Canada Election: कनाडा के सिख क्या तीसरी बार बना पाएंगे जस्टिन ट्रूडो को प्रधानमंत्री?
Canada Election: कनाडा में भारतीय मूल के लोगों खासकर सिख समुदाय की संख्या इतनी अधिक है कि वहां के कुछ प्रांत 'मिनी पंजाब' कहलाते हैं. कुल आबादी का 22 प्रतिशत हिस्सा सिखों का है, लिहाजा वहां की राजनीति में भी उनका दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है. वहां 20 सितंबर को संसदीय चुनाव है, जिस पर भारत के सिखों की भी खासी दिलचस्पी बनी हुई है.
कनाडा की राजनीति में तीसरी ताकत बनकर उभरी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) भी मैदान में है, जिसकी कमान भारतीय मूल के 42 वर्षीय जगमीत सिंह (जिम्मी धालीवाल) के हाथ में है. इसलिए सवाल उठ रहा है कि मौजूदा प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को तीसरी बार सत्ता में लाने के लिए क्या सिख उनके मददगार बनेंगे? हालांकि ट्रूडो के लिए हैट्रिक लगाना एक बड़ी चुनौती समझा जा रहा है क्योंकि उन्होंने हाउस ऑफ कॉमन्स यानी संसद के मध्यावधि चुनाव कराने का फैसला ऐसे वक्त पर लिया है, जब वहां कोरोना संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, जिसे चौथी लहर कहा जा रहा है. लिहाजा लोग उनसे नाराज बताए जा रहे हैं और उनकी लोकप्रियता में भी कमी आई है, जिसका नतीजा है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में उनकी लिबरल पार्टी को पिछड़ता हुआ दिखाया जा रहा है.
वहां त्रिकोणीय मुकाबला होने की संभावना है. मुख्य विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी के अलावा न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) भी इस बार पूरी ताकत से चुनावी-मैदान में है. साल 2017 में एनडीपी के मुखिया बने और पेशे से क्रिमिनल एडवोकेट जगमीत सिंह 2019 में पहली बार सांसद चुने गए थे. तब उनकी पार्टी को 24 सीटें मिली थीं और वो एक किंग मेकर बनकर वहां की सियासत में उभरे. भारत में चल रहे किसान आंदोलन के भी वे मुखर समर्थक हैं और 26 जनवरी को लाल किले की घटना के बाद उन्होंने कनाडा की संसद में ये मसला उठाते हुए पीएम ट्रूडो से मांग की थी कि वे किसानों पर हुए हिंसक लाठी चार्ज की निंदा करें और इस बारे में भारत सरकार पर दबाव भी डालें. साल 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के भी वे मुखर विरोधी रहे हैं. यही कारण है कि दिसंबर 2013 में जब वे अमृतसर आना चाहते थे तो तत्कालीन यूपीए सरकार ने उन्हें वीजा देने से इनकार कर दिया था.
दरअसल, संसद का पिछला चुनाव 2019 में ही हुआ था, जिसमें ट्रूडो की लिबरल पार्टी को जरूरी बहुमत नहीं मिल पाया था. कुल 338 सीटों वाली संसद में उनकी पार्टी 157 सीटें ही ला पाई और एक तरह से वे अल्पमत वाली सरकार ही चला रहे थे. जबकि साधारण बहुमत पाने के लिए 170 सीटें हासिल करना जरूरी है. पिछली 15 अगस्त को उन्होंने संसद भंग करवाकर मध्यावधि चुनाव कराने का सियासी दांव खेला ताकि वे पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना सकें. पर्यवेक्षक मान रहे हैं कि उनका ये दांव अब उल्टा पड़ता दिख रहा है.
