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भारत-कनाडा के बीच बढ़ते तनाव में अमेरिका-ब्रिटेन की मुखरता, भारतीय विदेश नीति के लिए है परीक्षा की घड़ी

आज़ादी के बाद से भारत की विदेश नीति स्वतंत्र रही है. इस दरमियाँ तमाम मुश्किलें आयीं, उसके बावजूद भारत ने कभी भी अपनी विदेश नीति में किसी बाहरी दबाव का छाया नहीं पड़ने दिया है. शुरू से तटस्थता भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है.

पिछले सात दशक में कई ऐसे मौक़े आए, जब तटस्थता को छोड़कर किसी गुट या ख़ेमे में शामिल होने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर से भारत पर दबाव डाला गया. चाहे शीत युद्ध का समय हो या उसके बाद की वैश्विक व्यवस्था भारत ने हमेशा ही किसी ऐसे गुट का हिस्सा बनने से दूरी बनाकर रखी, जो किसी देश, रीजन या समूह के ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी से जुड़ा रहा हो.

भारत-कनाडा के बीच तनाव नहीं हो रहा कम

हालांकि भारत-कनाडा के बीच बढ़ते तनाव के बीच अमेरिका और ब्रिटेन के रुख़ से भारतीय विदेश नीति की चिंताएं बढ़ गयी है. इसे भारतीय विदेश नीति के लिए परीक्षा की घड़ी भी कहा जा सकता है. साथ ही यह भारतीय विदेश नीति के लिए एक ऐसा सबक भी है, जिसका भविष्य में द्विपक्षीय संबंधों के विस्तार से जुड़ी सामरिक नीतियों में ख़याल रखा जाना चाहिए.

प्रकरण में अमेरिका और ब्रिटेन का रुख़ चिंताजनक

पिछले एक महीने से भारत को घेरने के लिए कनाडा की ओर से लगातार प्रयास किये जा रहे हैं. इसमें अमेरिका और ब्रिटेन की भी कोशिश भारत पर दबाव बनाने की ही रही है. भारत की अध्यक्षता में सफलतापूर्वक दिल्ली में हुए जी 20 समिट के बाद कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने सीधे तौर से भारत पर एक आरोप लगाया. उन्होंने पहली बार यह आरोप कनाडाई संसद में लगाया. आरोप एक अलगाववादी सिख नेता और कनाडाई नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या से संबंधित था. खालिस्तान समर्थन अलगाववादी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या 18 जून को कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के सरे में एक गुरुद्वारे के बाहर अज्ञात लोगों ने गोली मारकर कर दी थी.

इसी को लेकर जस्टिन ट्रूडो ने 18 सितंबर को कनाडा की संसद में इस हत्या के पीछे भारत के संबंध को लेकर बयान दिये. इसके बाद से दोनों देशों के बीच तनाव लगातार बढ़ते ही गया है. भारत लगातार कनाडा के इन आरोपों को बेबुनियाद बताते रहा है. भारत के लिए हरदीप सिंह निज्जर एक आतंकवादी था, जो बतौर कनाडाई नागरिक वहां से खालिस्तानी भावनाओं को भड़काने का काम करता था.

राजनयिकों के मामले को तूल देने की कोशिश

ताजा मामला राजनयिकों को लेकर जुड़ा है, जिसमें अमेरिका और ब्रिटेन की ओर से जो बयान आया है, वो एक तरह से भारतीय रुख़ की आलोचना सरीखा ही है. साथ पूरे मामले को जानबूझकर तूल देने जैसा है. भारत ने संख्या में अधिक होने की वज्ह से कनाडा के 41 राजनयिकों को मिली राजनयिक छूट को 20 अक्टूबर तक वापस लेने की बात कही थी. इसके बाद कनाडा ने उन 41 राजनयिकों को वापस बुला लिया. इसके साथ ही भारत के इस क़दम को कनाडा ने अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन बताया गया. जस्टिन ट्रूडो ने इसके लिए एक बार फिर से भारत की आलोचना की है. कनाडा का कहना है कि भारत का राजनयिकों को मिली छूट वापस लेने का फ़ैसला वियना संधि का उल्लंघन है.

