किसी औरत ने किसी मर्द को रेप का शिकार बनाया हो. हां, जहां तक ट्रांसजेंडरों का सवाल है, इसका दूसरा रास्ता निकाला जा सकता है. निर्भया रेप मामले के बाद जस्टिस वर्मा कमेटी ने सुझाव दिया था कि कानून में भले ही अपराधी का जेंडर तय हो, लेकिन विक्टिम को जेंडर न्यूट्रल बना दिया जाए जिससे मर्द, औरत और ट्रांसजेंडर सभी इसमें शामिल हो जाएंगे. कमेटी ने मैरिटल रेप को क्रिमिनलाइज करने और आफ्स्पा हटाने की बात भी कही थी ताकि यौन हिंसा में शामिल सैनिकों के खिलाफ भी सामान्य क्रिमिनल लॉ के तहत मुकदमा चलाया जा सके.



इसके अलावा सेक्शन 377 को रद्द करने की बात भी लगातार कही जा रही है. अगर ऐसा होता है तो दो वयस्क मर्दों के बीच सहमति से सेक्स को मंजूरी मिल जाएगी. तब ऐसा कानून बनाया जा सकेगा, जिसमें दो वयस्कों के बीच सहमति के बिना सेक्स को अपराध ठहराया जा सके. इससे मर्दों को भी सेक्सुअल हिंसा के खिलाफ कानूनी सुरक्षा मिल जाएगी. ट्रांसजेंडर बिल को भी दोबारा बनाए जाने की जरूरत है जैसा कि इस बिल की पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिश है. ट्रांसजेंडर व्यक्ति की परिभाषा को ज्यादा व्यापक बनाया जाए. उनकी शिक्षा, रोजगार, हेल्थकेयर वगैरह पर ध्यान दिया जाए. ट्रांसजेंडरों के उत्पीड़न में उत्पीड़न के प्रकार की स्पष्ट परिभाषा पेश की जाए.



कानून को जेंडर न्यूट्रल बनाने से मर्द के हाथ एक और हथियार लग जाएगा. औरत के खिलाफ इसका भरपूर इस्तेमाल होगा. औरत दुश्वारियों और रूढ़ियों के बीच फंसती जाएगी. इसीलिए कानून को अपना काम करने दीजिए. नए कानून और बन जाएंगे.


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