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Opinion: सामूहिक नकल का रूप है भेड़ियाधसान

आखरी कलाम’ पढ़ते समय एक शब्‍द पर अटक गया. यह था- भेडि़याधसान. सर्वात्‍मन और बिल्‍लेश्‍वर आचार्य जी को लेकर कार से फैजाबाद जा रहे हैं. जिस सड़क से गुजरते हैं, वह कारसेवकों से भरी है. लोगों की भीड़, वाहनों की रेलमपेल, एक दूसरे से रगड़ते हुए आगे निकलने की होड़, घोर  भेडि़याधसान. यहीं अटक गया, तत्‍सम पांडे की तरह. यह शब्‍द बना कैसे. भेड़ों की किस विशेषता ने इस शब्‍द को रचा. खुदबुदाहट होने लगी दिमाग में. कई दृश्‍य आंखों के सामने आने लगे. भेड़ ही भेड़ दिखने लगीं चारों ओर. मैं गडेरिया बना उन्‍हें हांक रहा हूं और वे हैं कि मानती नहीं.  

भेड़ें मेरे लिए नई नहीं हैं. बचपन से उन्‍हें देखता आ रहा हूं, देशी भेड़ों को. सफेद, काली, मटमैली,चितकबरी भेड़ों को. गझिन बालों से लदी भेड़ों को, जाड़ों के बाद बालकटी भेड़ों को. हैं सब भेड़े हीं. सबका रूप एक है, बोली एक है, हरकता एक है, बस रंगों में थोड़ा अंतर है. इनसे बचपन में पहली बार तब मुलाकात हुई जब आलू के खेत को उर्वर बनाने के लिए मेरे बड़का बाबू ने- (हमारी तरफ ताऊ नहीं कहते, इसलिए बड़का बाबू को बड़का बाबू ही कह रहा हूं,) खेत में भेड़ें बैठाई थीं. कोई भ्रम नहीं होना चाहिए, भेड़ें हमारी नहीं थीं. वे पड़ोस के एक गांव के गड़ेरिये की थीं. सौ डेढ़ सौ रहीं होंगी. गड़ेरिये वास्‍तविक घुमक्कड़ होते हैं, सचमुच में चरवाहे. दिन भर घूमते हैं भेड़ों के साथ.

उनके पास एक लग्‍गी, लोटा-डोरी, छोटा सा चादर, गमछा जिसमें बंधा रहता है सतुआ और मौसम जाड़े का हुआ तो कंधे पर कंबल. वे पैरों में चप्‍पल नहीं खटनहीं पहनते हैं. खटनही खड़ाऊं की तरह ही होता है जिसमें चप्‍पल की बद्धी की तरह रस्‍सी लगी होती है. इससे उन्‍हें हर तरह की जमीन पर चलने की सुविधा हो जाती है. वे जब भेड़ों को लेकर निकलते हैं तो कितने दिन में लौटेंगे कहा नहीं जा सकता. जिस गांव से गुजरते हैं, दिन में  भेड़ों को चराते है, और रात में किसी के खेत में उन्‍हें बैठा देते हैं. बैठाना माने रात भर उसी खेत में रहना. इसे खेत में भेड़ पालना कहते हैं.

गड़रिये इसका पैसा लेते हैं. क्‍यों, क्‍योंकि जिस जगह ये भेड़े लेंड़ी और पेशाब करती हैं, उस जमीन की उर्वरता बढ़ जाती है. उनके मल-मूत्र की कीमत होती है. गड़ेरिये उन्‍हें रात भर खोद-खोद कर उठाते हैं और पूरे खेत में बैठाते हैं. भेड़ें दिनभर तरह-तरह की वनस्‍पतियां चरती हैं और रातभर बस लेंड़ी करती हैं. चरी हुई वनस्‍पतियों का अंश उनकी लेंड़ी और पेशाब में रहता है. इनमें कई तरह के रसायन और नाइट्रोजन के अंश होते हैं, जो खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं. खासतौर से सब्‍जी वाले खेतों में इनका उपयोग बहुत लाभकर होता है. बरसात में गड़ेरियों को दिक्‍कत आती है, क्‍योंकि उनके पास उस चराने के लिए जगह नहीं मिलती. तब वे किसी बाग में ले जाकर पेड़ों की पत्तियां तोड़कर चराते हैं. 

