ब्रिक्स सम्मेलन 2023 के दौरान इसका विस्तार करने का फैसले करते हुए इसमें ईरान, अर्जेंटीना, इथियोपिया, इजिप्ट, ईरान, यूएई और सऊदी अरब को सदस्य बनाने का फैसला किया गया. 1 जनवरी 2024 से ये ब्रिक्स के सदस्य बन जाएंगे. ब्रिक्स का विस्तार का काफी लंबे समय से प्रयास भी चल रहा था. सवाल उठता है कि इन छह देशों को ही क्यों ब्रिक्स में एंट्री दी गई, जबकि कई और देशों ने इसके लिए अर्जी लगाई गई थी? इसके अलावा, इन देशों के शामिल होने से इसमें क्या कुछ बदलाव आएगा?
दरअसल, छह नए देशों का शामिल करना BRICS के ब्रांड के लिहाज से जरूर अच्छी बात है. ब्रिक्स से बहुत सारे देश जुड़ना चाहते हैं. विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने कहा था कि करीब 23 देशों ने ब्रिक्स में सदस्यता के लिए अपनी अर्जी लगाई थी. इसमें से छह देश सदस्य के तौर पर अंदर आए हैं. ब्रिक्स के लिए ये एक बड़ी बात है कि इस विस्तार के लिए भारत और चीन के बीच सहमति बना पाए. लेकिन जो इसके दूरगामी परिणाम होंगे और अगले कौन सदस्य होंगे, किन शर्तों पर दूसरे देशों को अंदर लाया जाएगा, ये बातें अभी भी साफ नहीं है.
कई बातों की स्पष्टता का अभाव
इसके अलावा, ब्रिक्स में अंदरुनी तौर पर काफी मतभेद खासकर भारत और चीन के बीच बने हुए हैं, उनके देखते हुए ब्रिक्स का बड़ा होना, इसके ब्रांड के लिए तो अच्छा है, लेकिन क्या ये ब्रिक्स के भविष्य के लिए अच्छा होगा? ये कहना अभी जल्दबाजी होगी.
इस वक्त अंतरराष्ट्रीय समीकरण तेजी के साथ बदल रहे हैं. काफी देश ये चाहते हैं कि पश्चिमी देशों का जिस तरह का दबदबा है, उसे तोड़ा जाए. इसमें कई ऐसे विकासशील देश हैं, वे खासकर चाहते हैं कि एक ऐसा प्लेटफॉर्म बने, जहां पर उनकी आवाज सुनी जाए. इसलिए उन्होंने दिलचस्पी भी दिखाई है.
ब्रिक्स में जिन छह देशों के पहले ग्रुप की एंट्री हुई है, उसको लेकर तो आसानी से आम सहमति बन होगी और भारत ने भी उस सहमति को बनाने में काफी मदद की होगी. लेकिन ये सवाल भारत काफी अहम हो जाता है कि आने वाले समय में किस तरह से और किन देशों को लाया जाएगा.
इसके साथ ही, कहीं ऐसा न हो कि ब्रिक्स का जो मूलभूत एजेंडा है, वैश्विक और आर्थिक जो आर्डर है, उसमें किसी तरह का परिवर्तन आए और भारत-चीन जैसी जो बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं, उनकी आवाज ज्यादा प्रबल हो, उसको लेकर जो ये ब्रिक्स प्लेटफॉर्म खड़ा किया गया था, वो कहीं एक भू-राजनैतिक प्लेटफॉर्म न बन जाए. कहीं ब्रिक्स के नए स्वरूप में पश्चिम देशों के खिलाफ यानी वेस्ट ओरिएंटेशन न आ जाए, इसके लिए भारत को सतर्क रहना पड़ेगा.
भारत को रहना होगा सतर्क
ब्रिक्स में अभी और देश आएंगे. अभी पहला ग्रुप आया है. इसके बाद जो और देश हैं, वे भी डिमांड करेंगे कि इनको भी अंदर लाया जाए. ऐसे में किन शर्तों पर उन देशों को अंदर लाया जाएगा और कौन से देश अंदर आते हैं, इसके लिए भारत को बहुत सतर्कता की भूमिका निभानी होगी.
इसके अलावा, अगर देखें तो ब्रिक्स सम्मेलन से इतर पीएम मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच मुलाकात हुई. इसके बाद दोनों देशों ने अपने अधिकारियों से कहा कि एलएसी पर सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया में तेजी आनी चाहिए.
लेकिन ये अभी शुरुआत है. लेकिन सैनिकों की वापसी और तनाव कम करने के लिए किस तरह की शुरुआत होती है ये देखने वाली बात है. जहां तक चीन का सवाल है तो ड्रैगन के साथ भारत का अविश्वास इतना ज्यादा है कि उस पर किसी भी तरह का विश्वास करना बड़ा मुश्किल होगा.
ऐसे में ये बात देखने वाली होगी कि भविष्य में किस तरह से दोनों देशों के बीच बातचीत आगे बढ़ेगी. हाल में भारत और चीन के बीच सैन्य कमांडर स्तर की जो बातचीत हुई थी, उसमें तो कुछ भी निकलकर सामने नहीं आया. पीएम मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच जो मुलाकात हुई है, उसमें ये कहा गया है कि हम सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएंगे.
चीन को लेकर वेट एंड वॉच की रणनीति हो
इसलिए, चीन को लेकर भारत की वेट एंड वॉच की रणनीति अपनानी होगी. अगर चीन इसमें ज्यादा रुचि दिखाता है तो ये अच्छी बात होगी. लेकिन, इसका कुछ न कुछ संबंध जी-20 सम्मेलन से भी है, जो अगले महीने भारत में होने जा रहा है. उसमें हिस्सा लेने के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी नई दिल्ली पहुंचेगे. ऐसे में शी जिनपिंग कभी नहीं ये चाहेंगे कि उनका स्वागत भारत में उतनी ही गर्मजोशी से न हो, जितना बाकी राष्ट्राध्यक्षों के साथ हो.
कहीं ये भी चीन के लिए लिए एक चिंता का विषय बना होगा कि भारत के साथ अगर समस्या का समाधान नहीं होता है या इस समस्या को थोड़ा कम नहीं किया जाता है तो भारत के चीन के राष्ट्रपति का रिसेप्शन कैसा होगा? इन सब बातों को भी देखते हुए चीन ने जरूर पहल की होगी. इसके साथ ही, ऐसा लगता है कि पीएम मोदी के साथ मुलाकात के लिए पहल चीन की तरफ से ही की गई होगी, क्योंकि जो भी अभी तक वार्ता चल रही है, उसमें कोई ठोस प्रगति हुई नहीं है.
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