देश में दो धाराएं साथ-साथ बह रही हैं. एक तरफ औरतें अपने सेक्शुअल एब्यूजर्स के खिलाफ गोलबंद हो रही हैं, तो दूसरी तरफ सबरीमाला मंदिर में औरतों के प्रवेश के खिलाफ औरतें ही विरोध जता रही हैं. हमें समझ नहीं आ रहा कि औरतों के सहेलीपने की तारीफ करें या इस मिथ पर छाती कूटें कि औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं. कहीं कंधा मिला रही हैं, कहीं धकेलकर अपनी साथिनों को दूर फेंक रही हैं. औरत का कौन सा रूप हम स्वीकार करें. कोई कहेगा कि औरतों को समझना मुश्किल है. बिल्कुल. क्यों उसकी समझ पर आदमियों ने मोटा पर्दा पहले से डाला हुआ है. वे जैसा नचाते हैं, औरतें नाचती हैं- फिर उसी नाच को अपनी आदत बना डालती हैं. इस आदत के बहकावे में इतनी धारदार हो जाती हैं, कि औरत का ही गला काट बैठती हैं.


औरत ही औरत की असली दुश्मन है- इस मिथ का इतिहास पुराना है. कुछ नहीं तो डेढ़ दो सौ साल पुराना. ऑस्ट्रेलिया के एक मशहूर मीडिया आउटलेट ‘द कनवर्सेशन’ के एक आर्टिकल में स्कॉलर इलाना पाइपर ने इस इतिहास की परतें खोली हैं. दशकों से औरतों के लिए कहा जाता है कि वे किसी दूसरी औरत की सच्ची सहेली नहीं बन सकतीं. 1851 में प्रख्यात जर्मन फिलॉसफर अर्थर शोपेनहावर ने कहा था कि आदमियों के बीच मतभेद होते हैं, औरतों के बीच दुश्मनी. अमेरिकी राइटर विलियम एल्गर ने तो 1868 में यहां तक कह दिया था कि औरतों की आपसी दोस्ती उन्हें क्रिमिनल तक बना देती हैं. उन्नीसवी शताब्दी के इटैलियन क्रिमिनल एंथ्रोपोलॉजिस्ट सीजर लोम्ब्रोसो इससे भी आगे बढ़ गए थे. उन्होंने कहा था कि नफरत के चलते औरतें, औरतों पर हमले करती हैं. मार-काट मचा देती हैं. उन्होंने 1893 में क्रिमिनल औरतों और वेश्याओं पर पूरी स्टडी ही लिख डाली थी. बेशक, ये सभी आदमी थे और औरतों की सामाजिक स्थिति पर अपनी तरह के अध्ययन कर रहे थे.


इसका नुकसान भी हुआ. हालांकि सभी बड़े-बड़े चिंतकों की थ्योरीज को प्रूव नहीं किया जा सका- लेकिन उनकी थ्योरीज़ का असर जरूर हुआ. इसी सोच के चलते उन्नीसवीं शताब्दी में माना गया कि औरतें अपनी तकलीफ के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं. वेश्यावृत्ति के लिए कैपिटलिज्म को दोषी नहीं ठहराया गया, बल्कि इसे देह व्यापार में पहले से फंसी औरतों के प्रतिशोध का परिणाम बताया गया. महिलाओं के लिए वोटिंग के अधिकार की लंबी लड़ाई लड़ने वाली इंग्लैंड की प्रीचर एग्नस मॉदे रॉयदेन ने कहा था कि वेश्याओं को ऐसी ‘दुमकटी लोमड़ी माना जाता था जो दूसरी लोमड़ियों की भी दुम काट देना चाहती हैं.‘ इससे वेश्याओं का पुनर्वास भी मुश्किल होता गया. यह सोच बाद में भी कायम रही. ऐसे मानने वाले अब भी हैं कि महिला बॉस बहुत खतरनाक होती हैं. 1973 में इस पर एक अलग ही विचार निकलकर आया-क्वीन बी सिंड्रोम. मतलब औरतें जब टॉप पोजीशन पर जाती हैं तो खास तौर से औरतों के लिए बहुत सख्त हो जाती हैं. जैसे रानी मधुमक्खी, बाकी की मधुमक्खियों को काम पर लगाए रहती हैं, और खुद मजे लूटती हैं.