तो बचपन में जब मेरे खेत में भेड़ें बैठाई गई थीं तो उनके साथ दो गड़़ेरिये थे. दोनों एक ही परिवार के चाचा भतीजे थे. शाम होते ही उनकी भेड़ें खेत में आ गईं. रात में दोनों को सीधा (आटा, दाल और आलू) दिया गया. उन्‍होंने मिट्टी ही हांड़ी में दाल बनाई और उसी अहरे पर बाटी सेंकी और चोखा बनाया. उनकी भेड़ों में  कुछ सद्य:प्रसवा थीं. उनका दूध निकाला और उसी की खीर बनी. मैं छोटा था. कौतुहल बस रात में बड़का बाबू के साथ वहां गया तो मुझे भी भेड़ के दूध की खीर खाने को मिली. बिना चीनी की उस खीर का स्‍वाद अब तक याद है. 

विषयांतर हो गया. बात भेडि़याधसान की हो रही थी और उनके दूध की खीर खाने लगा. यदि आपने कभी भेड़ों के रेवड़ देखें हों तो यह नोटिस करेंगे कि भेड़ें कभी बिखरी नहीं चलतीं. वे एक दूसरे से सट कर चलती हैं. यदि वे चल रही हैं तो एक तिकोनी आकृति बन जाती है. कुछ भेड़ें आगे की ओर चलती हैं और सब उनसे सट कर आगे निकलने की होड़ सी करती चलेंगी. मैने एक बार एक गड़ेरिये से पूछा कि ऐसा  क्‍यों होता है. बकरी इस तरह नहीं करती, गायें,भैसें इस तरह नहीं चरतीं. वे फैल कर चरती हैं लेकिन भेड़ ऐसा नहीं करतीं. गड़ेरिये ने बताया कि भेड़ें बहुत ईष्‍यालु होती हैं.

जब एक भेड़ कहीं चरने लगती है तो दूसरी सोचती है कि कहीं ये पूरी घास न चर जाय या वह कोई अच्‍छी घास चर रही है और दूसरी उसके आगे आकर चरने लगती है. इसी तरह सभी सोचती हैं और एक दूसरे के आगे आ कर चरने लगती हैं. इस तरह का क्रम चलता रहता है.उनका यह भी स्‍वभाव होता है कि वे चरते समय सिर्फ जमीन ही देखती हैं. यदि वह पक्‍की सड़क पर हैं और चरने के लिए कुछ नहीं है तो भी वे इसी तरह एक दूसरे से रगड़ती हुई चलती हैं. एनसीआर में जब कभी राजस्‍थान के गड़ेरिये अपने झुंड लेकर आते हैं तो आप सड़कों पर भी उन्‍हें ऐसे ही चलते देख सकते हैं. ऐसा करते समय वे रास्‍ते से भटक भी जाती हैं.

चरते समय सिर्फ जमीन देखने की आदत के कारण यदि आगे वाली एक भेड़ खाई में गिर जाय तो सभी भरभरा कर उसी में गिर जाएंगी क्‍यों कि वे सिर्फ नीचे घास ही देखती हैं. वे यह नहीं सोच सकतीं कि आगे की भेड़ गिर गई है तो रुक जायें. यही भेडि़या धसान है. इसे भेड़ चाल भी कहते हैं. भेड़ की तरह चलना. एक भेड़ गिरी नहीं कि सभी उसके आगे आने के चक्‍कर में खाई या कुएं में गिर जाती हैं. इसी से गड़रिये उन्‍हें कुओं,खाईं आदि से दूर रखते हैं. 

