सन 70 के दशक में एक फ़िल्म आई थी-शोले. जिन लोगों ने वह फ़िल्म देखी होगी,उन्हें आज भी उसके दो किरदारों-जय और वीरु के नाम याद होंगे जिनके बीच दांत काटी दोस्ती थी और जो ये कसमें खाया करते थे कि चाहे जो हो जाये लेकिन उनकी ये दोस्ती कभी नहीं टूटेगी. उसी जमाने में जयप्रकाश नारायण यानी जेपी के सोशलिस्ट आंदोलन ने बिहार की राजनीति को दो ऐसे नौजवान चेहरे दिये जो आपस में गहरे दोस्त थे और दोनों में ही अपने प्रदेश व देश के लिए कुछ अनूठा करने का जज़्बा भी हिलोरें मार रहा था. 


सियासत की बिसात पर दोनों कितनी बार गले लगे और कितनी बार एक-दूसरे से अलग हो गए,इसकी गिनती भले ही किसी को याद हो लेकिन लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की इतनी गहरी अदावत का राज आखिर क्या है,इसे समझने में राजनीतिक पंडित भी अक्सर फेल ही साबित हुए हैं. 


देश के राजनीतिक इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है, जब एक मुख्यमंत्री अपने मुख्य विरोधी के लिए ये कह दे कि "वह चाहें,तो मुझे गोली ही मरवा दें." हालांकि नीतीश ने मंगलवार को मीडिया के सामने लालू पर निशाना साधते हुए जब ये बयान दिया, तो उनके चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक हंसी भी थी. उसके बावजूद उनका ये बयान चौंकाने वाला इसलिये है क्योंकि नीतीश कुमार को बेहद सुलझा हुआ व परिपक्व नेता माना जाता है, जिनसे मीडिया के कैमरों के सामने मजाक में भी ऐसा बयान देने की उम्मीद शायद ही कोई रखता हो. 


नीतीश के इस बयान को लेकर राजनीतिक गलियारों में तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रहीं हैं और इसके सियासी मायने भी निकाले जा रहे हैं. आगामी 30 तारीख को बिहार की दो विधानसभा सीटों- तारापुर और कुशेस्वरस्थान में उप चुनाव हैं. इन दोनों ही सीटों पर अब तक नीतीश की पार्टी जेडीयू का ही कब्ज़ा था. लेकिन तकरीबन चार साल बाद पहली बार लालू यादव अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए वोट मांगने के मकसद से बुधवार को वहां चुनावी रैली कर रहे हैं. बिहार की राजनीति की नब्ज समझने वालों के मुताबिक नीतीश को ये अंदाज़ा हो गया है कि लालू के मैदान में कूदने से ये मुकाबला कांटे का होने वाला है और संभव है कि जेडीयू इन दोनों ही सीटों से हाथ धो बैठे. वे मानते हैं कि घोटाले के तमाम आरोपों के बावजूद जमीनी स्तर पर लालू का जलवा अभी खत्म नहीं हुआ है और वे बाज़ी पलटने की हैसियत वाली स्थिति में भी हैं. लिहाज़ा, नीतीश के इस बयान के कोई बहुत गहरे सियासी मायने नहीं बनते हैं,बल्कि हल्के-फुल्के अंदाज़ में ये बात कहकर उन्होंने एक तरह से अपनी सरकार की खामियों और पार्टी के हारने की आशंका से लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश की है.