कनाडाई मीडिया के मुताबिक इस बार के हाउस ऑफ कॉमन्स के चुनाव में जस्टिन ट्रूडो के भाग्य का फैसला कई मुद्दे कर सकते हैं. खासकर अफगानिस्तान से रिफ्यूजियों को देश में लाने से लोग नाराज हैं, तो वहीं कोरोना महामारी को सही तरीके से हैंडल नहीं करने और उसी दौरान मध्यावधि चुनाव कराने का ऐलान करना भी उनके खिलाफ जाता दिखाई दे रहा है. माना जा रहा है कि जो लोग कोरोना वायरस की चौथी लहर के बीच चुनाव कराए जाने से नाराज हैं, वो उनकी पार्टी के खिलाफ वोट डालकर अपनी नाराजगी का इजहार कर सकते हैं. इसीलिए ये अनुमान लगाए जा रहे हैं कि उनकी पार्टी पर हार का खतरा मंडरा रहा है.
दो दिन पहले ही टोरंटों में चुनाव-प्रचार के दौरान नाराज लोगों की भीड़ में से किसी ने जस्टिन ट्रूडो पर छोटे पत्थर फेंके तो किसी ने उनके चेहरे पर झाग मलने की कोशिश की. हालांकि घटना के बाद ट्रूडो ने कहा, 'ये वो लोग हैं, जो कोरोना की वैक्सीन नहीं लगवाना चाहते और जिनका विज्ञान पर कोई भरोसा नहीं है.' वहां सरकार ने सबके लिए वैक्सीन लगवाना अनिवार्य कर दिया है और इसके लिए कई सख्त कदम उठाए हैं, जिससे एक वर्ग नाराज है.
वैसे ट्रूडो का मुख्य मुकाबला कंजर्वेटिव पार्टी के नेता एरिन ओ टूल से है. लेकिन न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी ने भी अपना जनाधार काफी बढ़ाया है. अमेरिकी वेबसाइट न्यूज पॉलिटिको.कॉम के मुताबिक एक महीना पहले तक इन दोनों विपक्षी पार्टियों का मनोबल गिरा हुआ था, इसलिए जब ट्रूडो ने सदन भंग कराने का फैसला किया, तो उनकी संभावना ज्यादा नहीं समझी गई थी. हालांकि अभी भी वे प्रधानमंत्री ट्रूडो की लिबरल पार्टी से पिछड़ी हुई हैं, लेकिन जो ट्रेंड दिखा है, उसमें ताजा गिरावट ट्रूडो की लोकप्रियता में आई है.
यही वजह है कि कंजर्वेटिव पार्टी के रणनीतिकारों को उम्मीद है कि अगर जगमीत सिंह की एनडीपी का प्रदर्शन मजबूत रहा तो उसका फायदा कंजर्वेटिव पार्टी को मिलेगा क्योंकि लिबरल पार्टी और एनडीपी के वोटरों में काफी समानता है. त्रिकोणीय मुकाबले में कंजर्वेटिव पार्टी को फायदा मिलने की संभावना अधिक है. ट्रूडो को कड़ी चुनौती देने के मकसद से ही पार्टी को मध्यमार्गी रास्ते पर ले आए हैं ताकि ट्रूडो के उदारवादी समर्थकों को वे अपनी तरफ खींच सकें.
पिछले दो हफ्ते में हुए कई चुनावी सर्वेक्षणों में ट्रूडो की लिबरल पार्टी को काफी पीछे दिखाया गया था लेकिन सर्वे करने वाली एजेंसी नेनोस रिसर्च ने मंगलवार को ताजा सर्वे के जो नतीजे जारी किए हैं, उसमें ट्रूडो की पार्टी को बेहद मामूली बढ़त के साथ आगे दिखाया गया है. इसके मुताबिक ट्रूडो को 34 प्रतिशत जबकि कंजर्वेटिव पार्टी को 32 फीसदी वोट मिलने का अनुमान है लेकिन मतदान होने तक इसमें काफी बदलाव होने की उम्मीद जताई गई है. इसलिए माना जा रहा है कि एनडीपी इस बार भी किंग मेकर की भूमिका में ही रहने वाली है.
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