देश अशांत हो रहा है. 2024 के चुनाव पास आता जा रहा है. सरगरमी बढ़ रही है. सामान्य घटनाएं भी राजनीतिक स्वरूप ले रही है. मणिपुर हो या नूंह, दोनों ही जगह व्यवस्थाओं ने काम नहीं किया. सामाजिक तनाव बढ़ा, कहीं न कहीं ताना बना टूटा. यह समय गलती निकालने का नहीं है. आत्मसर्वेक्षण सदा सर्वदा हमें करते रहना चाहिए. गलती करना नहीं है दूसरे को भी नहीं करने देना है. एक चूक मुश्किलें पैदा कर सकती है.
मणिपुर और नूंह की घटनाओं में एक समानता है. राज्यों के प्रशासन घटनाओं से निबटने में अपनी असमर्थता दिखाई. मणिपुर कोई 35 लाख लोगों का एक छोटा सा दिल्ली के मोहल्ले के बराबर जगह है. भौगोलिक फैलाव ज्यादा है. लेकिन, अगर प्रशासन 3 मई को ही तत्परता से काम करती ऐसे हालत नहीं होते. सारा प्रदेश नहीं जलता. नूंह, मेवात, हरियाणा का एक जिला है. दिल्ली से 60 किलो मीटर के दूरी है. लेकिन, ये देश का सबसे पिछड़ा और संवेदनशील इलाका है. यहां किसी कार्यक्रम से पहले एहतियात की जरूरत है.
विश्व हिन्दू परिषद कहते है कि श्रीकृष्ण की ओर से स्थापित नाल्हड़ शिव मंदिर से यात्रा निकालना चाहते थे, जैसा कि वे पिछले तीन साल से निकाल रहे थे. जिला 79.2% मुस्लिम आबादी के कारण संवेदनशील है. परिषद् ने अपने लोगों को जोड़ने का काम किया. बृजमंडल यात्रा की शुरुआत से पहले विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त महामंत्री सुरेन्द्र जैन एक भावपूर्ण भाषण देते हुए कहा कि यात्रा परंपरा के निर्वहन के लिए है, किसी के खिलाफ नहीं है. सभी का सामान्य उत्साह था. लेकिन, शायद इस उत्साह में वहां की नाजुक परिस्थिति को समझ न पाए.
प्रशासन को सूचना बंदोबस्त और सुरक्षा के लिए दी गयी थी. लेकिन, प्रशासन ने वहां बढ़ते हुए तनाव को नजरअंदाज किया. इतने बड़े 20,000 से ज्यादा के जनसमूह का एक जगह आने पर जिस प्रकार पुलिस और सशस्त्र बलों की तैनाती होनी चाहिए थी, वो नहीं किया गया. जिले के करीब 100 पुलिस के लोग अपने लाठी डंडे के साथ तैनात हुए. 31 जुलाई को जिस तरह का जन-समागम हुआ उसके लिए नाकाफी था.
माहौल बिगाड़ने वाले कुछ उकसाने वाले वीडियो सोशल मीडिया पर दसेक दिनों से चल रहे थे. सबको पता था. लेकिन, प्रशासन शायद उससे नावाकिफ था. उसमें दो गौरक्षा गुटो से जुड़े शख्स, मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी, के नाम से भड़काने वाले बयान थे. पूरे प्रदेश को मालूम था. अल्पसंख्यक भड़क रहे थे. प्रशासन को क्यों नहीं पता चला ये तो वे ही बता सकते हैं. अगर वे समय पर चौंकन्नी हो जाती तो इस यात्रा के खिलाफ अल्पसंख्यक संगठनों ने जिस तरह की तैयारी की वह रूक सकती थी.
कहा जाता है कि नाल्हड़ शिव मंदिर के आसपास के पहाड़ों को उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया. वहां AK-47 राइफल और अन्य अस्लाहो के साथ किलेबंदी की. पानी, रसद का भी इंतजाम रहा होगा. साथ ही, तमाम जगहों पर असलहे और पत्थर जमा किये गए.
