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बायकॉट बॉलीवुड मुहिम पर जानें क्या कहा फ़िल्म स्टार पवन मल्होत्रा ने

चाहे बायकॉट की वजह से या फिर लोगों को फ़िल्में पसंद नहीं आई हो, दोनों ही हालातों में आखिरकार फ़िल्म इंडस्ट्री को ही पैसे का नुकसान होता है. दर्शकों को तो हम नहीं कह सकते हैं कि आप जबरदस्ती आकर फ़िल्म देखो. ये दर्शकों की इच्छा है कि वे फ़िल्म देखें या नहीं देखें. इस मुद्दे पर कोई भी स्टार कुछ नहीं कर सकता.

लोकतंत्र में हर कोई बोलने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन मार-पीट और तोड़-फोड़ नहीं होनी चाहिए. जो लोग बहिष्कार की बातें कह रहे हैं, उनकी अपनी वजहें हो सकती हैं. सबको अपनी बात कहने का हक़ है. किसी के कहने से कोई तय थोड़े करेगा. जब तक कोई हिंसा नहीं होती है, हम किसी को कुछ कह नहीं सकते.

सबको अपनी बात कहने का हक़ है

बहुत सारी फिल्मों में से कुछ फ़िल्में मेरे हिसाब से ऐसी थी, जो ठीक बनी भी नहीं थी. वैसी फ़िल्मों के बिजनेस का बायकॉट मुहिम से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं है. सबका अपना-अपना हक़ और विचार है, उससे कुछ तय नहीं होता है. मैंने सुना कि किसी एक्टर ने तो ये भी बोला कि हमें बायकॉट करो, तब हंसी भी आई कि कोई एक्टर ऐसा क्यों बोल रहा है. एक्टर ऐसा क्यों बोल रहा है, जबकि उसे अच्छे से पता है कि फ़िल्म में प्रोड्यूसर के पैसे लगे होते हैं.

फ़िल्म को हिट कराने के लिए जान-बूझकर विवाद पैदा किया जाता है, इसको लेकर मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है. हम उस सर्कल में हैं नहीं. हमने जिस तरह की फ़िल्में की हैं, उसमें तो हम लोग सिर्फ़ सिनेमा की पब्लिसिटी करते हैं. हीरा-हीरोइन का अफेयर, जिसे बाद में पीआर इवेंट बताकर खारिज कर दिया जाता है, इन सब से हमलोगों का वास्ता नहीं है. हम फ़िल्म इंडस्ट्री में वैसे वाले अंदर में नहीं हैं, ये कोई और ही बता सकता है कि विवाद फ़िल्म को हिट कराने के लिए पैदा किए जाते हैं या नहीं. मेरे दिमाग में इस तरह की बात आती भी नहीं है.

किसी भी हालत में हिंसा नहीं होनी चाहिए

फ़िल्म मार्केटिंग के तरीकों में बदलाव नहीं हुआ है. अभी भी फ़िल्मों की मार्केटिंग वैसे ही हो रही है, जैसे पहले होती थी. 20-25 साल पहले जब सोशल मीडिया का इतना प्रसार और हाइप नहीं था, उस वक्त भी फ़िल्मों का विरोध होता था, उस वक्त तो गाहे-बगाहे तोड़-फोड़ की भी घटनाएं होती थी. जब तक कोई मार-धाड़ नहीं कर रहा है, तब तक किसी को सिर्फ बहिष्कार करने की बात कहने पर कुछ नहीं कहा या किया जा सकता है. कोई किसी को बोलता है कि ये फ़िल्म मत देखो, तो जिसको उसकी बात सुननी होगी, वो सुनेगा और जिसको नहीं सुननी होगी, वो जाकर फ़िल्म को देखेगा. मुझे याद नहीं है कि किसी ने मुझे फ़िल्म का बहिष्कार करने की बात कही हो. मेरा मन होता है तो हम फ़िल्म देखते हैं और मन नहीं होता है तो नहीं देखते हैं. मुझे नहीं लगता है कि बायकॉट की अपील से किसी अच्छी फ़िल्म को कोई नुकसान होता है.

ओटीटी से फ़िल्मों पर असर नहीं

कुछ लोग ये भी बोलते हैं कि ओटीटी के आने से फ़िल्मों पर असर पड़ रहा है, तो मैं ये कहना चाहूंगा कि जब टीवी आया था, 80 के दशक में टीवी सीरियल्स आए थे, तब भी बहुत सारी फ़िल्में नहीं चली थी. उस वक्त भी कुछ लोगों ने कहा था कि टीवी सीरियल्स शुरू हो गए हैं, इसलिए फ़िल्में नहीं चल पा रही हैं. जबकि ये वजह नहीं थी. वे फ़िल्में वैसे भी नहीं चलनी थी. वो बनी ही ऐसी थी कि लोगों को पसंद ही नहीं आनी थी. भीड़ के साथ थियेटर में फ़िल्म देखने का अनुभव ही अलग है. मल्टीप्लेक्स बनने के बाद तो एक ही थियेटर में पांच-छह स्क्रीन होने के बावजूद अच्छी फ़िल्म होने पर सारे शोज़ फुल जाते हैं.  

हर प्रोड्यूसर और कलाकार ऑडियंस को बताने के लिए अपनी फ़िल्मों का पब्लिसिटी करना चाहता है. इसके लिए प्रेस से मिलते है, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर अपना पोस्टर डाल देते हैं. मुझे तो सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना भी ज्यादा नहीं आता है. फ़िल्म का रीव्यू करने वाले फेसबुक और बाकी सोशल मीडिया पर अपना रीव्यू डालते हैं. उससे कुछ तो फ़र्क पड़ता ही है. फ़िल्मों के रीव्यूज़ हमेशा से होते रहे हैं. पहले अखबार-मैगजीन और टीवी के जरिए होते थे. सोशल मीडिया से लोगों तक पहुंच बढ़ गई है, इसलिए वहां जब 10 लोगों को बोलेंगे कि फ़िल्म अच्छी नहीं है, तो कुछ लोगों पर तो असर पड़ता ही है. हालांकि कुछ फ़िल्में ऐसी भी रही हैं, जिन्हें अच्छे रीव्यू नहीं मिले, उसके बावजूद वे फ़िल्में बड़ी हिट साबित हुईं. 

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार हैं.

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