अभी बीते शनिवार यानी 16 मार्च को गुजरात के अहमदाबाद में 18 पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थियों को गुजरात के गृह राज्यमंत्री ने भारतीय नागरिकता दी. इसके साथ ही 1100 से कुछ अधिक शरणार्थी हिंदू पाकिस्तानियों को अब तक भारत की नागरिकता मिल चुकी है. हालांकि, इसका सीएए से लेना-देना नहीं है. यह गुजरात सरकार के उस विशिष्ट नोटिफिकेशन का हिस्सा है, जिसके तहत अहमदाबाद, गांधीनगर और कच्छ के जिला कलेक्टर को 2016 और 2018 के गजट नोटिफिकेशंस के आधार पर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों (हिंदू, बौद्ध, सिख, ईसाई) को नागरिकता देने का अधिकार है. बाद में आनंद और मेहसाणा जिले के कलेक्टर्स को भी इस सूची में जोड़ा गया. इस तरतीब से ही पता चलता है कि देश के कई हिस्सों में इन तीन देशों से सताए, उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए सीएए की तरह का कानून किस हद तक जरूरी था
सीएए की आलोचना बेमानी
विभाजन की विभीषिका झेलने वाले लोगों को जब नागरिकता दी जा रही है तब विपक्षी दलों के द्वारा की जाने वाली आलोचना को भारतीय इतिहास के साथ धोख़ा ही माना जायेगा. पाकिस्तान का निर्माण जिस मजहब के आधार पर हुआ था उससे पृथक् पहचान रखने वाले समुदाय के सदस्यों की पीड़ा को समझने की जिम्मेदारी भारत सरकार की ही है. जिन लोगों ने पाकिस्तान की मांग नहीं की थी उनकी हिफाजत आखिर सुनिश्चित कैसे हो, इस मसले पर गौर करने की जरूरत किसी ने नहीं समझी. उत्तर-स्वातंत्र्य काल में भारत के ज्यादातर नेताओं ने सिर्फ सरकारों के गठन में रुचि ली और ऐतिहासिक दायित्वों की उपेक्षा की. भाजपा एक राजनीतिक दल के रूप में राष्ट्रीय मुद्दों पर अलग राय रखती है. इसलिए किसी आलोचना की परवाह किए बग़ैर वह निरंतर आगे बढ़ रही है. अब पाकिस्तान के हुक्मरानों को भी ऐसी ही पहल करनी चाहिए ताकि वहां जाने के इच्छुक लोगों की भी राह आसान हो सके. जिस "मजहब" की बुनियाद पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था उसके अनुयायियों की जिम्मेदारी उसे ही उठानी चाहिए तब ही उसके निर्माण का "औचित्य" सिद्ध होगा. राष्ट्र-राज्य भारत तो मिसाल कायम कर रहा है. नागरिकता संशोधन कानून को इंसानियत की निगाह से देखने की जरूरत है.
बहुत कुछ खोया है भारत ने
पेशावर, लाहौर, कराची, क्वेटा और ढाका जैसे शहरों को भारत ने सिर्फ़ इसलिए खो दिया क्योंकि वहां की बहुसंख्यक आबादी पश्चिम एशियाई मूल्यों से प्रभावित थी. उन्हें अपने मुल्क के गौरवगान से चिढ़ होती थी. यहां के निवासी होने के बावजूद वे मध्य एशियाई हमलावरों के कृत्यों को ग़लत नहीं मानते थे. इसलिए मुस्लिम लीग के रहनुमा "भारतवर्ष" के इतिहास से खुद को अलग करके देखते रहे. गंगा-जमुनी तहजीब हकीकत नहीं बन सकी, लेकिन इसके अफ़साने अभी भी सुनने को मिलते हैं. दरअसल पाकिस्तान एक देश नहीं, एक विचार है जो भारत की मौलिक संस्कृति को न सिर्फ़ नकारती है बल्कि इसे कमतर बता कर यहां के लोगों को अपमानित भी करती है. पृथक् धर्म एवं संस्कृति की बातें करते हुए मुहम्मद अली जिन्ना का यह मुल्क अपने पूर्वी हिस्से को संभाल नहीं सका, इसलिए विश्व के मानचित्र पर हम एक नए राष्ट्र बांग्लादेश को देखते हैं. अपनी भाषा, संस्कृति एवं पहचान को सुरक्षित रखने के लिए बेचैन पूर्वी पाकिस्तान के लोग फौजी हुक्मरानों के बूटों तले रौंदे गए थे, लेकिन बांग्लादेश की राजनीतिक जटिलताओं के कारण बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के ख्वाब पूरे नहीं हुए. जिस बंगभूमि से देश को कई राष्ट्रवादी, बुद्धिजीवी और समाज सुधारक मिले थे, वहां संकीर्ण सोच को प्रोत्साहित किया जाने लगा.