प्रशासन को पता अगर नहीं था तो यह गहरी चिंता का विषय है. अगर होता तो कम से कम यात्रा के आयोजकों को वे बताते. पर ऐसा नहीं दिखता है. इस वजह से आज पूरे गुडगाँव, नूंह, सोहना, पलवल, अलवर, पानीपत ही नहीं, उत्तर प्रदेश से जुड़े मेरठ और मथुरा में भी तनाव फैला. अमरीका को गुडगाँव के लिए अलर्ट जारी करना पड़ा. संभव है कुछ समय में विदेशी कंपनियों की दफ्तरें वहां से पलायन करें.
अगर कुछ चैनलों की तरफ से प्रचारित खबर, कि कुछ दूसरी ओर के लोग भी तलवार वगैरह से लैस थे, सच है तो यह प्रशासनिक दक्षता को और उजागर करता है.
अगर मुस्तैदी से प्रशासन काम करता तो शायद हरियाणा पर ये दाग न लगता. अयोध्या के पुराने मंदिर के 1992 में विध्वंस के बाद, इतनी व्यापक और भयानक घटना पहली बार इस क्षेत्र में हुई. अल्संख्यक संगठनों ने सैनिक तैयारी के साथ यात्रा पर, मंदिर पर गोलीबारी की, आक्रमण किया यह बताया जाता है. सुरेन्द्र जैन का सरकार से तुरत फ़ोर्स लगाने की अपील का असर कई घंटों बाद हुआ. गोलियां चली. कई होम गार्ड और पुलिसकर्मी सहित छह लोगों की जान गई. अनेकों घायल हुए.
घटनाक्रम के अनुसार, दूसरी जगहों पर कुछ अल्पसंख्यकों की दुकानें, मस्जिद पर भी आक्रमण हुआ. बिहार के एक नायब मौलवी की चाकू से गोदकर हत्या भी कर दी गई और निर्मियमन मस्जिद को जला दिया गया. कई जिलों में आगजनी हुई. 100 गाड़ियाँ नाल्हड़ में जलीं.
प्रशासन ने बाद में कुछ तथाकथित बांग्लादेशियों के झोंपड़ी वाली कॉलोनियों को और कई गाँव और होटलों को बिना सूचना दिए बुलडोज़र से तबाह कर अपने शौर्य का प्रदर्शन किया. बुलडोज़र से कारवाई से समस्या विकराल हो सकता है. अलवर के एक अस्पताल तक अल्पसंख्यक भीड़ ने हिन्दुओं का पीछा किया उनके कपड़े उतार दिए. अनेकों ऐसी घटनाये और भी हुई.
इन सारे घटनाक्रम में एक बात साफ़ दिखता है कि मंदिर में फंसे लोग इस प्रकार की स्थिति से निबटने को तैयार नहीं थे. वे आतंकित थे. यह आयोजकों के लिए भी एक चिंताजनक विषय होना चाहिए. उन्हें ऐसी स्थिति का आंकलन न कर इतने विशाल संख्या, जो कि 20,000 से ज्यादा कहा जाता है, में उपस्थित लोगो को संकट में डाल दिया. ये भी समझने की जरूरत है कि कुछ समुदाय अभी भी बहुत संगठित है और 1947 के डायरेक्ट एक्शन को दुहराना उनके लिए मुश्किल नहीं है. ऐसे में इस प्रकार के दुस्साहसिक कदम के सामाजिक परिणाम घातक होते है.
स्थिति का जायजा प्रमुख हिन्दू संगठन को अपने और अनुयायियों के बचाव के लिए ही नहीं देश के सामाजिक परिस्थितियों को समझने के लिए जरूरी है. कुछ कार्यकर्ताओं में अतिउत्साह भी है. उन्हें समझाने की जरूरत है कि सामान्य मानसिकता हिंसा करने की नहीं है और उनके साथ के लोग उग्रवादी नहीं हो सकते है. कुछ लोगों ने ऐसा करने का हो सकता है तैश में सोचा हो. पर हिंसा समाधान नहीं हैं. हिंसा का जवाब हिंसा नहीं हो सकता है. हिंसा को रोकने की आवश्यकता है. पर अगर सरकार की व्यवस्था नाकाफी हो तो स्थिति बिगडती है.
राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव हो रहा है. ऐसी स्थिति में अगर इस प्रकार के कार्यक्रम में संयम नहीं होगा तो परिणाम संकटजनक हो सकते हैं. साथ में विश्व हिन्दू परिषद् जैसे संगठनों को सोचना पड़ेगा कि जो अपने को वैश्विक संगठन कहते हैं, उनका व्यव्हार भी उसी रूप होना चाहिए. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि इस देश के सभी लोगों का डीएनए एक है. साथ ही उन्होंने हिन्दू की भी एक व्यापक व्याख्या दी है कि इस देश के सभी रहने वाले हिन्दू है. यह समावेशी सोच है. इन संगठनों को इसी सोच के अनुरूप बढ़ना है.
बहुत से लोगों को यह बात वर्तमान माहौल में हो सकता है अच्छी नहीं लगे. पर देश हमारा है. हमें सोचना पड़ेगा कि इस बहुधर्मी देश में क्या हम सिर्फ एक समूह को ही हिन्दू मानकर आगे बढ़ सकते है? जो तमाम लोग अलग रहेंगे वे अगर आपस में मिल जाए तो देश का क्या होगा. मणिपुर में विश्व हिन्दू परिषद और मैतियों का एक ताना-बाना बन गया कि वे मूल भारत के न होते हुए भी उन्होंने यहाँ की मान्यताओं को स्वीकार किया. पर विहिप ने कुकियो को अलग क्यों समझा? मैती और उनमे जनजातीय विभेद है. सभी जनजातियाँ धर्म कोई भी अपनाएं, अपनी सामाजिक मान्यताओं को नहीं छोड़ते है. पूर्वोत्तर में सभी जनजातियों से तालमेल बैठाएँगे तभी देश और समाज सशक्त होगा. किसी भी आधार पर भेदभाव उचित नहीं है.
अगर नूंह के अल्पसंख्यक समुदाय को देखें तो पाएंगे एक समय उनके यहाँ नवजातक की पत्री ब्राह्मण बनाता था. उसके उपर श्रीकृष्ण लिखा जाता था. वे होली, दीवाली, जन्माष्टमी मनाते थे. अब ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? शयद इसलिए कि हिन्दुओं ने, उनके संगठनों ने, उनसे वार्तालाप, संवाद कम कर दिया या समाप्त कर दिया? या हो सकता है दूसरों ने उनसे संवाद बढ़ाया? कहीं एक सोच ये भी है कि ईंट का जवाब पत्थर से देना है. ये समाधान नहीं हो सकता है.
एक दूसरे धर्म को समझना आसान नहीं है. उन्हें अपने करीब रखना है, दूर नहीं जाने देना है. इसके लिए बहुत प्रयत्न करने होंगे. जो संगठन देश का नेतृत्व करना चाहते है, उन्हें समावेशी होना पढ़ेगा और सबको जोड़ना पड़ेगा. ये सामाजिक ताने-बाने के लिए ही नहीं, राजनीतिक परिणाम के लिए भी जरूरी है.
संघर्ष हम कर सकते हैं पर कोई व्यक्ति या समुदाय हिंसक हो, ये समाज को स्वीकार्य नहीं है. नूंह और मणिपुर को देखते हुए अपनी सोच के दायरे को बढ़ाना है. कैसे करेंगे ये आपस में बैठकर समझना पड़ेगा. देश को बढ़ना है, लोगो को जोड़ना है. हम तो दूर कम्बोडिया के लोगों से रिश्ता बढ़ाना चाहते है. और जो पास है उसे दूर क्यों हटाये? यह भी सोचना पड़ेगा.
राज्यों की पुलिस ठाठ प्रशासन को और संवेदनशील वो उनके कार्यपद्धति में जबर्दस्त सुधार की भी जरूरत है. प्रशासनिक गलतियां बुलडोज़र से नहीं सुधरती है.
संगठनों को चुनावों से आगे जाकर देश निर्माण करना है. स्थितियां कठिन है. किसी को अपने से दूर नहीं जाने देना है. विश्व मैत्री के प्रयास से ही हम नए भारत का निर्माण कर पाएंगे और यह काम अपने पड़ोस से ही शुरू करना पड़ेगा. महात्मा गाँधी इसलिए जीसस क्राइस्ट के वचन “पडोसी से प्यार करो” की नीति को बहुत महत्व देते थे. यही देश के शान्ति और समाज के समावेशी होने का मूल मंत्र है.
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