प्रकरण को अंतरराष्ट्रीय मामला बनाने का प्रयास

जस्टिन ट्रूडो शुरूआत से ही इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मामला बनाने के प्रयास में जटे हैं. वो अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों को इसके लिए उकसा भी रहे हैं. राजनयिकों को छूट वापस लेने के मसले को भी वो अंतरराष्ट्रीय सुर्खियाँ बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने भी कहा है कि यह फ़ैसला राजनयिक संबंधों पर वियना संधि का उल्लंघन है. एक क़दम आगे जाते हुए जस्टिन ट्रूडो का कहना है कि भारत के इस फ़ैसले से दुनिया के सभी देशों को चिंतित होने की दरकार है. कनाडा राजनयिकों के मामले को धमकी के तौर पर प्रचारित कर रहा है. कनाडा की विदेश मंत्री मेलानी जोली का कहना था कि 62  में से 41 राजनयिकों को उनकी राजनयिक छूट वापस लिये जाने की भारत की धमकी के बाद वापस बुला लिया गया है.

अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन का कोई सवाल नहीं

हालांकि भारत ने तत्काल ही अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन के कनाडा के आरोपों को ख़ारिज कर दिया. भारतीय विदेश मंत्रालय के 20 अक्टूबर को जारी बयान में स्पष्ट तौर से कहा गया है कि राजनयिकों को छूट वापस लेने का फ़ैसला समानता के सिद्धांत पर आधारित है और इस फ़ैसले का मकसद सिर्फ़ यह सुनिश्चित करना है कि दोनों देशों में तैनात राजनयिकों की संख्या क़रीब-क़रीब समान हो. भारत का स्पष्ट कहना है कि दो-तरफ़ा राजनयिक समानता स्थापित करना राजनयिक संबंधों को लेकर वियना संधि के प्रावधानों के मुताबिक़ ही है. भारत ने कनाडा की कोशिशों को पूरी तरह से ख़ारिज किया है.

फ़ैसला समानता के सिद्धांत पर आधारित है

भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि इस फ़ैसले को लेने के पहले कई चीजों पर विचार किया गया है. इनमें द्विपक्षीय संबंधों की स्थिति, भारत में कनाडाई राजनयिकों की बहुत अधिक संख्या और हमारे आंतरिक मामलों में उनका निरंतर हस्तक्षेप जैसे पहलू शामिल हैं. इसको देखते हुए दोनों देशों में तैनात राजनयिकों की मौजूदगी में समानता होना चाहिए.

वियना संधि के अनुच्छेद 11.1 के तहत सुसंगत

भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से यह भी जानकारी सार्वजनिक की गयी है कि पिछले महीने कनाडा के साथ भारत ने राजनयिक उपस्थिति में समानता सुनिश्चित करने के तौर-तरीकों पर विस्तार से चर्चा की थी. ऐसे में राजनयिक उपस्थिति में समानता को लागू करने का फ़ैसला वियना संधि के अनुच्छेद 11.1 के तहत पूरी तरह से तर्कसंगत है. यहां किसी अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन का सवाल ही नहीं उठता है.

अमेरिका और ब्रिटेन के रुख़ से उठते गंभीर सवाल

कनाडाई प्रधानमंत्री ट्रूडो के हरदीप सिंह निज्जर की हत्या को भारत से जोड़ने की कोशिश और उस पर अंतरराष्ट्रीय गोलबंदी का प्रयास से भारत-कनाडा के द्विपक्षीय संबंध अब तक के सबसे निचले स्तर पर जा पहुँचा है. इससे भी ज़्यादा चिंता की बात पूरे मसले पर अमेरिका और ब्रिटेन का रुख़ है.