भेड़ों की यह प्रवृत्ति सिर्फ भारत की भेड़ों में नहीं है,पूरी दुनिया की हर नस्‍ल की भेड़ें ऐसा ही करती हैं. पिछले दिनो मैं बीबीसी के ब्रॉडकास्‍टर,एडवेंचरर और लेखक बेन फोगले ( बेंजामिन मेर फोगले) का एक कार्यक्रम देख रहा था. उसमें वह आयरलैंड के एक सुदूर द्वीप पर अकेले रह रहे एक व्‍यक्ति से मिलने गया  था. वहां उस व्‍यक्ति ने भेड़ें पाल रखी  थीं. वे भेड़ें भी हमारे देश की भेड़ों की तरह ही आचरण कर रही थीं. इससे लगा कि दुनिया भर की भेड़ों के दिमाग एक ही तरह के होते हैं और उनमें  कोई खास जे‍नेटिक कोड होता है जिसके कारण उनका ऐसा आचरण हो जाता है. लोग कहते हैं कि भेड़ के दिमाग में ग्रे मैटर कम होता है,इसलिए वह तार्किक रूप से सोच नहीं पाती. भैसों में भी यह कम होता है. इसलिए वे सोच नहीं पातीं. गायों में ऐसा नहीं होता.

वे बहुत कुछ तार्किक होती हैं. गाय के आचरण में तार्किककता दिखती है. मुझे एक घटना याद आती है. मैं गांव में था. एक गाय को दूसरी गाय ने मारने के लिए दौड़ाया किसी कारण से. जिस रास्‍ते से पहली गाय भाग रही थी,उसी में एक बच्‍चे को उसकी मां ने धूप लेने के लिए खटोले में लिटाया था. लोग डरे कि गाय बच्‍चे को कुचल ने दे और हल्‍ला मचाने लगे. दोनों गायों ने उस खटोले को कूदकर पार किया और आगे बढ़ गईं. बच्‍चा सोता ही रहा. लोगों का कहना था कि यदि भैंस होती तो बच्‍चा कुचल जाता. इसीलिए बच्‍चों और छात्रों को गाय का दूध पीने की सलाह दी जाती है.

विकास विज्ञानी कहते हैं कि चौपायों में मस्तिष्‍क कम वि‍कसित होता है. चूंकि वे धरती के समानांतर चलते हैं इसलिए उनके मस्तिष्‍क में रक्‍त का प्रवाह अधिक होता है जिससे मस्तिष्‍क की कोशिकाएं रक्‍त से भरी रहती हैं और उनके सामान्‍य प्रक्रियाएं शिथिल हो जाती हैं. इसी से वे अधिक सोच नहीं पाते. वे सिर्फ सामान्‍य शारीरिक उद्दीपनों- आहार,निद्रा,भय मैथुन- का ही अनुभव करते हैं और उसी के अनुरूप व्‍यवहार करते हैं. वे सोच नहीं सकते. वे नकल तो कर सकते हैं,उसमें विवेक का इस्‍तेमाल नहीं कर सकते. यह गुण बस मनुष्‍य में है. लेकिन विकास के क्रम में जब वह चौपाया था तो वह भी बस पशु प्रवृत्ति की तरह ही आचरण करता था. जब मनुष्‍य दो पाया हुआ- होमो इरेक्‍टस- तो वह क्षैतिज न होकर उर्ध्‍वाधर चलने लगा.