यह बात और है कि ऐसा मर्द के लिए भी कहा जा सकता है, लेकिन हम कहते नहीं. मर्द बॉस भी मर्द कर्मचारियों को लताड़ते रहते हैं- अपमानित करते हैं- पर हम कभी नहीं कहते कि मर्द ही मर्द का असली दुश्मन है. जितनी आसानी से हम औरतों के बीच की दुश्मनी के सबूत इकट्ठा करते हैं, उतनी आसानी से मर्दों के लिए भी कर सकते हैं. ज्यादातर हिंसक अपराध एक मर्द दूसरे मर्द के साथ करता है. चलिए- लगे हाथ इस पर भी कुछ डेटा देख लें. युनाइटेड नेशंस ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम (यूएनओडीसी) के हिसाब से दुनिया भर में हत्या का शिकार होने वाले लोगों में 78.7% मर्द हैं. इस डेटा में 193 देशों को शामिल किया गया था. इसी तरह यूएनओडीसी की 2013 की एक दूसरी ग्लोबल स्टडी कहती है कि दुनिया भर में हत्या करने वाले अपराधियों में 93% मर्द होते हैं. मतलब आदमी ही आदमी की जान ले रहा है, पर हम फिर भी आदमियों की आपसी दुश्मनी के किस्से नहीं गढ़ते. हां, औरतों के लिए बहुत आसानी से ऐसे मिथ गढ़ लेते हैं.


यह कह दिया जाता है कि सास बहू से बदले निकालती है. उसके साथ बुरा बर्ताव करती है- ननद टिक्का माचिस मान ली जाती है. आग लगाना ही उसका काम है. जेठानी, आने वाली देवरानी पर सारे पैंतरे आजमाती है. इंडियन टेलीविजन के सोप ओपेरा को सास-बहू सीरियल ही कह दिया जाता है- सारी वैम्प्स टेढ़ी बिंदी लगाए- भारी-भरकम इमिटेशन ज्वैलरी पहने, सारे दिन सिर्फ षडयंत्र रचने का काम करती हैं. आदमी बेचारे किनारे खड़े, एकाध डायलॉग बोलने के लिए तरसते दिखाई देते हैं. पर यह सिर्फ परदे का झूठा सच है.


असल सच यह है कि जब तनुश्री दत्ता ने अल्मारी से कंकाल निकालकर बाहर फेंका तो सभी अपने-अपने तहखाने खोलने लगीं. यह बहनापा नहीं तो क्या है... डायरेक्टर-राइटर विकास बहल पर कितनी ही औरतें बोल पड़ीं. कंगना रनौत ने खुद भी इस बात को पुख्ता किया. सोनम कपूर ने कहा- मैं लड़की की बात पर भरोसा करती हूं. पर सारे बड़े मर्द सुपरस्टार्स कयामत का इंतजार करते, मुंह पर ताले लगाए बैठे हैं. पत्रकार संध्या मेनन के सोशल मीडिया थ्रेड पर कितनी ही लड़कियां अपनी आपबीती सुना रही हैं. फिल्म, मीडिया और अब आर्ट, कल्चर से जुड़े लोगों का सच सामने आ रहा है. एक्टर आलोक नाथ, पत्रकार प्रशांत झा, लेखक चेतन भगत और किरण नागरकर, कॉमेडियन उत्सव चक्रबर्ती और गुरसिमरन खम्बा और भोपाल गैस ट्रैजेडी की सबसे दर्दनाक फोटो लेने वाले फोटोग्राफर पाब्लो बर्थोलोमेव भी एब्यूजर्स की लिस्ट में शामिल हैं. लड़कियां एक दूसरे के साथ आकर खड़ी हो रही हैं- एक दूसरे को हिम्मत दे रही हैं.


बाकी सबरीमाला में औरतों को औरतों के खिलाफ खड़ा करने वाली वही ट्रेडीशनल विचारधारा है जिसकी जड़ें औरतों में आदमियों ने ही रोपी हैं. इसी सोच ने गुलाम औरतों को आजाद औरतों के खिलाफ खड़ा किया है. उनके दिमाग में मुक्त औरतों के खिलाफ जहर भरा है. और इस तरह उन्हें बारूद में तब्दील कर दिया है. दरअसल, मर्द जात को ही चिंता खाए जा रही है कि औरत, औरत की दुश्मन है. पर वह इस बात से परेशान नहीं कि वह खुद औरतों के साथ होने वाली हिंसा का सबसे बड़ा दोषी है. अमेरिका के एक मशहूर पत्रकार और कल्चरल क्रिटिक थे एच.एल.मेकेन. उन्होंने एक बार कहा था, मर्द के रूप में औरतों से नफरत करना, इस बात से ज्यादा खतरनाक है कि औरतें, एक दूसरे से नफरत करें. बेशक, अगर हम यह मानकर चलेंगे कि औरतें ही औरतों की दुश्मन हैं तो हम आदमियों को इस बात की इजाजत देंगे कि वे औरतों से नफरत करें. हम इसकी इजाजत उन्हें कतई नहीं दे सकते.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)