अमेरिका और ब्रिटेन की ओर से 18 सितंबर के बाद से ही लगातार ऐसे बयान आ रहे हैं, जो साफ दर्शाता है कि इस मसले पर वो दोनों ही देश कनाडा के साथ मज़बूती से खड़ा है. दोनों ही देश इस प्रकरण में भारत पर दबाब बनाते दिख रहे हैं. सितंबर में अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलीवन ने अपने बयानों से ज़ाहिर कर दिया था कि कनाडा से जुड़े इस मसले में अमेरिका अपने वैश्विक व्यापक रणनीतिक साझेदार भारत को कोई ख़ास छूट देने वाला नहीं है. उन्होंने कनाडा के प्रयासों का समर्थन करते हुए कहा था कि अमेरिका अपने सिद्धांतों के लिए अडिग रहेगा, चाहे इससे कोई भी देश प्रभावित क्यों नहीं होता हो. इसी तरह से ब्रिटेन की ओर से भी भारतीय सहयोग की अपेक्षा को लेकर लगातार बयान आ रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि ब्रिटेन भी कनाडा के पक्ष में खड़ा है.

भारत की भावनाओं और चिंता का ख़याल नहीं

राजनियकों को वापस भेजने के मामले में भी अमेरिका और ब्रिटेन की ओर तत्काल ही बयान आता है. यब बयान किसी भी तरह से इन देशों के साथ भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों की मज़बूती के हिसाब से सही नहीं माना जा सकता. भारत बार-बार कनाडा के आरोपों को बेबुनियाद बताते आ रहा है. इसके बावजूद न तो अमेरिका की ओर से और न ही ब्रिटेन की ओर से कोई ऐसा बयान आया है, जिससे यह लगे कि इन दोनों ही देशों को भारत की भावनाओं और चिंता से कोई ख़ास सरोकार है.

वियना संधि को लेकर बयान का कोई मतलब नहीं

राजनयिकों के मामले में अमेरिका की ओर से विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर का बयान भारत के लिए सही नहीं कहा जायेगा. अमेरिका ने राजनियकों के मामले में एक तरह से भारतीय फ़ैसले को ग़लत बताने की ही चेष्टा की है. मैथ्यू मिलर ने कहा है कि इस मामले से अमेरिका चिंतित है.

अमेरिका कहना है कि मतभेदों को सुलझाने के लिए वास्तविक तौर से राजनयिकों की ज़रूरत होती है. इसका हवाला देते हुए अमेरिका ने कहा है कि भारत कनाडाई राजनयिकों की संख्या कम करने पर ज़ोर नहीं दे. हर बार की तरह इस बार भी अमेरिका ने भारत से हरदीप सिंह निज्जर हत्याकांड में कनाडाई जांच में सहयोग करने की बात कही है. अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर मिलर का बयान है कि अमेरिका उम्मीद करता हैं कि राजनयिक संबंधों पर वियना संधि, 1961 के तहत भारत अपने ज़िम्मेदारियों को निभाता रहेगा, जिसमें कनाडा के राजनयिक मिशन में काम कने वालों को हासिल विशेषाधिकार और राजनयिक छूट दिया जाना शामिल है.

अमेरिका के तर्ज़ पर ही ब्रिटेन का भी बयान

कमोबेश अमेरिका के तर्ज़ पर ही ब्रिटेन का भी बयान आया है. ब्रिटिश विदेश मंत्रालय के बयान में भी घुमा-फिराकर वहीं बातें कही गयी हैं. ब्रिटेन ने भी अपने बयान में द्विपक्षीय मतभेदों को सुलझाने के लिए दोनों देशों में राजनयिकों की मौजूदगी से जुड़ा तर्क रखा है. इसके साथ ही ब्रिटिश विदेश मंत्रालय के बयान में स्पष्ट तौर से कहा गया है कि राजनयिकों के मामले में भारत सरकार के फ़ैसले से सहमत नहीं है. इस बयान में यह भी कहा गया है कि राजनयिकों को सुरक्षा देने वाली सुविधाएं और राजनयिक छूट को  एकतरफ़ा हटाया जाना, विएना संधि के मानकों के मुताबिक़ नहीं है. ब्रिटेन ने भी भारत से कनाडाई जाँच में सहयोग करने की अपेक्षा से जुड़ी बात कही है.

