किसी आदमी ने इंटरनेट पर सवाल पूछा कि ''अगर मैं अपनी ‘वुड बी’ बीवी से चार गुना ज्यादा कमाता हूं तो मैं उसके साथ घर का काम क्यों शेयर करूं? इसकी बजाय, मैं उससे कहूंगा कि उसे मेरी बजाय अपने जितना कमाने वाले आदमी से शादी करनी चाहिए.''
मर्दों के ऐसे सवालों का जवाब देना आसान नहीं. घर का काम बांटकर करने के पीछे वे तमाम तर्क दे सकते हैं. किसी को ये तर्क सही भी लग सकते हैं. बातों का क्या है, वे तो होती ही रहती हैं. वैसे यही तर्क देते-देते हम इस स्थिति तक पहुंच गए हैं कि सिर्फ कमाने वाले की इज्जत करो. ज्यादा कमाने वाले की ज्यादा इज्जत करो. कम कमाने वाले को कम करके आंको. और जो न कमाए, उसे तो अपना गुलाम ही समझो.
औरतों सदियों से इस गुलामी को झेल रही हैं. घर के कामों में कैद हो जाती हैं और अच्छी पढ़ाई लिखाई के बाद भी अपना करियर चौपट कर देती हैं. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़े भी कहते हैं कि देश की 60 परसेंट एडल्ट औरतें अनपेड घरेलू काम में लगी हुई हैं. इनमें से अधिकतर का यह कहना है कि घर का कोई दूसरा मेंबर इसके लिए तैयार नहीं है. इसीलिए उन्हें घर के काम करने पड़ते हैं. अक्सर घर के काम की वजह से लड़कियों से स्कूल छुड़वा दिए जाते हैं. ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी की एक इंडियन डॉक्टोरल स्टूडेंट ने दिल्ली की रीसेटेल्मेंट कालोनियों में लड़कियों पर एक स्टडी की. इस स्टडी में यह पता चला कि 6-13 साल की बच्चियों के स्कूल छोड़ने का तीसरा सबसे बड़ा कारण घर का काम है.
इंटरनेट पर भी इस चर्चा में लाखों लोगों ने भाग लिया. बहुतों ने उस अनाम आदमी के इस तर्क पर मजेदार प्रतिक्रियाएं दीं, बहुतों ने कहा कि घर के काम को हम इतना बोझिल क्यों मानते हैं. आखिर शादी करने के बाद कुछ जिम्मेदारियां तो बनती ही हैं. लेकिन जिम्मेदारियां निभाने का सारा दायित्व औरत पर ही आ जाता है. घर में लेबर के कॉन्सेप्ट के आते ही हमारी नजर में सिर्फ औरत ही आती है. अधिकतर लोग यह मानते हैं कि समानता के मॉर्डर्न कॉन्सेप्ट का औरतें गलत फायदा उठा रही हैं. ‘घर पर रहोगी तो क्या इतना भी न करोगी’ टाइप जवाब देने वाले भी बहुत से हैं. इसीलिए घर पर रहना ही परेशानी वाला विचार है. इसीलिए हम कहते हैं कि घर पर रहकर टाइम वेस्ट करना ही नहीं. कमाओ तो तुम्हारी भी पूछ होगी. देश की अर्थव्यवस्था भी सुधरेगी.
मेकिन्से की स्टडी बराबर यह कहती है कि अगर भारत में मर्द औरतों के साथ मिल-बांटकर काम करें तो देश की जीडीपी में साल 2025 तक 16 परसेंट का इजाफा हो सकता है. जाहिर सी बात है, घर के काम के चलते उन्हें घर पर ही बैठना पड़ता है. काम तो करती हैं, पर उसके लिए कोई पेचेक नहीं मिलता. इसीलिए पेचेक के लिए काम करना जरूरी है.
