ब्रिक्स समूह निवेश के अवसरों को पहचानने और सदस्य देशों के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ाने के मकसद से अस्तित्व में आया था. इस समूह के अस्तित्व में आए हुए दो दशक से ज्यादा का वक्त हो गया है. साथ ही इस समूह के सालाना शिखर सम्मेलन की परंपरा को शुरू हुए भी 15 साल हो गया है.


समिट में हिस्सा लेने जोहान्सबर्ग जाएंगे पीएम मोदी


जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है..BRICS में ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका सदस्य हैं. इसका 15वां समिट 22 से 24 अगस्त के बीच दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में होना है. इसमें शामिल होने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जाएंगे.


इस बार ब्रिक्स समिट दो वजहों से है ख़ास


इस बार ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन दो वजहों से बेहद ख़ास है. पहली वजह तो ये हैं कि कोरोना काल के बाद पहली बार ब्रिक्स का सम्मेलन सीधे हो रहा है, यानी वर्चुअल तरीके से नहीं हो रहा है. इस बार समिट में रूस को छोड़ दें तो बाकी सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष या सरकारी प्रमुख साक्षात जोहान्सबर्ग में मौजूद रहेंगे. रूस के राष्ट्रपति पुतिन पहले ही जोहान्सबर्ग आने से मना कर चुके हैं. हालांकि वे इस बार भी वर्चुअल तरीके से समिट में शामिल होंगे. आखिरी बार नवंबर 2019 में ब्राजील में हुए समिट में सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुख साक्षात मौजूद थे. उसके बाद 2020, 2021 और 2022 यानी लगातार तीन साल ब्रिक्स का सालाना समिट वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए हुआ था.


ब्रिक्स के विस्तार पर सबकी नज़र


दूसरा जो प्रमुख कारण है, वो ब्रिक्स के विस्तार से जुड़ा हुआ है. इस बार जोहान्सबर्ग में हो रहे समिट में इस मुद्दे के छाए रहने की संभावना है. आज के संदर्भ में बात करें तो वैश्विक व्यवस्था में कूटनीतिक तौर से ब्रिक्स बेहद महत्वपूर्ण समूह बन गया है. इसको देखते हुए दुनिया के कई देश ब्रिक्स का सदस्य बनने की इच्छा रखते हैं.


ऐसे तो करीब 30 देश हैं, जिनकी बिक्स की सदस्यता को लेकर चाहत है, 6 ऐसे देश हैं, जो इस समूह का हिस्सा बनने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं. इनमें  ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कजाकिस्तान, इंडोनेशिया और अर्जेंटीना शामिल हैं. ये सारे मुल्क ब्रिक्स की सदस्यता हासिल करने को लेकर गहरी रुचि दिखा रहे हैं.


विस्तार भारत के लिए संवेदनशील मुद्दा


ब्रिक्स का विस्तार एक ऐसा मुद्दा है, जिसको लेकर भारत काफी सतर्क और संवेदनशील भी है. भारत बहुध्रुवीय दुनिया के पक्ष में है और भारत की इस विदेश नीति के लिहाज से ये बेहद महत्वपूर्ण है कि ब्रिक्स के विस्तार में इस नजरिए का ख्याल रखा जाए. भारत ने अपनी चिंताओं से सदस्य देशों को अपने तरीके से पहले भी अवगत कराया है.



ब्रिक्स के विस्तार के विरोध में नहीं है भारत


हालांकि भारत की चिंताओं को इस रूप में प्रसारित किया गया कि भारत ब्रिक्स के विस्तार का विरोध करने वाला देश है. जबकि इसमें सच्चाई नहीं है. भारतीय प्रधानमंक्षी नरेंद्र मोदी के दक्षिण अफ्रीका जाने की घोषणा होने के साथ ही भारत की ओर से इस तरह की खबरों का भी खंडन किया गया है. भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि ब्रिक्स के विस्तार का विरोध से जुड़ी खबरें पूरी तरह से बेबुनियाद और मनगंढत है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने 3 अगस्त को ही ये स्पष्ट किया है कि भारत को विस्तार के खिलाफ आपत्ति है, इस तरह की अटकलें निराधार है. इसमें कोई सच्चाई नहीं है.