जमीनी हकीकत ये भी है कि नीतीश को लालू से कोई खतरा नहीं है बल्कि उनके बेटे व प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ही उनके लिए सबसे बड़े खतरे के रुप में उभर रहे हैं. पिछले कुछ अरसे में तेजस्वी ने जनहित के मुद्दों को लेकर जिस तरीके से नीतीश सरकार पर हमला बोला है और खासकर प्रदेश में बढ़ती बेरोजगारी को लेकर जो मुखरता दिखाई है,उससे युवा पीढ़ी के बीच उनका जनाधर बेहद तेजी से मजबूत हुआ है. ऐसा भी नहीं है कि सियासत के माहिर खिलाड़ी माने जाने वाले नीतीश को इसका अहसास ही न हो लेकिन सियासत का उसूल है कि विरोधी भले ही कितना ज्यादा ताकतवर बनता जा रहा हो,उसे किसी भी सूरत में अपनी तरफ से जाहिर नहीं होने देना है. नीतीश को एक बड़ा खतरा ये भी सता रहा है कि तेजस्वी की आरजेडीऔर चिराग पासवान की लोजपा मिलकर एक बड़ी ताकत बन जाएंगी,जो अगले चुनाव में उनकी शिकस्त की सबसे बड़ी वजह हो सकती हैं. हालांकि पिछले चुनाव में भी जेडीयू को बीजेपी से कम सीटें मिली थीं लेकिन उसके बावजूद बीजेपी ने गठबंधन का धर्म निभाते हुए नीतीश को ही सीएम बनाने का फैसला किया. इसके भी अपने सियासी मायने हैं क्योंकि बीजेपी अगली बार वहां अपने बूते पर ही सरकार बनाने को तैयारी में है और उसी के मुताबिक वो अपनी रणनीति को अंजाम देने में जुटी हुई है. 


शायद ज्यादा लोग इस हक़ीक़त से वाकिफ न हों कि नीतीश-लालू आज जिस तरह से आपस में जानी दुश्मन दिख रहे हैं,वे ऐसे थे नहीं और दोनों ने ही कभी एक-दूसरे को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए जीजान एक कर दी थी. लोग तो ये भी भूल जाते हैं कि साल 1990 में लालू यादव जब पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने,तब बीजेपी के समर्थन से ही वे इस कुर्सी तक पहुंचे थे. क्योंकि तब केंद्र में भी बीजेपी ने जनता दल के नेतृत्व वाले गठबंधन वाली सरकार को बाहर से अपना समर्थन देकर वीपी सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनवाया था. 


हालांकि तब नीतीश कुमार जनता दल में इतने ताकतवर नेता नहीं थे लेकिन उसके बावजूद पर्दे के पीछे से खेली गई सियासत में उनका अहम रोल रहा था. उस समय जनता दल बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनी थी लेकिन इतनी सीटें नहीं मिल सकी थीं कि वो अपने दम पर सरकार बना ले. लिहाज़ा बीजेपी को मिलीं 39 सीटों के समर्थन से ही 10 मार्च 1990 को लालू यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने थे. 
दरअसल,उस वक्त वीपी सिंह चाहते थे कि पार्टी नेता रामसुंदर दास को सीएम बनाया जाए, लेकिन जनता दल के कद्दावर नेता चंद्रशेखर,रघुनाथ झा को इस पद पर देखना चाहते थे. इस झगड़े को खत्म करने का जिम्मा तत्कालीन उप प्रधानमंत्री देवीलाल को सौंपा गया और वहीं पर नीतीश ने अपनी सियासी चाल खेलकर लालू यादव का नाम आगे कर दिया और इसके लिए देवीलाल को राजी भी कर लिया. उन्होंने लालू को मुख्यमंत्री बनाने की सिफारिश कर दी,जिसे पार्टी में सबको मानना पड़ा. 


हालांकि वक़्त आने पर लालू यादव ने भी उस अहसान का बदला चुकाने में देर नहीं की और उन्होंने 2015 में नीतीश की ताजपोशी कराने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. लालू ने ही उस चुनाव में कांग्रेस को साथ लाकर महागठबंधन बनाया, जिसके दम पर ही नीतीश सीएम बने थे. ये अलग बात है कि ये गठजोड़ दो साल भी नहीं चल पाया और नीतीश व लालू के रास्ते फिर से जुदा हो गए. सियासी गलियारों में राजनीति के इन दोनों माहिर खिलाड़ियों के रिश्तों की तुलना समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटा से की जाती है. देखते हैं कि इस बार ये बिहार की राजनीति में किस तरह का तूफान लाता है?



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