बाहुबली अतीक अहमद की मायावती के साथ अदावत पुरानी थी. ये साल 1995 की घटना है, जब समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव अपनी सरकार बीएसपी के कांशीराम और उनके उत्तराधिकारी मायावती के समर्थन की बदौलत चला रहे थे. ऐसी चर्चा अचानक गरमाने लगी कि सरकार से बीएसपी अपना हाथ खींच सकती है. सियासी तापमान आसमान पर था. समाजवादी पार्टी के कुछ नेताओं को इस बात की भनक लग चुकी थी कि मायावती अपने पार्टी विधायकों के साथ लखनऊ के सरकारी गेस्ट हाउस में बैठक कर सरकार से अलग होने के फैसले को अंतिम रूप दे रहीं थीं. इसके बाद अचानक भीड़ ने कमरे को घेर लिया. उन्हें गालियां दी गई और उनके साथ अभद्रता का सलूक किया गया.


इस घटना ने वर्षों तक समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के संबंधों को ध्वस्त करके रख दिया. गेस्ट हाउस कांड के उन आरोपियों में से एक शख्स था समाजवादी पार्टी का बाहुबली अतीक अहमद. इस घटना के बाद मायावती का बड़ा दुश्मन अतीक बन गया. साल 2002 में अतीक अहमद को जब कोर्ट से जेल लाया जा रहा था, उस वक्त हमले किए गए. अतीक ने इसके लिए मायावती पर जान से मरवाने की कोशिश का आरोप लगाया. इसके बाद 2005 में बीएसपी के इलाहाबाद वेस्ट से पार्टी के विधायक राजूपाल की गोली मारकर हत्या कर दी गई. पुलिस ने बताया कि राजूपाल की हत्या के लिए अतीक और उसके भाई अशरफ ने साजिश रची और उसका मर्डर करवाया.



सपा से दुश्मनी भूलीं, अतीक से नहीं


समाजवादी पार्टी के साथ अपनी दुश्मनी को भूलाने में मायावती को कई साल लग गए. आखिरकार समाजवादी पार्टी और बीएसपी आपसी कड़वाहट को भुलाकर एक दूसरे के साथ आई, लेकिन मायावती ने तब भी अतीक अहमद को माफ नहीं किया. लेकिन, इस साल जनवरी में मायावती ने अपने दरवाजे खोल दिए. उन्होंने अतीक की पत्नी शाइस्ता परवीन का बीएसपी में स्वागत किया और कहा कि प्रयागराज से वे उनकी पार्टी की मेयर उम्मीदवार होंगी.


हालांकि, एक हकीकत ये भी थी कि उस वक्त शाइस्ता परवीन के पास विकल्प काफी सीमित थे. अतीक और अशरफ समेत उसके कई समर्थक जेल में बंद थे. असद को छोड़कर अतीक का बेटा भी जेल/बाल सुधार गृह में बंद था. उसकी संपत्ति ध्वस्त कर दी गई. बैंक एकाउंट्स फ्रीज कर दिए गए और बंदूक का लाइसेंस निरस्त कर दिया गया. ये सब आजम खान, मुख्तार अंसारी जैसे नेताओं पर की गई कार्रवाई कुछ अन्य लोगों की अनदेखी के बीच मुख्यमंत्री की छवि और लोकप्रिय हुई.


क्यों खोला गया शाइस्ता के लिए दरवाजा?


दरअसल, शाइस्ता परवीन के लिए समाजवादी पार्टी में जाने का विकल्प नहीं बचा था, उसकी वजह थी अखिलेश यादव की नापसंद और योगी आदित्यनाथ के आने के बाद प्रदेश में बदली राजनीतिक व्यवस्था. शाइस्ता परवीन ने जनवरी में समाजवादी पार्टी ज्वाइन करने के बाद ये कहा था- "मेरे पति की समाजवादी पार्टी के साथ निकटता ने हमें कभी अनुशासन नहीं सीखने दिया. हम बीएसपी की गाइडलाइंस को फॉलो करेंगे और सीनियर नेताओं की सलाह लेंगे. मेरे पति ने हमेशा दलितों का सम्मान किया और बीएसपी ज्वाइन करना चाहा. लेकिन कुछ नेताओं ने किनारे रखा."  


लेकिन ये सवाल उठता है कि आखिर मायावती ने इस तरह दरियादिली दिखाते हुए क्यों शाइस्ता का बीएसपी में स्वागत किया. इसकी हकीकत पर गौर करें तो वास्तविकता कहीं ज्यादा कठिन है. गठबंधन करना मायावती के लिए पार्टी को जीवित रखने की मजबूरी कहीं ज्यादा थी.