दरअसल ब्रिक्स में विस्तार के लिए कोई तय मानक नहीं है. ये रायशुमारी के बाद सर्वसम्मति के आधार पर होता है. इसी कसौटी के आधार पर दक्षिण अफ्रीका को दिसंबर 2010 में इस समूह का हिस्सा बनाया गया था.चीन ने दक्षिण अफ्रीका को इस समूह का हिस्सा बनाने के लिए औपचारिक तौर से निमंत्रण दिया था. 


BRIC से BRICS तक का सफर


शुरुआत में  इस समूह में 4 ही देश थे.. ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन.  तब समूह का नाम BRIC था.  उस वक्त के सबसे ताकतवर निवेश बैंक  Goldman Sachs में काम करने वाले अर्थशास्त्री जिम ओ'नील ने 2001 में ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन इन 4 देशों को ब्रिक समूह के तौर पर वर्गीकृत किया था.  उनका मानना था कि तेजी से उभरती ये 4 अर्थव्यवस्थाएं 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर सामूहिक रूप से हावी होंगी.


रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में 2006 में G8 समूह के सालाना सम्मेलन के साथ ही इन 4 देशों के नेताओं के बीच मुलाकात हुई थी. सितंबर 2006 में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना बैठक के दौरान इन 4 देशों के विदेश मंत्रियों की औपचारिक बैठक में समूह को BRIC नाम दिया गया. इस समूह का पहला शिखर सम्मेलन जून 2009 में रूस के येकाटेरिंगबर्ग में  हुआ. तब से इसका सालाना समिट होने लगा. 



विस्तार पर चर्चा 2020 के बाद से तेज़


ब्रिक्स समूह को विस्तार देने पर चर्चा 2020 के बाद से तेज हुई है. विस्तार को लेकर रूस और चीन के बीच काफी उत्साह है. हालांकि भारत के साथ ही ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के लिए इस मसले पर रूस और चीन के बीच की जुगलबंदी ही सबसे बड़ी चिंता है. ब्रिक्स के विस्तार के मसले पर भारत का जो रुख है, उसे विदेश मंत्री एस जयशंकर ने जून की शुरुआत में समूह के विदेश मंत्रियों की दक्षिण अफ्रीका में हुई बैठक में व्यापक तरीके से स्पष्ट कर दिया था.  उस वक्त विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि विस्तार में सकारात्मक इरादा और खुले दिमाग से विचार सबसे जरूरी पहलू है. हर सदस्य ऐसा करके ही विस्तार पर आगे बढ़ सकते हैं.


विदेश मंत्री भारत का रख चुके हैं पक्ष


भारत विस्तार के विरोध में नहीं है. भारत सिर्फ़ ये चाहता है कि विस्तार से जुड़े हर पहलू पर सदस्य देशों के बीच विचारों का आदान-प्रदान हो और सहमति बनने से पहले सबकी चिंताओं और कूटनीतिक पहलुओं को महत्व दिया जाए. ब्रिक्स के सदस्य विस्तार के मानकों, मानदंडों और प्रक्रियाओं के साथ ही मार्गदर्शक सिद्धांतों को निर्धारित करने के लिए आपस में अलग-अलग तरीकों से बात कर रहे हैं. विस्तार से कई पहलू जुड़े हैं. भारत का फोकस इस पर है. भारत का कहना है कि जो मौजूदा सदस्य है, उनके बीच के आपसी सहयोग को भी विस्तार के बारे में कोई भी सिद्धांत बनाने में सोचना होगा.


ब्रिक्स के विस्तार में हर पहलू पर हो गौर


एक और महत्वपूर्ण मुद्दा है. इस समूह के देशों का गैर ब्रिक्स देशों को लेकर कैसा रवैया रहा है या जुड़ाव रहा है. ब्रिक्स के संभावित विस्तार के प्रारूप में किसी देश के निजी हितों को प्राथमिकता न मिले, भारत का मुख्य ज़ोर इस पर है. भारत बस यहीं चाहता है कि विस्तार में किसी भी देश का व्यक्तिगत एजेंडा स्वीकार नहीं किया जाएगा और भारत की इस मंशा से विदेश मंत्री एस जयशंकर पहले ही सदस्य देशों को अवगत करा चुके हैं. उस वक्त भारत के पक्ष का समर्थन करते हुए मेजबान दक्षिण अफ्रीका ने भी स्पष्ट किया था कि विस्तार को लेकर जब तक कोई उपयोगी दस्तावेज या प्रक्रिया पर सर्वसम्मति नहीं बन जाती है, तब तक इस दिशा में आगे नहीं बढ़ जाएगा. जून में विदेश मंत्रियों की बैठक में दक्षिण अफ्रीका ने कहा भी था कि सालाना शिखर सम्मेलन तक विस्तार से जुड़ी कोई प्रक्रिया या नीति तैयार हो जाती है, तो फिर उस पर विचार किया जाएगा.