जिस आदमी ने इंटरनेट पर यह सवाल किया था उसकी तनख्वाह 12 लाख रुपये महीने थी. उसकी होने वाली पत्नी की 4 लाख थी. अक्सर लाखों कमाने वालों के घर पर काम करने के लिए हाउस हेल्प या मेड्स होते हैं. लेकिन ऐसे घरों में भी हाउसहोल्ड मैनेजमेंट का काम औरतें ही करती हैं. शॉपिंग लिस्ट बनाने से लेकर बच्चों के स्कूल का होमवर्क, किसी के बीमार होने पर उसे अस्पताल ले जाने की चिंता, खाना क्या पकेगा से लेकर पेंडिंग बिल्स को भरना और रिश्तेदारों को अटेंड करना. इस तरह के ‘वरी वर्क’ का सारा लोड भी औरतों पर ही आता है. तो, भले ही सीनियर मैनेजेरियल पोस्ट्स पर भारत में सिर्फ 4 परसेंट ही औरतें हैं लेकिन घर-भर के मैनेजमेंट का काम वे ही करती हैं.
अभी कुछ महीने पहले फ्रेंच कार्टूनिस्ट एम्मा की कॉमिक स्ट्रिप में इसी सोच को उतारा गया था. जिसे दुनिया भर में बेहद पसंद किया गया. इस स्ट्रिप का नाम है- ‘यू शुड हैव आस्क्ड’’. फ्रेंच भाषा में होने के बावजूद इसमें किसी भी समाज की सच्चाई साफ नजर आती है. कार्टून में मियां बीवी से घर के काम के लिए कहता है, ‘’अरे, तुमने मुझसे यह करने को क्यों नहीं कहा.’’ खाना जल रहा, जूठे बर्तनों के ढेर से सिंक भरा पड़ा है, बच्चे रो रहे हैं पर मियां के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. तब एम्मा कहती है, ‘’जब आप अपनी बीवी से यह वाक्य कहते हैं तो आप मानकर चलते हैं कि वह घर की मैनेजर है और वही आपको बताएगी कि आपको क्या करना है. आप खुद यह क्यों नहीं सोच पाते कि आपको यह करना चाहिए.’’ एम्मा औरतों के इस घरेलू मैनेजमेंट को ‘मेंटल लोड’ का नाम देती हैं तो क्या गलत करती हैं.
दरअसल हम कितना भी चाहें, जेंडर रोल्स हमसे चिपके ही रहते हैं. आदमी बाहर काम करेगा, औरत घर के अंदर. इसमें बदलाव सिर्फ इतना हुआ है कि औरत ने बाहर काम करना शुरू कर दिया है. घर का काम अब भी उसी के जिम्मे है. इस घर के काम का मोल हम नहीं आंकते. इसे लेबर ऑफ लव कहते हैं. भला प्यार की भी कोई कीमत है क्या? लेकिन कीमत तो हर चीज की होती है. अभी हाल ही में खाना देर से देने पर गाजियाबाद में 55 साल की एक औरत को उसके पति ने गोलियों से भून डाला. तो, घर काम में डिले की कोई गुंजाइश नहीं है.
1972 में पहली बार फेमिनिस्ट सेलमा जेम्स ने इटली मे इंटरनेशनल वेजेज फॉर हाउसहोल्ड कैंपेन चालू किया. मतलब घर काम का भी मेहनताना मिलना चाहिए. घरेलू हिंसा से बचने का सबसे अच्छा तरीका इसी को बताया गया. वेनेजुएला जैसा देश तो 2006 से होममेकर्स यानी घर पर रहकर घर काम करने वाली बीवियों को देश में निर्धारित न्यूनतम वेतन का 80 परसेंट देता है.
ऐसे में इंटरनेट पर सवाल उछालने वाले को इस आधार पर सोचना चाहिए कि दुनिया बदल रही है. आपको सभी क्षेत्रों में विकास चाहिए तो इस सामाजिक विकास का भी ख्याल रखना होगा. वैसे प्रतिक्रियाओं के थ्रेड में एक जवाब लाजवाब था. इसमें किसी ने कहा था, ‘घर में पैसे का योगदान आंकने से पहले मर्द को यह सोचना चाहिए कि एक मियां-बीवी के प्रेम का खामियाजा सिर्फ बीवी को होता है. एक इंजॉयमेंट की खातिर वह नौ महीने बच्चे को पेट में पालती है. मर्द तो एक स्पर्म देकर आराम से उस इंजॉयमेंट से निकल जाता है. हां, बच्चे पर उसका दावा 50 परसेंट का बनता है.’’ क्या औरतें भी पूछ सकती हैं कि बच्चे में आपका योगदान कितना है? शायद एक परसेंट भी नहीं. क्या इस सवाल का जवाब कोई देना चाहेगा?
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