थोड़ा पीछे चलकर अगर मायावती के सियासी इतिहास के देखें तो उन्हें हमेशा राजनीतिक लड़ाई में जीत के लिए दलित प्लस रणनीति की जरूरत रही. साल 2007 में वह चौथी बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन 2007 की जीत काफी अलग थी. इससे पहले जब 1993 में वह पहली दलित सीएम बनी थीं तो उन्होंने समाजवादी पार्टी गठबंधन के साथ चुनाव जीता था. इसके बाद 1997 और 2002 में वे बीजेपी के साथ थीं.


माया की सियासी मजबूरी


हालांकि, 2007 में मायावती ने अकेले दम पर बहुमत के साथ राज्य में बीएसपी का सरकार बनवाई. उन्हें उस वक्त किसी सहयोगी की जरूरत नहीं थी बल्कि उस समय उनके साथ थे ब्राह्मण. इसे मायावती का सोशल इंजीनियरिंग कहा गया, जब समाज को दो समुदाय दलित और ब्राह्मण एक साथ आए. लेकिन, जब समाजवादी पार्टी ने 2012 के विधानसभा चुनाव में शिकस्त दी, हार के बाद भी वे सियासी मैदान से बाहर नहीं हुईं. राज्य में अब तक यही होता रहा कि हर चुनाव में सपा और बसपा एक दूसरे को रिप्लेस करती रही. इसलिए, मायावती को सत्ता में वापसी की उम्मीद थी.


लेकिन 2017 में बड़ा परिवर्तन देखने को मिला. बीजेपी ने बहुमत के साथ चुनाव जीत लिए और योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में राज्य में सरकार बनी. ये बीजेपी बिल्कुल अलग थी. 2014 चुनाव के बाद प्रधानमंत्री मोदी और उनके खास अमित शाह के नेतृत्व, हिन्दुत्व का झंडाबरदार और सुशासन मॉडल के साथ बीजेपी ने एंटी इंकम्बैन्सी फैक्टर को ही अपना हथियार बना लिया.


साल 2022 में मायावती ने फिर से सोशल इंजीनियरिंग को कोशिश की. इसका नतीजा ये हुआ कि पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के बाद योगी आदित्यनाथ ने इतिहास रचते हुए पहली बार यूपी सीएम के तौर पर दोबारा सत्ता पर काबिज हुए.  हालांकि, ऐसा कहा जा रहा था कि राजपूत सीएम से प्रदेश के ब्राह्मण नाराज हैं, लेकिन योगी ने अपने आपको जातियों के मामले से ऊपर रखने की कोशिश की.


भगवा हुए यूपी में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने अपने पिता के मुस्लिम वोट बैंक में सेंधामरी के बावजूद मुख्य विपक्षी दल के तौर पर बनाए रखने में सफल रहे हैं. जबकि, करीब 65 साल से ऊपर की हो चुकीं मायावती राजनाति तौर पर आज हाशिए पर चली गई हैं.


यह इस पृष्ठभूमि के खिलाफ है कि उसने एक नई दलित-प्लस रणनीति के बारे में सोचा है, उन्होंने इस बार मुसलमानों को शामिल किया है. पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए ये उनका आखिरी प्रयास हो सकता है. इसके चलते उन्होंने अतीक की कड़वाहट को भुलाते हुए बीएसपी में शाइस्ता को स्वागत किया. 


लेकिन, यूपी की राजनीति बहुत ही अप्रत्याशित है. अगले ही महीने फरवरी में प्रयागराज में ही राजूपाल हत्याकांड के गवाह उमेशपाल और उनके सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर दी गई. हत्या का आरोप अतीक पर लगा. मायावती इस हमले के बाद बचाव की मुद्रा में आ गईं, लेकिन उन्होंने बीएसपी से शाइस्ता परवीन को नहीं निकाला. उल्टे उन्होंने इसके लिए यूपी की कानून-व्यवस्था को कसूरवार ठहराया और कहा कि पुलिस की नाकामी का नतीजा है उमेशपाल की हत्या.


जब पुलिस ने उमेशपाल हत्याकांड में अतीक, अशरफ, असद, शाइस्ता परवीन और अन्य का नाम लिया, उसके बाद मायावती के ऊपर दबाव बढ़ने लगा. 27 फरवरी को उन्होंने कहा कि शाइस्ता को निलंबित किया जाएगा, अगर जांच के दौरान वे दोषी साबित हो जाती हैं.


अगले महीने उत्तर प्रदेश के 16 शहर- प्रयागराज (अतीक का गढ़), लखनऊ, वाराणसी, गोरखपुर और आगरा में मेयर के लिए वोट डाले जाएंगे. बीजेपी ने प्रयागराज में मौजूदा मेयर को बदलने का फैसला किया है. शाइस्ता उसमें उम्मीदवार तो नहीं है लेकिन वे फरार हैं. लेकिन बीएसपी ने अभी तक उनको निलंबित नहीं किया है.


[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]