इस मसले पर ब्राजील भी भारत की बातों का पुरजोर समर्थन करते आया है. ब्राजील के विदेश मंत्री मौरो विएरा कह चुके हैं कि ब्रिक्स ब्रांड बन चुका है और ये सदस्य देशों की एक बड़ी संपत्ति है. इस वजह से ब्राजील भी चाहता है कि संभावित विस्तार में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए. विस्तार में किसी ख़ास देश के सिर्फ़ इस वजह से शामिल नहीं किया जाए कि उस देश के साथ रूस या चीन के संबंध कितने गहरे हैं. भारत के साथ ही दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के लिए ये बड़ा मुद्दा है.


ब्रिक्स के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है


ब्रिक्स के प्रति कई देशों का आकर्षण बढ़ा है, इसमें कोई दो राय नहीं है.  चीन और रूस का ब्रिक्स के विस्तार पर काफी ज़ोर है.  'ब्रिक्स प्लस' की अवधारणा बहुत तेजी से विकसित हो रही है, चीन इस पहलू पर ज़ोर दे रहा है. रूस का भी कहना है कि ये समूह बहुध्रुवीयता का प्रतीक बन चुका है और इसका प्रमाण ये हैं कि  ज्यादा से ज्यादा देशों का आकर्षण ब्रिक्स के प्रति बढ़ रहा है. 


ब्रिक्स समूह बहुध्रुवीयता का प्रतीक हो


भारत का भी ये मानना है कि ब्रिक्स अब विकल्प नहीं रहा. ये समूह अब वैश्विक व्यवस्था में ख़ास महत्व रखता है. भारत भी यही मानता आया है कि ब्रिक्स समूह बहुध्रुवीयता का प्रतीक है. इसके साथ ही भारत का ये भी कहना है कि  ब्रिक्स अब अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों से निपटने के कई तरीकों की अभिव्यक्ति भी करता है और वैश्विक एजेंडा पर नेतृत्व करने की भी क्षमता है.


फिलहाल सिर्फ 5 देशों के सदस्य होने के बावजूद ब्रिक्स देशों में दुनिया की 40 फीसदी से ज्यादा आबादी रहती है. लैंड एरिया कवरेज के हिसाब से इस समूह में दुनिया का करीब 27 फीसदी लैंड सरफेस आ जाता है. वैश्विक अर्थव्यवस्था में इन देशों का एक बड़ा हिस्सा है. ब्रिक्स देशों का हिस्सा वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में  करीब 30% है.  ब्रिक्स की ताकत को बताने के लिए ये आंकड़े काफी हैं. 


करीब 30 देशों की सदस्यता में रुचि


ब्रिक्स की बढ़ती अहमियत को इससे समझा जा सकता है कि करीब 30 देश सदस्यता हासिल करने में रुचि दिखा रहे हैं. ईरान, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कजाकिस्तान, इंडोनेशिया और अर्जेंटीना के साथ ही  मिस्र,  बांग्लादेश, क्यूबा, कांगो, कोमोरोस, गैबन और गिनी बिसाऊ भी ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर ख़ास इच्छुक नज़र आ रहे हैं. यहीं वजह है कि केपटाउन में जून की शुरुआत में  हुई ब्रिक्स के विदेश मंत्रियों की बैठक में इन देशों ने या तो अपने प्रतिनिधि भेजे थे या फिर वर्चुअल तरीके से शामिल हुए थे. इनके अलावा भी 15 से ज्यादा देश और हैं जो समूह को लेकर रुचि दिखा रहे हैं. इनमें अल्जीरिया, बहरीन, बेलारूस, मैक्सिको, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, निकारगुआ, नाइजीरिया, ज़िम्बाब्वे, सेनेगल, सूडान, सीरिया, थाईलैंड, ट्यूनीशिया, तुर्किये, वेनेजुएला और उरुग्वे शामिल हैं.