भारत पर जानबूझकर दबाव बढ़ाने की कोशिश

अमेरिका और ब्रिटेन के ताज़ा बयानों से ऐसा लगता है, जैसे कनाडाई राजनयिकों को कम करने के भारत सरकार के फ़ैसले को दोनों ही देशों ने अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन मान लिया है. भारत ने इस मसले पर अपना पक्ष पूरी दुनिया के सामने रख दिया है. उसके बावजूद अमेरिका और ब्रिटेन की ओर से इस तरह का बयान आना बेहद चिंताजनक है. कनाडा के मामले में अमेरिका और ब्रिटेन का रुख़ इसलिए भी चिंता बढ़ाने वाली है क्योंकि पिछले कुछ सालों में भारत का अमेरिका और ब्रिटेन दोनों के साथ ही द्विपक्षीय रिश्तों को नई ऊंचाई मिली है.

भविष्य में भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों पर असर

अमेरिका के साथ भारत का संबंध पिछले दो-तीन साल में मज़बूती से प्रगाढ़ होते दिखे हैं. अमेरिका की ओर से इस तरह का बयान आ चुका है कि 21वीं सदी में भारत उसका सबसे भरोसेमंद साझेदार है. बाइडेन प्रशासन के अधिकारी की ओर से जून में एक बयान भी आया था कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन का मानना है कि भारत से बेहतर कोई और साझेदार हो ही नहीं सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल जून में अमेरिका की पहली राजकीय यात्रा भी की थी.  यह किसी भारतीय प्रधानमंत्री की क़रीब 14 साल बाद अमेरिका की राजकीय यात्रा थी. इससे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नवंबर 2009 में अमेरिका की राजकीय यात्रा पर गए थे. अमेरिका हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, इस मामले में अमेरिका ने दो साल पहले ही चीन को पीछे छोड़ दिया था. इसके साथ ही इस साल जनवरी के आख़िर में शुरू हुई क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज (ICET) पहल से रक्षा और तकनीक के मामले में साझेदारी को भी नया आयाम मिलता दिखा है. द्विपक्षीय संबंधों के एक महत्वपूर्ण पहलू के तौर पर अमेरिका के लिए रक्षा क्षेत्र में भारत बड़ा बाज़ार की तरह है. वहीं इस दिशा में भारत की नज़र रूस के विकल्प के तौर पर अमेरिका पर है.

क्या अमेरिका सिर्फ़ अपना हित देखता है?

इंडो-पैसिफिक रीजन से लेकर अरब देशों तक में अमेरिका पिछले कुछ सालों से भारत के साथ भागीदारी बढ़ाने की नीति पर काम करते दिखा है. चाहे क्वाड (भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी) हो या फिर   I2U2 (भारत, इजरायल, यूएई और अमेरिका की साझेदारी) हो.., चाहे भारत-जापान-अमेरिका का  त्रिपक्षीय फोरम हो..अमेरिका की दिलचस्पी पिछले दो दशक में भारत के साथ संबंधों को मज़बूती देने पर रहा है. भारत और अमेरिका के संबंधों में जिस तरह से घनिष्ठता देखी जा रही है, इसके मद्द-ए-नज़र भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों को वैश्विक व्यवस्था में नई जुगल-बंदी के तौर भी पर देखा जाने लगा. लेकिन पिछले एक महीने में जिस तरह से कनाडा के मामले में अमेरिका का रुख़ रहा है, वो भारत के नज़रिये के लिए कतई सही नहीं माना जायेगा.

अमेरिका से प्रगाढ़ होते संबंधों पर सवाल

कनाडा का प्रकरण भारत-अमेरिका के बीच गहरे होते संबंधों पर भी एक तरह से सवाल खड़े करता है. सवाल उठता है कि क्या अमेरिका, भारत को सिर्फ़ एक बड़े बाज़ार के तौर पर ही देखता है. सवाल यह भी है कि वैश्विक व्यवस्था में भारत के बढ़ते रुतबे से अमेरिका की नींद गायब हो गयी है.

जिस तरह से दिसंबर 2022 से बतौर जी 20 अध्यक्ष भारत ने वैश्विक हितों को ध्यान में रखते हुए दुनिया के सामने मौजूद हर समस्या पर मुखरता से अपनी बातें पुर-ज़ोर तरीक़े से रखी है, क्या वो अमेरिका को रास नहीं आ रहा है. भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमेशा ही ग़रीब, अल्पविकसित देशों या'नी ग्लोबल साउथ देशों  के बुलंद आवाज़  बनते आया है. चाहे फूड सिक्योरिटी और सप्लाई चेन से जुड़ा प्रश्न हो, चाहे सुरक्षा और ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा हो, या फिर कार्बन उत्सर्जन से जुड़ा मसला हो.. भारत ने हमेशा ही ग्लोबल साउथ देशों के हितों की बात की है. इन मसलों पर भारत हमेशा से ही अमेरिका समेत दुनिया के तमाम विकसित देशों को कटघरे में खड़ा करते आया है.

रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत का रुख़ और अमेरिका

एक सवाल फरवरी 2022 से शुरू हुए रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के रवैये से भी जुड़ा है, जिसका कनाडा के मसले पर अमेरिकी रुख़ से गहरा संबंध हो सकता है. हमेशा की तरह भारत की ओर से इस युद्ध की भी निंदा की गयी,  लेकिन भारत ने कभी भी खुलकर रूस की आलोचना नहीं की है. इसके साथ ही अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशों के दबाव के बावजूद भारत ने रूस से कच्चे तेल को खरीदना जारी रखा. सिर्फड जारी ही नहीं रखा, बल्कि इस युद्ध के बाद कच्चे तेल के बाज़ार को ही भारत ने बदलकर रख दिया. युद्ध से पहले भारत ओपेक देशों से सबसे ज़्यादा कच्चा तेल खरीदता था. इस मोर्चे पर रूस की भागीदारी बहुत ही कम ही. युद्ध शुरू होने के बाद पश्चिमी प्रतिबंधों को दरकिनार करते हुए भारत ने रूस से कच्चे तेल की खरीद को बेतहाशा बढ़ा दिया. इसी का नतीजा है कि वर्तमान में भारत कच्चे तेल की अपनी ज़रूरतों का 60 फ़ीसदी हिस्सा अकेले रूस से आयात कर रहा है.

भारत का रूस को लेकर नज़रिया नहीं बदला

अमेरिका, ब्रिटेन समेत तमाम पश्चिमी देशों के प्रयासों के बावजूद भारत का रूस को लेकर नज़रिया नहीं बदला. पिछले डेढ़ साल में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाकर एक तरह से देखें तो भारत ने इस संकट की घड़ी में रूसी अर्थव्यवस्था को सहारा देने में अभूतपूर्व मदद की है. अब कनाडा के प्रकरण को लेकर जिस तरह का रवैया अमेरिका, ब्रिटेन के साथ कुछ और पश्चिमी देशों का है, उससे एक निष्कर्ष तो निकलता ही है. कहा जा सकता है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश ..रूस को लेकर भारत के रवैये  के जवाब के तौर पर कनाडा के प्रकरण को एक मौक़ा की तरह देख रहे हैं.  

ब्रिटेन क्यों बना रहा है भारत पर दबाव?

पिछले तीन साल में भारत को लेकर ब्रिटेन के रुख़ में भी बदलाव देखने को मिल रहा था. ब्रिटेन 2020 में यूरोपीय यूनियन से बाहर हुआ था. उसके बाद से वो भारत के साथ संबंधों को मज़बूत करने पर तेज़ी से काम करने को उच्छुक दिख रहा था. इसी का नतीजा है कि दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता (FTA) को लेकर भी बातचीत का सिलसिला तेज़ हुआ. कई दौर की वार्ता हो भी चुकी है. इस समझौते के तहत शामिल होने वाले 26 अध्यायों में से 24 अध्यायों पर सैद्धांतिक या व्यापक सहमति बन चुकी है. ऐसी संभावना है कि इस महीने के अंत में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की भारत की यात्रा के दौरान मुक्त व्यापार समझौते को लेकर कुछ बड़ा एलान हो सकता है. यूरोपीय यूनियन से बाहर होने के बाद से ब्रिटेन ख़ुद के वैश्विक व्यापार में विविधता लाने के मकसद से नए-नए साझेदारों की तलाश में है. इस मानक पर उसके लिए भारत का बड़ा बाज़ार सामरिक और कूटनीतिक मायने रखता है.