धर्मनिरपेक्षताः यूरोपीय अवधारणा खोखली
भारतीय उपमहाद्वीप में धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय अवधारणा कभी जड़ें नहीं जमा सकी. पंडित जवाहरलाल नेहरू की परवरिश जिन आभिजात्य मूल्यों के संरक्षण में हुई थी वे धर्म एवं राजसत्ता के अलगाव की वकालत करते थे. लेकिन भारतीय जनमानस की वास्तविकताओं का सही आकलन जरूरी नहीं माना गया. गांधीजी की मानवतावादी विचारधारा आकर्षक होने के बावजूद मुल्क का विभाजन नहीं रोक सकी. विपरीत परिस्थितियों में अपनी जगह-जमीन छोड़ने वाले लोगों के समक्ष धर्मनिरपेक्षता के तराने गाना किस हद तक मुनासिब है, यह कौन तय करेगा? भारत के समावेशी संसदीय लोकतंत्र से अल्पसंख्यक समूहों को सुरक्षा का आश्वासन मिला है, इसलिए यहां उनकी आबादी कम नहीं हुई, लेकिन पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के संबंध में ऐसे दावे नहीं किए जा सकते. जिस पाकिस्तान में 1947 के वक्त हिंदू आबादी 23 फीसदी थी, वह घटकर दो प्रतिशत से भी कम रह गयी. जिस बांग्लादेश में हिंदू जनसंख्या 20 प्रतिशत से अधिक थी, वह अब केवल 10 फीसदी रह गयी है. बाकी के हिंदू कहां गए? महाशक्तियों की प्रयोगभूमि रहा अफगानिस्तान अपने बाशिंदों को मध्यकालीन शासन-व्यवस्था की सौगात देकर इतरा रहा है. जब बामियान में गौतम बुद्ध की प्रतिमा ध्वस्त की जा रही थी तब धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार गहरी नींद में सो रहे थे.
दर्द का बांट-बखरा एकतरफा न हो
इजराइल की नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों ने कश्मीरी पंडितों के दर्द को कभी महसूस नहीं किया. भारतीय राजनीति का मौजूदा दौर कांग्रेस और उसके सहयोगियों की कार्यशैली को असंतुलित मान रहा है. पूर्वोत्तर भारत की जटिल नृजातीय-सामाजिक संरचना के कारण नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध कुछ संगठनों की सक्रियता केंद्र सरकार के लिए चुनौती जरूर बन रही है, लेकिन स्थानीय लोगों से संवाद स्थापित करके उनकी शंकाओं का समाधान ढ़ूंढ़ा जा सकता है. सबसे बड़ी जरूरत इस बात को समझने और समझाने की है कि सीएए नागरिकता लेने का नहीं, देने का है. हरियाणा और राजस्थान के कुछ इलाकों में सैकड़ों हिंदू तीन-चार दशकों से बेनाम सी जिंदगी जी रहे हैं. सीएए के बाद उनके मन में एक आस जागी है. ऐसे में अगर एक संवैधानिक पद पर आसीन मुख्यमंत्री केजरीवाल उनको पाकिस्तानी कह कर संबोधित करते हैं, शब्दों की बाजीगरी से गलतबयानी करते हैं, तो इसका संदेश ठीक नहीं जाएगा. दर्द का रंग और बांट-बखरा एक ही आधार पर हो, उसमें कम से कम विभेद न किया जाए.
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