ब्रिक्स समूह का भविष्य बेहद उज्ज्वल


जिस तरह से ब्रिक्स को लेकर बाकी मुल्कों में दिलचस्पी बढ़ते जा रही है, ये कहा जा सकता है कि ब्रिक्स समूह का भविष्य बेहद उज्ज्वल है. एक दौर ऐसा भी आया था जब ब्रिक्स की प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठने लगे थे. पिछले दो साल में जिस तरह से कई देशों ने ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर इच्छा जाहिर की है, कहा जा सकता है कि भविष्य में ब्रिक्स दुनिया का सबसे ताकतवर मंच बन सकता है.


फिलहाल ब्रिक्स में शामिल सदस्य वो देश हैं जिनमें वैश्विक अर्थव्यवस्था में हलचल होने पर भी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभालने और उसमें विकास की गति बनाए रखने की क्षमता और संभावनाएं भी है. साथ ही वैश्विक मांग और आपूर्ति की व्यवस्था को भी संभालने की ताकत है.  यही वजह है कि तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अगले 3 दशक में ब्रिक्स के मौजूदा सदस्य देश दुनिया में कच्चे माल, उद्योग, विनिर्माण और सेवाओं के सबसे प्रमुख आपूर्तिकर्ता होंगे. भारत और चीन की स्थिति उद्योग, विनिर्माण और सेवाओं के आपूर्ति के मामले में काफी मजबूत है और भविष्य में इसमें और मजबूती आएगी. वहीं कच्चे माल को लेकर रूस और ब्राजील का भविष्य उज्ज्वल है.


विस्तार में रूस-चीन के इरादे पर नज़र


विस्तार के प्रारूप पर पिछले कई महीनों से ब्रिक्स सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले शेरपाओं के बीच रायशुमारी चल रही है. चीन का मुख्य ज़ोर ईरान और सऊदी अरब को ब्रिक्स का जल्द से जल्द सदस्य बनाने पर है. इसमें गौर करने वाली बात ये है कि ईरान और सऊदी अरब के साथ चीन का जुड़ाव हाल फिलहाल में काफी बेहतर और मजबूत हुआ है. अरब देशों में ईरान और सऊदी अरब दो प्रतिद्वंद्वी माने जाते थे. दोनों देशों ने 7 साल पहले 2016 में राजनयिक संबंध तोड़ लिए थे. ईरान और सऊदी अरब के बीच दोस्ती कराने के लिए चीन पिछले कुछ महीनों से लगातार कूटनीतिक प्रयास कर रहा था. उसकी वजह से इस साल मार्च में चीन में दोनों देशों की अधिकारियों की बातचीत होती है और उसके बाद ईरान और सऊदी अरब  राजनयिक संबंध फिर से शुरू करने की घोषणा करते हैं. ये पूरी दुनिया के लिए चौकाने वाली बात थी. 


गुटबाजी का केंद्र नहीं बने ब्रिक्स समूह


रूस और चीन के इरादे इस समूह के विस्तार में वो प्रमुख मसला है जिसको लेकर भारत को चिंता है. यूक्रेन युद्ध के बाद रूस और चीन के बीच नजदीकियां बढ़ी हैं. इस दरम्यान चीन का भारत के साथ संबंध काफी नीचे गिरा है. वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में एक गुट अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी देशों का नजर आ रहा है, तो दूसरा गुट रूस-चीन की अगुवाई में कदमताल कर रहा है. पिछले कुछ सालों से साफ दिख रहा है कि रूस और चीन, पश्चिमी देशों के दबदबे को चुनौती देने की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं. यूक्रेन युद्ध के बात इसकी गति और तेज हुई है. दोनों ही देश अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने में जुटे हैं. इसके लिए गोलबंदी करने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं. ब्रिक्स के विस्तार में ये पहलू काफी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि रूस के साथ मिलकर चीन चाहेगा कि विस्तार इस तरह से हो कि भविष्य में ब्रिक्स का इस्तेमाल अमेरिकी गुट ( जिनमें कई पश्मिची देश शामिल हैं)  को कमतर दिखाने के लिए हो. भारत बस इसी पहलू पर नजर रख रहा है. रूस और चीन अपने कूटनीतिक हितों को साधने के हिसाब से ब्रिक्स के विस्तार को वैसा रूप न दे, ये इंडो पैसिफिक रीजन में भारतीय हितों को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है.