दो पैर पर चलने से सिर पृथ्‍वी के समानांतर न हो कर शरीर के ऊपर हो गया. उसमें रक्‍त का प्रवाह कम हो गया क्‍यों कि अब हृदय को मस्तिष्‍क तक रक्‍त पहुंचाने में पृथ्‍वी के गुरुत्‍व के खिलाफ मेहनत करनी पड़ी. मस्तिष्‍क की कोशिकाओं में रक्‍त कम पहुंचने से उनमें रसायनिक क्रियाएं तेज हुईं और मनुष्‍य की चिंतन शक्ति विकसित हुई और बुद्धि उत्‍पन्‍न हुई. इस दोपायेपन ने ही मनुष्‍य को मनुष्‍य बनने में मदद की. उसने खड़े होकर चलने से दो हाथों का बेहतर उपयोग किया. यदि हमारे पूर्वज चार पैर पर ही चलते रहते तो आज भी विकास के क्रम में वहीं रहते जहां करोडों साल पहले थे. भेड़ दो पैरों पर खड़ी न होने और लगातार सिर नीचे किए रहने से अधिक कुंदबुद्धि हो गई और बिना सोचे समझे काम करने लगी और भेडि़याधसान शब्‍द का सृजन हुआ.  

 इसे मनोविज्ञान में सामूहिक नकल व्‍यवहार कहा जा सकता है. कभी-कभी यह मनुष्‍यों में भी देखने को मिलता है. आप किसी सड़क पर खड़े हो कर आसमान में देखने लगें तो दूसरे लोग भी ऐसा करने लगते हैं बिना सोचे समझे. किसी मेले या भीड़ भरी जगह में ऐसा प्राय: देखा जा सकता है. यही भेडि़याधसान है. दो पाया होने के बाद भी मस्तिष्‍क का उचित उपयोग न करने से ऐसा होता है.

यह सिर्फ भेड़ों के साथ ही नहीं है. नर भेड़ (भेड़ा) भी बुद्धि से कमजोर होते हैं. उनमें क्रोध की अधिकता होती है. वे बिना विचारे क्रोध करते हैं और दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं. भले ही इसमें उनका भी नुकसान हो जाय. भारतीय ज्‍योतिष के राशिचक्र की 12 राशियों में पहली राशि मेष ही है. मेष संस्‍कृत में भेड़ को ही कहते हैं. अंग्रेजी में इसे एरिस कहते हैं. फलित ज्‍योतिष में कहा जाता है कि जिस जातक का जन्‍म मेष लग्‍न में होता है या चंद्रमा मेष राशि में होता है उसमें भेड़ का स्‍वभाव आ जाता है. उसका कद छोटा,शरीर गठीला और ताकतवर होता है,स्‍वभाव जिद्दी होता है. क्रोध अधिक करता है. इस क्रोध में वह अपना भी नुकसान कर लेता है. लेकिन जिद्दी स्‍वभाव का एक लाभ यह भी है कि व‍ह जिस काम को हाथ में लेता है,उसे पूरा करके ही छोड़ता है. यह उसकी प्रगति का कारण भी होता है. गांवों में पहले शौकीन लोग भेड़ा पालते थे. इनका उपयोग उन्‍हें लड़ाने में किया जाता था.

भेड़ों की लड़ाई उस समय प्रमोद के साधन होते थे. जैसे मुर्गो की लड़ाई होती थी,वैसे ही भेड़ों की भी.मैने दोनों को देखा है. इसके लिए उन्‍हें खासतौर से तैयार किया जाता था. उन्‍हें खास गिजा दी जाती थी और लकड़ी के पटरे पर सिर से टक्‍कर मारने का अभ्‍यास कराया जाता था. जब दो भेड़ों की लड़ाई होती थी तो दोनों के सिर फट जाते थे और कमजोर भेड़े की मौत तक हो जाती थी. यह सिर्फ इसलिए कि उसके मस्तिष्‍क में बुद्धि नहीं होती है और वह अपने सामने वाले भेड़े को अपना दुश्‍मन मान लेता है. ( मेष राशि वालों से क्षमा  याचना सहित. हालांकि सिर्फ लग्‍न या राशि से किसी का पूरा स्‍वभाव नहीं बताया जा सकता. उसमें अन्‍य ग्रहों की दृष्टि, उनका साहचर्य और अन्‍य कारक भी देखे जाते हैं.)

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]        

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