हम अंगदान को महादान कहते हैं और इस महादान के लिए हम तैयार किसे करते हैं- हैरान मत होइए. औरतों को ही. जैसे बलिदान वाले तमाम काम औरतों के जिम्मे हैं, उसी तरह अंग दान करने का महान काम भी उन्हीं के लिए रख छोड़ा गया है. वैसे यह दुनिया भर की सच्चाई है. दुनिया के हर कोने में ऑर्गन डोनर्स औरतें ही ज्यादा संख्या में हैं. मरकर अंग दान करना, एक तरफ है. लेकिन जीते-जी किसी अपने की जिंदगी बचाने के लिए जब अंगदान करने की बात आती है तो इसका ठीकरा औरतों के सिर ही फोड़ा जाता है. किडनी से लेकर लीवर ट्रांसप्लांट की पेशकश औरतों की तरफ से ही आती है. कभी भावनाओं में बहकर, कभी दबाव में. दुनिया में हर कहीं.
जीते जी अंगदान करने को लिविंग डोनर आर्गन ट्रांसप्लांट या एलडीओटी कहा जाता है. पिछले डेढ़ दशक के दौरान भारत दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में एलडीओटी का सेंटर बन चुका है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े कहते हैं कि 2011 में तो अमेरिका के बाद यहां विश्व में दूसरी सबसे बड़ी संख्या में एलडीओटी किए गए थे. एक नेशनल ट्रांसप्लांट रजिस्ट्री न होने के कारण हाल के आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन कई आरटीआई से यह पता चला है कि इन ट्रांसप्लांट्स में औरतों की बड़ी भूमिका होती है. सोहिनी चट्टोपाध्याय नाम की एक महिला पत्रकार ने जब चार बड़े अस्पतालों में आरटीआई दायर करके यह जानने की कोशिश की तो उन्हें पता चला कि 74% किडनी डोनर्स औरतें ही हैं. यह आंकड़ा 2008 से 2017 के बीच का था. इसी तरह 2009 से 2017 के बीच के लीवर डोनर्स में 60.5% औरतें थीं. ये सारे ऑपरेशंस कानूनी दायरे में आते थे. बाकी चुपचाप, अंग बेचने या चुराने वाले मामले तो इसमें शामिल ही नहीं थे, जिनमें बहुत बड़ी संख्या में औरतों के शामिल होने की आशंका जताई जाती है.
वैसे विश्व स्तर पर भी यही रवैया है. लेकिन हम तसल्ली कर सकते हैं कि किसी मामले में तो हम अमेरिका से आगे हैं. वहां भी औरतें काफी बड़ी दानी हैं लेकिन फिर भी हमारे देश की औरतों से कम. यहां 62% औरतें किडनी डोनर्स हैं और 53% लीवर डोनर्स. हां, जब अंग लेने की बात आती है तो औरतें पीछे हट जाती हैं. मतलब अमेरिका में जिन रोगियों में लीवर ट्रांसप्लांट किया जाता है, उनमें औरतें 35% होती हैं. इसी तरह किडनी ट्रांसप्लांट करवाने वाले रोगियों में औरतें 39% होती हैं. भारत इससे भी महान है. यहां लीवर ट्रांसप्लांट के रोगियों में औरतें सिर्फ 24% और किडनी ट्रांसप्लांट के रोगियों में सिर्फ 19% होती हैं.
हम महान हैं. अंग दान करते हैं, किसी से लेते नहीं. बलिदान करने में औरतों का कहां कोई सानी है. उनका जन्म ही समर्पण के लिए होती है. तो, शरीर के अंग निकालकर देना कौन सी बड़ी बात है. वे ऐसा करने से परहेज नहीं करतीं. बेटियां, मां, बहू, बहन, हर रिश्ते में बंधने के बाद कई बार बड़ी बेड़ियों का शिकार हो जाती हैं. चाहें तो भी मना नहीं कर सकतीं. मना करेंगी तो जाएंगी कहां. घर-परिवार से झगड़ा नहीं होता. झगड़ने के बाद बाहर जाने का रास्ता भी नही होता.