भारत का ज़ोर संतुलन बनाने पर


भारत की नीति फिलहाल अमेरिका और रूस के बीच संतुलन बनाकर चलने की है. भारत के हितों के हिसाब से भी कूटनीतिक तौर से ये उचित कदम है.  भारत दो ध्रुवीय दुनिया के पक्ष में कभी नहीं रहा है अब तो भारत की स्थिति भी वैश्विक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि वो अपना भी एक ध्रुव बना सकता है. हालांकि भारतीय विदेश नीति में इसके लिए कोई जगह नहीं है. भारत वैश्विक राजनीति में सबको साथ लेकर चलने में भरोसा करता है. इसी का प्रमाण है कि बतौर जी 20 अध्यक्ष भारत ने  'वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर' थीम को अपनाया भी है. इसका मतलब ही है कि भारत की विदेश नीति किसी गुट के जरिए ध्रुवीकरण के पक्ष में कभी नहीं रहा है. भारत की नीति सभी गुटों के साथ तालमेल बनाकर चलना है. साथ ही ये भी सुनिश्चित करना चाहता है कि वो किसी गुट का हिस्सा न बन सके या ऐसा कोई संदेश भी न जाए, जिससे दुनिया को ये लगे कि भारत गोलबंदी में लगा है. बस इसी पक्ष को लेकर ब्रिक्स के विस्तार के मसले पर भी भारत आगे बढ़ना चाह रहा है.


पश्चिमी विरोधी गुट न बन जाए ब्रिक्स


सोवियत संघ के विघटन के बाद पिछले 3 दशक में अमेरिका का विश्व व्यवस्था में दबदबा रहा है. रूस और चीन इसी दबदबे को खत्म करने के लिए एक-दूसरे से हर क्षेत्र में सहयोग बढ़ा रहे हैं. सैद्धांतिक तौर से भले ही दोनों देश बहुध्रुवीय दुनिया की बात करते हैं, लेकिन वास्तव में रूस और चीन का जो आक्रामक और विस्तारवादी रवैया है, उससे साफ जाहिर है कि वो दोनों मिलकर पश्चिमी देशों की  के खिलाफ एक मजबूत विरोधी गुट बनाना चाहते हैं. ब्रिक्स के विस्तार में भी रूस और चीन की नजर इस पर होगी. चीन, रूस के साथ मिलकर उन देशों को जगह देने की कोशिश करेगा, जो उनके लिए ज्यादा फायदेमंद होंगे. ये भारत के लिए सही नहीं होगा.


भारत की यही कोशिश रहेगी कि चीन और रूस मिलकर विस्तार के नाम पर ब्रिक्स को पश्चिमी विरोधी गुट न बना दें. ब्रिक्स में ऐसा न हो कि अमेरिकी विरोधी देशों की संख्या बढ़ जाए. अगर ईरान जल्द ब्रिक्स का सदस्य बन जाता है तो इसकी संभावना बढ़ जाती है. भारत का हित जितना रूस के साथ बेहतर संबंध में है, अब अमेरिका भी भारतीय हितों के लिहाज से उतना ही महत्वपूर्ण देश बनते जा रहा है. अमेरिका की भी कोशिश है कि भारत के साथ उसके संबंध और प्रगाढ़ हों.


इंडो पैसिफिक रीजन में पावर ऑफ बैलेंस


ब्रिक्स की महत्ता अपनी जगह है, लेकिन चीन के खतरे को देखते हुए भारत के लिए इंडो पैसिफिक रीजन में पावर ऑफ बैलेंस को बनाए रखना बेहद जरूरी है. इस नजरिए से भारत के लिए क्वाड समूह का भी उतना ही महत्व है. ब्रिक्स के विस्तार में इस संतुलन को साधने पर भी भारत की नज़र है.


