थैंक यू सुप्रीम कोर्ट... कि सबरीमाला के बंद दरवाजे औरतों के लिए खुल गए. सुप्रीम कोर्ट ने सिलसिलेवार कई मामलों पर फैसले देते हुए सबरीमाला मसले पर भी अपना फैसला सुना दिया है. केरल की राजधानी तिरुअनंतपुर से लगभग 200 किलोमीटर दूर, पेरियार टाइगर रिजर्व में स्थित है सबरीमाला. 18 पहाड़ियों के बीचों-बीच. साल में सिर्फ कुछ ही समय के लिए मंदिर श्रद्धालुओं के लिए खुलता है, और उन दिनों 40 से 50 मिलियन लोग भगवान अयप्पा के दर्शन के लिए पहुंचते हैं. लेकिन उनमें औरतें नहीं होतीं. जो होती हैं, बुढ़िया ही होती हैं. 10 से 50 साल के बीच की औरतें वहां नहीं जा सकतीं. मंदिर में औरतों के घुसने पर पाबंदी है. अब सुप्रीम कोर्ट ने यह पाबंदी हटा दी है. कहा है कि सबरीमाला में हर कोई जा सकता है. शारीरिक भेद के आधार पर किसी को मंदिर में दाखिल होने से रोका नहीं जा सकता.
कोर्ट ने मंदिर में औरतों के बैन को छुआछूत की तरह बताया है. छुआछूत करने वाले अपवित्रता से दूर रहना चाहते हैं. जिनसे छुआछूत किया जाता है, उन्हें अपवित्र समझा जाता है. औरतें भी अपवित्र होती हैं- पीरियड्स की वजह से. इसीलिए उनके मंदिर में जाने पर पाबंदी है. कोर्ट ने साफ कहा है कि यह बैन भी छुआछूत की ही तरह है. हमारे संविधान में छुआछूत से सभी को प्रोटेक्शन मिला हुआ है. धर्म, जाति या लिंग के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता. वैसे इससे पहले केरल हाई कोर्ट सबरीमाला में औरतों के बैन को सही ठहरा चुका है. मंदिर पक्ष का कहना था कि दुनिया में भगवान अयप्पा के जितने मंदिर हैं उनमें से किसी में भी औरतों के जाने पर पाबंदी नहीं है. लेकिन सबरीमाला में भगवान ब्रह्मचारी हैं इसलिए औरतों से दूर रहते हैं. यह मामला भेदभाव का नहीं, न ही लिंग असमानता का है. मामला भगवान के अधिकार से जुड़ा है.
पर कोर्ट ने औरतों के अधिकार को ऊपर रखा है. कहा है कि धार्मिक आस्था से ज्यादा जरूरी औरतों के मौलिक अधिकार हैं. पहले मंदिर पक्ष का कहना था कि संविधान का अनुच्छेद 25 सभी को धार्मिक आचरण की आजादी देता है. सबरीमाला का धार्मिक आचरण यह है कि मंदिर में औरतें नहीं जा सकतीं. लेकिन कोर्ट ने अनुच्छेद 25 के प्रावधान एक का हवाला दिया है जो हर किसी को धार्मिक आचरण का समान हक देता है. हर किसी, मतलब औरतों को भी. किसी भी इनसान को उसके लिंग के आधार पर मंदिर में जाने से कैसे रोका जा सकता है? रोकने के तर्क (या कुतर्क) कई और तरह के भी हैं. औरतें मंदिर में जाएंगी तो अनर्थ हो जाएगा. एक अनर्थ की कल्पना कुछ महीने पहले भी की गई थी. केरल में आई बाढ़ के लिए औरतों को ही जिम्मेदार बताया गया था. कहा गया था कि औरतों की जिद के कारण ही भगवान अयप्पा नाराज हो गए- तो उन्होंने केरल के विनाश की लीला रच दी. ट्विटर पर हैशगैट भी चलाया गया था- अपोलोजाइज टू लॉर्ड अयप्पा. मतलब औरतें और केरल की कम्यूनिस्ट सरकार भगवान से माफी मांगे जो एक अनर्थ की तरफ बढ़ रहे हैं. तब कई लड़कियों ने इस हैशगैट के साथ कहा था कि हमारा वेजाइना इतना ताकतवर है, हमें अंदाजा ही नहीं था.
कल्पना कई तरह की गई हैं. कुछेक तो बहुत मजेदार भी रहीं. दो साल पहले सबरीमाला मंदिर के कामकाज की देखरेख करने वाले बोर्ड के चीफ ने कहा था कि अगर औरतों की पवित्रता को स्कैन करने वाली मशीन बन जाती है तो हम औरतों से बैन हटा देंगे. मतलब देख लेंगे कि मंदिर जाने वाली औरतों के पीरियड्स तो नहीं हो रहे. उफ्फ.. ऐसी साई-फाई फैंटेसी कैसे रची जा सकती है!! तब चीफ ने एक और चेतावनी दी थी- ‘औरतों को एंट्री देने से उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं ली जा सकती. हम मंदिर को थाईलैंड की तरह सेक्स टूरिज्म का स्पॉट नहीं बना सकते. अगर कोर्ट मंदिर के दरवाजे खोल भी देता है तो भी आत्मसम्मानी औरतें इस मंदिर में आने की हिमाकत करेंगी.‘
बेशक, औरतों की पाबंदी के लिए यही तर्क दिया गया था. ऐसा तर्क देश में हर कहीं दिया जाता है. ताकतवर जगहों पर बैठे मर्द इसी तर्क के जरिए औरतों को धकियाते रहते हैं. औरतों की रक्षा राज्य की अपनी मशीनरी नहीं कर सकती- पुलिस फोर्स नहीं कर सकती. इसलिए औरतें घर में बैठी रहें. पर घर में बैठे मर्द से उनकी रक्षा कौन करेगा- यह कोई नहीं बताता. खैर, आत्मसम्मानी औरतें मंदिर में दाखिल होने को तैयार बैठी हैं. वे भी, जो भगवान को नहीं मानतीं. सिर्फ इसीलिए क्योंकि बैन किसी भी हाल में सही नहीं कहा जा सकता.
वैसे औरतों की आजादी को सिर्फ मंदिरों में प्रवेश तक सीमित नहीं समझा जा सकता. 1933 में बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने कहा था कि दलित वर्गो का अंतिम लक्ष्य मंदिर में प्रवेश करना नहीं है. महात्मा गांधी ने उनसे मंदिर में प्रवेश करने से संबंधित विधेयकों को समर्थन देने को कहा था. अंबेडकर ने तब यह भी कहा था कि दलित वर्ग ऐसा धर्म चाहता है जो उन्हें सामाजिक स्तर पर समान समझे. अगर किसी धर्म को उनका धर्म बनाना है तो उसे सामाजिक समानता का धर्म बनना होगा. औरतों पर भी यही बात लागू होती है. उन्हें ऐसे धर्म की दरकार है जो उन्हें मर्दों के समान समझे. सुप्रीम कोर्ट का फैसला न्याय का फैसला है. लेकिन सबरीमाला में प्रवेश की मंजूरी के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि इसे महिला अधिकारों के अभियान के तौर पर आगे बढ़ाया जाए. सभी धर्मों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की जड़ें हिल जाएं. और इसका मतलब यह कतई नहीं कि औरतें धर्म की उस चौहद्दी में धकेल दी जाएं जो जाति व्यवस्था और औरतों के उत्पीड़न से मजबूत होती रही है. सुप्रीम कोर्ट के न्याय का मूर्त रूप तभी दिखाई देगा.
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