किसी ने पूछा, इस महायज्ञ में औरतों की आहूति ज्यादा क्यों है? चूंकि यह अर्थशास्त्र के लिहाज से भी दुरुस्त है. अंगदान एक खर्चीली और लंबी प्रक्रिया है. महीनों लग जाते हैं. आदमी परिवार में कमाऊ मेंबर होते हैं. अगर वे अंगदान करेंगे तो काम से छुट्टी लेनी होगी. औरतें क्या करती हैं घर पर बैठकर. पलंग ही तो तोड़ती हैं. तो, कुछ महीने और तोड़ लेंगी. घर काम तो बीच-बीच में हो ही जाएगा. औरत कर भी लेगी. उसे हर हालत में घर काम करने की आदत होती है. होनी भी चाहिए. तो कुल मिलाकर, औरतें कॉस्ट इफेक्टिव डोनर्स बन जाती हैं.
मजाक बहुत हुआ. ताने भी. औरतें बड़ी ऑर्गन डोनर्स हैं- यह कोई खुशी की नहीं, दुख की बात है. कोई कह सकता है, अपनी मर्जी से अंग दान करने वालों को रोकना, मेडिकली अनएथिकल है. लेकिन यह मर्जी जानने की कोशिश कौन करता है. औरतों की मर्जी कहां पूछी जाती है. पढ़ाई के वक्त, शादी के वक्त, बच्चे पैदा करने के वक्त, घर काम में झोंकने के वक्त, घर की चारदीवारी में परिवार पालने की जिम्मेदारी देने के वक्त... किसी भी वक्त नहीं. उसकी मर्जी है, सेना में भर्ती होकर लाम पर जाने की- आप कह सकते हैं कि अभी तुम तैयार नही. वह शादी किए बिना किसी के साथ लिव-इन में रहना चाहती है, आप कह सकते हैं कि अभी समाज इसके लिए तैयार नही. वह बच्चे पैदा ही नहीं करना चाहती, आप कह सकते हैं कि इसके लिए परिवार और पति तैयार नहीं. आपकी इतनी मनमर्जियों के बीच उसकी मर्जी कब रिस-रिसकर, सूखे रेगिस्तान से मन में समा जाती है, पता ही नहीं चलता. हां, सिर्फ महादान के वक्त, आप साबित कर देते हैं कि यह सब उसकी मर्जी से हो रहा है. उसकी हमेशा से ‘पवित्र’ समझी जाने वाली देह की चीड़-फाड़ की जाती है, आदमियों के लिए- ज्यादातर आदमियों के द्वारा.
इस मर्जी के बाद यह भी जान लें कि औरतों के स्वास्थ्य पर हम कितना खर्च करते हैं. अमेरिका की पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंसेज में छपे एक रिसर्च पेपर ‘जेंडर डिफ्रेंस इन हेल्थ केयर एक्सपेंडिचर: एविडेंस फ्रॉम इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे’ में स्कॉलर नंदिता सैकिया कहती हैं कि खांसी, बुखार और डायरिया को छोड़कर सभी गंभीर बीमारियों में औरतों पर, आदमियों के मुकाबले 28% कम खर्च किया जाता है. अगर आदमियों पर औसत 10,165 रुपए खर्च होते हैं तो औरतों पर औसत 7,383 रुपए ही. तो, हम मानकर चलते हैं कि औरतों को हेल्थ केयर की न तो उतनी जरूरत है, और न ही उन्हें यह दिया जाना चाहिए. इसीलिए एनएफएचएस 4 के डेटा कहते हैं कि देश की हर सात में से एक औरत को प्रेग्नेंसी के दौरान अस्पताल नहीं ले जाया जाता. इनमें से आधी औरतों को अस्पताल में प्रॉपर हेल्थ सर्विस सिर्फ इसलिए नहीं मिली क्योंकि उनके पति या फैमिली वाले इसे जरूरी नहीं समझते.
तो, अंग दान जैसे महादान में औरतों को होम करने से पहले सोचिए- क्या इसलिए उनकी रजामंदी है. औरतों की रजामंदी को भी उतनी ही अहमियत दीजिए, जितना किसी महादान को सफल बनाने को देते हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)