विदेश नीति में भारतीय हित सबसे जरूरी


भारत सही मायने में बहुध्रुवीय दुनिया की संकल्पना का समर्थन करता है और अपनी विदेश नीतियों को भी उस हिसाब से स्वतंत्र बनाए रखने के लिहाज से ही कदम उठाते आया है. अब तो और भी मुखर होकर भारत अपनी बातें कह रहा है. जब कुछ महीने पहले रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ये बात कही थी कि यूरोप की समस्याएं विश्व की समस्याएं हैं, लेकिन विश्व की समस्याएं यूरोप की समस्याएं नहीं हैं, उनके इस बयान में स्पष्टता भी थी और दुनिया के लिए संदेश भी था कि भारत विदेश नीति में अपने हितों के हिसाब से ही कोई भी कदम उठाएगा. ये बातें जितना अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए लागू होती है, उतना ही रूस और चीन के लिए भी. ब्रिक्स के विस्तार पर भारत जो भी रुख रख रहा है, वो भारत के इसी नजरिए के हिसाब से है.


डॉलर की बादशाहत को खत्म करने पर फोकस


दक्षिण अफ्रीका में होने वाले सालाना समिट में एक मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण रहेगा. ये मसला अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय लेन-देन में डॉलर की बादशाहत से जुड़ा है. ब्रिक्स समूह इसी बादशाहत को खत्म करना चाहता है. इन देशों का मुख्य ज़ोर अंतरराष्ट्रीय व्यापार में स्थानीय मुद्राओं के प्रचलन पर ज़ोर हो.  ब्रिक्स समूह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की व्यवस्था में सुधार प्रक्रिया को भी जल्द से जल्द पूरा करने पर ज़ोर देता रहा है. ब्रिक्स इस प्रक्रिया को  15 दिसंबर तक पूरा करने के लिए दबाव भी बना रहा है, ताकि आईएमएफ में नया कोटा फॉर्मूला जाए और इसमें अमेरिकी वर्चस्व को कम किया जाए. फिलहाल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में अमेरिका का कोटा सबसे ज्यादा है. यहीं वजह है कि इस वैश्विक संस्था के निर्णयों में अमेरिकी प्रभुत्व रहता है.


डॉलर के प्रभुत्व से कई देश हैं परेशान


ये भी बात सही है कि भारत समेत एशिया के कई देश डॉलर के प्रभुत्व से परेशान है. यूक्रेन से युद्ध के बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस के कच्चे तेल के व्यापार में डॉलर से लेनदेन पर पाबंदी लगा रखी है. इससे भारत को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. भारत भी चाहता है कि स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा मिले और डॉलर पर भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता धीरे-धीरे कम हो.


जो भी देश ब्रिक्स समूह में शामिल होने की मंशा रखते हैं, उनमें से कई देश ऐसे हैं, जो रूस और चीन के करीबी होने के नाते डॉलर की बजाय दूसरी मुद्राओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के हिमायती हैं.  अब बिक्स के संभावित विस्तार के जरिए से रूस और चीन दोनों ही चाहेंगे कि भविष्य में डॉलर की बजाय अंतरराष्ट्रीय व्यापार में रूबल और युआन का महत्व बढ़े. भारत भले ही डॉलर पर निर्भरता कम करना चाहता है, लेकिन उसे इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि ब्रिक्स के विस्तार के बहाने रूस और चीन अपने एजेंडे को न साध लें.


विस्तार से ग्लोबल ऑर्डर में बदलाव


ब्रिक्स की अहमियत तो देखते हुए अब पूरी दुनिया की नजर इस पर टिकी है कि जब 22 से 24 अगस्त के बीच सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुख जोहान्सबर्ग में जुटेंगे तो ब्रिक्स के नए प्रारूप को लेकर क्या घोषणा होगी. इतना तो तय है कि भविष्य में ब्रिक्स के विस्तार से वैश्विक व्यवस्था यानी ग्लोबल ऑर्डर में महत्वपूर्ण बदलाव होने जा रहा है क्योंकि विस्तार होने से समूह का दायरा आर्थिक और भौगौलिक के साथ ही मानव संसंधान के नजरिए से और बढ़ेगा. इसके अलावा वैश्विक कूटनीतिक में ब्रिक्स की भूमिका का भी विस्तार होगा.


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