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जातिगत जनगणना का तीर चलाकर NDA को फांसना चाहता है I.N.D.I.A, नीतीश कुमार के यूपी से चुनाव लड़ने की बात कोरी अफवाह

बेंगलुरू में जो I.N.D.I.A की बैठक हुई, उसने 18 जुलाई को जातिगत जनगणना की मांग की थी. इसमें एक बात यह भी देखने को मिली है कि घटक के मुख्य दलों में लगभग सभी इस बात पर एकमत हैं कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए.

कांग्रेस के नेता और पूर्व सांसद राहुल गांधी ने तो खुद प्रधानमंत्री मोदी को ही चुनौती दी है कि वे 2011 में कांग्रेस द्वारा कराए गति जातिगत सर्वेक्षण के आंकड़े ही सार्वजनिक कर दें. इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में एक बड़ी ताकत रखनेवाले अखिलेश यादव ने भी जातिगत जनगणना का समर्थन किया है. उसी तरह विपक्षी दलों के महाजुटान में शामिल हरेक दल ही इस मांग से इत्तिफाक रखता है.

बिहार में तो जेडीयू-आरजेडी की सरकार ने जातिगत जनगणना शुरू ही करवा दी थी, लेकिन पटना हाईकोर्ट ने एक तरह से उस पर अंतरिम रोक लगा दी है. बहरहाल, इतना तो तय है कि जाति-जनगणना की मांग से एक साथ विपक्षी गठबंधन कई शिकार करने की ताक में है. भाजपा को हराना या बैकफुट पर लाना इस गठबंधन का घोषित लक्ष्य है.

केंद्र में पिछले 9 वर्षों से भाजपानीत सरकार है, लेकिन उसने जातिगत जनगणना की कोई पहलकदमी नहीं की है. इसकी वजह यही है कि जातिगत जनगणना से निकलने वाले आंकड़े उसके फेवर में नहीं बैठेंगे, कम से कम भाजपा के कर्णधारों की तो यही सोच है. यही वजह है कि बिहार में विधानसभा में पूरा समर्थन देने के बाद (दो बार) भी जातिगत जनगणना के रुकने पर उनको कोई खास फर्क नहीं पड़ा है.

यह मुद्दा उनके लिए हार्दिक कम और राजनीतिक अधिक है. वहीं महागठबंधन में शामिल बिहार औऱ यूपी के महत्पूर्ण दल, यथा- राजद, जेडीयू, सपा इत्यादि, यह जानते हैं कि जातीय जनगणना से उनके पाले में कुछ बढ़ोतरी ही होगी. मंडलवादी राजनीति के सभी दल चाहते हैं कि पिछड़ों की राजनीति का और विस्तार हो और इसमें जातीय जनगणना से जाहिर तौर पर मदद मिलेगी. 

जाति और आरक्षण हैं मजबूत सवाल 

हम सभी को 2015 का बिहार विधानसभा का चुनाव याद रखना चाहिए. तब संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने किसी दूसरे अर्थ में 'आरक्षण की समीक्षा' को कहा था, लेकिन लालू प्रसाद यादव ने उस पूरे बयान को 'आरक्षण खत्म करने के खतरे' के तौर पर पेश कर दिया था. उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी से लेकर तमाम बड़े लीडर्स ने लीपापोती की, लोगों को बार-बार कहा कि आरक्षण कतई खत्म नहीं होगा, लेकिन बिहार में जो नुकसान होना था, वह हो गया.

पहली बार भाजपा को नीतीश कुमार का साथ छोड़ना भारी पड़ा था. राजनीति में फैक्ट से अलग परसेप्शन की पूछ और वकत होती है. इंडिया नामक गठबंधन फिलहाल परसेप्शन की लड़ाई लड़ रहा है. वह जानता है कि जाति-जनगणना से होनेवाले सियासी फायदे-नुकसान अभी दूर की बात हैं, लेकिन इस मुद्दे पर बीजेपी को वह बार-बार इतना तो कह ही सकती है कि वह अपना स्टैंड क्लियर करें.

बिहार में भले हाईकोर्ट ने अंतिरम रोक लगा दी है, लेकिन तेजस्वी और नीतीश अपने वोटर्स में यह संदेश तो देने में कामयाब रहे ही हैं कि उन्होने तो पुरजोर कोशिश की, अब सत्ता के इतने अलग खांचे और स्तंभ हैं तो वह भला करें भी तो क्या? भाजपा इसी परसेप्शन को रोकना चाहती है, इसीलिए वह बिहार में तो यह कहती है कि उसका पूरा समर्थन जातिगत जनगणना को है लेकिन केंद्रीय सत्ता में लगभग एक दशक से होने के बावजूद इस मसले पर कोई पहलकदमी नहीं करती. 

यूपी से नीतीश के लड़ने का नहीं है सवाल

अभी जो ये हवा चल रही है कि नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश की फूलपुर सीट से संभवतः लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे, तो यह दूर की कौड़ी और अफवाह अधिक लगती है. मंडलवादी नेताओं में नीतीश कुमार ही हैं जो यह इमेज बनाकर चलने में कामयाब रहे हैं कि जाति की राजनीति करने के बावजूद उन पर जाति-विशेष का नेता होने का ठप्पा नहीं लगे. इसीलिए, वह 6 फीसदी वोट बैंक का आधार मात्र लेकर भी 18 वर्षों से राज्य की राजनीति पर एकछत्र राज कर रहे हैं. उनके सजातीय वोटबैंक की कीमत बिहार में 6 फीसदी है और उत्तर प्रदेश में तो यह 6 से भी कम ही है.

इसके बावजूद केवल इस आधार पर कि कुर्मी उन्हें वोट देंगे, या फिर फूलपुर से चुनाव लड़नेवाले प्रधानमंत्री बने हैं, नीतीश कुमार भी यूपी से चुनाव लड़ जाएं, यह फिलहाल मुमकिन तो नहीं दिखता. वैसे तो राजनीति में सब कुछ दूर की कौड़ी होता है, कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है, लेकिन नीतीश जी के यूपी से लड़ने की बात फिलहाल कोरी अफवाह ही लगती है. जैसा कि हमने पहले भी देखा है कि राजनीति में सब कुछ परसेप्शन ही होता है, तो नीतीश उसी परसेप्शन के बल पर आज तक प्रासंगिक बने हुए हैं, यह भी न भूला जाए. 

फिलहाल, जो जमीनी राजनीति दिख रही है और जिस तरह के कयास लग रहे हैं, उस हिसाब से तो बिहार में चुनावी घमासान बहुत रोचक रहनेवाला है. पिछली बार की तरह इस बार भाजपा को क्लीन स्वीप भले नसीब न हो, लेकिन भरपूर टक्कर तो वह देगी ही. महागठबंधन के पास यह सोचने का, हिसाब लगाने का भरपूर समय है कि भाजपा के खिलाफ एक की तान अगर पूरी हो, तो भला कैसे? चिराग, मुकेश और जीतन मांझी जैसे छोटे खिलाड़ी भी भरपूर टक्कर देने को तैयार हैं. ऐसे में बिहार में जो कुछ भी होगा, वह तो बहुत मजेदार होनेवाला है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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