कनाडा प्रकरण पर जिस तरह से ब्रिटेन की ओर से लगातार बयान आ रहे हैं,  उन बयानों में भारत को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है, भारत पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से शांत रहने का दबाव बनाया जा रहा है, वो किसी भी कोने से द्विपक्षीय संबंधों के भविष्य के लिहाज़ से सही नहीं कहा जा सकता है. हालांकि मुक्त व्यापार समझौते के कुछ अनसुलझे बिंदुओं को लेकर भारत पर दबाव बनाने की कोशिश के तौर पर ब्रिटेन के रुख़ को देखा जा सकता है.

ट्रूडो के बयानों पर ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत

एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिस पर मौजूदा वैश्विक कूटनीतिक व्यवस्था में ध्यान देने पर सबका फोकस होना चाहिए. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की ओर से लगातार आ रहे उकसाने वाले बयानों पर अधिक ग़ौर करने की ज़रूरत है. जिस तरह से कनाडाई प्रधानमंत्री ट्रूडो कह रहे हैं कि भारत सरकार अपने रुख़ से कनाडा में रह रहे लाखों भारतीयों का जीवन कठिन बना रही है, वो एक तरह से चेतावनी जैसा है. दरअसल अंतरराष्ट्रीय समुदाय ख़ासकर अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों को ट्रूडो के इस बयान पर ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत है.

भारत की चिंता को गंभीरता से ले अमेरिका-ब्रिटेन

कनाडाई धरती का वर्षों से खालिस्तानी आंदोलन को शह देने और उकसाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. भारत ने कनाडा के सामने कई बार इस मसले को उठाया भी है. कनाडा सरकार से इस तरह की गतिविधियों को रोकने के लिए भी कई बार गुज़ारिश कर चुका है. भारत ने वर्षों से कई तरीके से इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान खींचने की कोशिश भी की है. इसके बावजूद न तो अमेरिका और न ही ब्रिटेन ने कभी कनाडा की सरकार को कटघरे में खड़ा किया है. दरअसल अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को भारत की इस चिंता को ज़्यादा गंभीरता से लेनी चाहिए.

भारत विरोधी माहौल बनाने का प्रयास सही नहीं

कनाडा पिछले एक महीने से भारत विरोधी माहौल बनाने का प्रयास कर रहा है. कनाडाई प्रयासों के पक्ष में जिस तरह से अमेरिका और ब्रिटेन खुलकर बयान दे रहे हैं, यह एक तरह से भारतीय विदेश नीति के लिए मुश्किल और परीक्षा की घड़ी है. हालांकि पिछले सात दशक से ऐसी मुश्किलों से निकलने का हुनर भारत ब-ख़ूबी जानता है. इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि अमेरिका पूरी दुनिया को सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने हितों के हिसाब से देखता है. शीत युद्ध के काल से लेकर वर्तमान तक इसके उदाहरण भरे पड़े हैं कि अपने हितों के लिए अमेरिका कुछ भी कर सकता है. दशकों तक पाकिस्तान को लेकर अमेरिकी नीति से भारत को भी ख़म्याज़ा भुगतना पड़ा है, यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए.

अमेरिका से ख़ास तौर से सतर्क रहने की ज़रूरत

अब कनाडा प्रकरण के ज़रिये अमेरिका अपने पुराने सहयोगियों के साथ मिलकर वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था से जुड़े अपने कौन से हित को साधना चाहता है, भारत को भविष्य में द्विपक्षीय संबंधों के विस्तार में इसका ख़ास ख़याल रखना होगा. भारत की स्थिति अब वहीं तक सीमित नहीं है कि उसे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में सिर्फ़ बड़ा बाज़ार के तौर ही देखा जाए और उस लिहाज़ से ही कोई भी देश द्विपक्षीय संबंधों को प्रगाढ़ करने की मंशा रखे. सिर्फ़ अपने हितों के लिहाज़ से नहीं, बल्कि भारतीय हितों के हिसाब से भी दुनिया के ताक़तवर मुल्कों को भारत का साथ देना होगा.  तभी भारत किसी ख़ास देश के साथ आपसी संबंधों को सही मायने में मज़बूती के मामले में नई ऊंचाई दे सकता है. कनाडा प्रकरण से एक बात साफ है कि आने वाले समय में भारतीय विदेश नीति के अभिन्न अंग के तौर पर इसकी झलक दिखने वाली है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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