बिहार में जातीय सर्वे (जिसे आम तौर से जातीय जनगणना के रूप में बताया जा रहा है) को लेकर पटना हाईकोर्ट का आदेश एक अगस्त को आया. हाईकोर्ट का आदेश बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए राहत लेकर आया है. हाईकोर्ट ने नीतीश सरकार के इस प्रयास पर लगाई गई अंतरिम रोक को हटाते हुए जातीय सर्वे के खिलाफ दायर सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया.


सेन्सस और सर्वे के बीच का अंतर


पूरा मामला सेन्सस और सर्वे के बीच के फ़र्क़ के इर्द-गिर्द घूमता रहा. पक्ष और विपक्ष की दलीलों में इसी बात को दोहराया गया. बिहार सरकार इसे सर्वे बताते रही और विरोध करने वालों का कहना है कि इसमें वो सब कुछ है, जिससे इसे जनगणना माना जाए. विरोध लेजिस्लेटिव काम्पिटन्स और निजता के अधिकार से संबंधित मौलिक अधिकार के हनन पर टिका था. हाईकोर्ट ने इन सभी पहलुओं की पड़ताल की और उसके बाद फैसला दिया.


संवैधानिक, कानूनी और सामाजिक पहलू


इस फैसले से भविष्य में नीतीश कुमार या बाकी दलों का क्या नफा-नुकसान राजनीतिक तौर से होगा, वो अलग मसला है. हाईकोर्ट के फैसले को संवैधानिक, कानूनी और सामाजिक पहलू से भी समझे जाने की जरूरत है. पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के विनोद चंद्रन की अध्यक्षता वाली पीठ के फैसले में कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार किया गया है. इस पीठ में दूसरे जज पार्थ सारथी थे.


हाईकोर्ट के आदेश में संवैधानिक और कानून पहलू के साथ ही सामाजिक पहलू का भी विस्तार से जिक्र है. हाईकोर्ट ने अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों, उन फैसलों में तमाम जजों की टिप्पणियों के साथ ही निजता के अधिकार पर भी विस्तार से जिक्र किया है. इसमें देश का संविधान बनाने में बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले और संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर की टिप्पणी का भी जिक्र किया गया है.



भविष्य के लिए बन सकती है नज़ीर


पटना हाईकोर्ट का ये फैसला अपने आप में अनोखा है. अगर हाईकोर्ट का ये फैसला सुप्रीम कोर्ट में भी टिका रह गया तो भविष्य के लिए ये फैसला एक नज़ीर बनेगी. सुप्रीम कोर्ट में मामला जाना तय है क्योंकि जिन याचिकाकर्ताओं को पटना हाईकोर्ट से झटका लगा है, वो इस मसले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने को तैयार है. अगर सुप्रीम कोर्ट पटना हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखती है, तो भविष्य में इस तरह का सर्वे करने का रास्ता बाकी राज्यों के लिए खुल जाएगा. लंबे वक्त से कई राज्यों की ओर से केंद्र सरकार से जाति गणना के आंकड़ों का खुलासा करने की मांग की जा रही है. हालांकि केंद्र सरकार ऐसा करने से इनकार करते रही है. अब पटना हाईकोर्ट के आदेश के बाद बाकी राज्यों को भी इसमें भविष्य की राह नजर आ रही है.



राजनीति के लिए इस्तेमाल बहस का मुद्दा


ये अलग बात है कि जाति आधारित गणना का राजनीतिक दल किस तरह से इस्तेमाल करते हैं क्योंकि भारत में जाति आधारित समीकरणों पर राजनीति करने का लंबा इतिहास रहा है. बिहार, उत्तर प्रदेश समेत उत्तर भारत के कई राज्यों में तो अभी भी जातीय राजनीति काफी हावी है. इस तरह की गणना से जातीय राजनीति को और हवा मिलने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. ये अलग बहस का मुद्दा है.   


राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र का मसला


पटना हाईकोर्ट से जो आदेश आया था, उसमें सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था कि बिहार सरकार जिस तरह का सर्वे करा रही है, उसमें सर्वे से ज्यादा जातिगत जनगणना यानी सेंसस का भाव आ रहा है. बिहार सरकार के कदम को चुनौती देने वाली याचिकाओं में इसी मुद्दे को उठाते हुए केंद्र और राज्यों के बीच संविधान में शक्तियों के बंटवारे का मुद्दा उठाया गया था. संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच उन विषयों का बंटवारा है, जिन पर संबंधित विधायिका  का अधिकार क्षेत्र है. बिहार सरकार के कदम को चुनौती देने वाली याचिकाओं में कहा गया था कि ये जनगणना या सेंसस ही है और ये पूरी तरह से सातवीं अनुसूची के तहत केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है. राज्य सरकार इस तरह का कोई भी जनगणना नहीं करा सकती है.


जनगणना का विषय केंद्र के अधिकार क्षेत्र में 


अनुच्छेद 246 के तहत सातवीं अनुसूची की पहली सूची (संघ सूची) के एंट्री नंबर 69 में जनगणना (CENSUS) का विषय है और ये पूरी तरह से केंद्र के अधीन है. संविधान के अनुच्छेद 73 के तहत जो शक्ति है, उसको आधार बनाकर केंद्र सरकार ही  सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) कर सकती है. नीतिगत फैसले के तहत केंद्र सरकार ने 1951 से बाकी जातियों को छोड़कर सेंसस में सिर्फ एससी और एसटी समुदाय के लोगों की गिनती करने का फैसला किया. जनगणना करने की शक्ति विशेषकर जाति, धर्म और मासिक आय का पता सिर्फ़ सातवीं अनुसूची के अंतर्गत संघ सूची के 19, 69, 81 और 94 एंट्री के तहत ही किया जा सकता है और ये संघ के अधिकार में है.


कास्ट सर्वे के विरोध में दलील


याचिकाकर्ताओं के वकील की ओर से ये भी दलील दी गई थी कि समवर्ती सूची के एंट्री नंबर  20, 23, 24, 30 और 45 के तहत राज्य सरकार कोई कदम उसी स्तर तक उठा सकती है, जहां तक केंद्र के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं हो. याचिकाकर्ताओं की ओर से इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ 1992 के केस का भी हवाला दिया गया. इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ ओबीसी के लिए 27% आरक्षण को संवैधानिक तौर से वैध माना था.


निजता के अधिकार का उल्लंघन


कास्ट सर्वे के विरोध में कहा गया कि निजता के उल्लंघन की वजह से ये अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकार का हनन है. बिहार सरकार के कदम के खिलाफ इसके लिए पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ के दोनों केस (2017 और 2019) के सात सितंबर 2018 में आधार से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला दिया गया था. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ 2017 के  मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आंतरिक हिस्से के रूप में मौलिक अधिकार स्वीकार किया था. कास्ट सर्वे के विरोध में दलील देने वालों ने कहा कि पुट्टास्वामी केस में कहा गया था कि धर्म, जाति और मासिक आय वो तीन आधार हैं, जो निजता के अधिकार के दायरे में आते हैं और बिहार सरकार के जाति आधारित सर्वे में इसकी जानकारी मांगी जा रही है.


निश्चित उद्देश्य और उचित दिशा नहीं


कास्ट सर्वे के विरोध में हाईकोर्ट में दी गई दलील में कहा गया था कि सर्वे की कवायद बिना किसी निश्चित उद्देश्य और उचित दिशा के शुरू किया गया और चलाया जा रहा है. इससे कोई ठोस परिणाम भी नहीं निकलने वाला है.


विरोध में ये भी तर्क दिया गया कि सरकारी नोटिफिकेशन के तहत जो 17 मदों में जानकारी मांगी जा रही है, उससे स्पष्ट है कि सरकार का मकसद जातिवार लोगों की संख्या को जानना है और इसका मकसद सिर्फ संकीर्ण राजनीतिक फायदा लेना है, न कि गरीब तबकों का विकास या उत्थान करना है.


स्वैच्छिक और जबरदस्ती का मुद्दा


कास्ट सर्वे का विरोध करने वालों का कहना था कि सर्वे स्वैच्छिक होता है, जबकि सरकारी दिशानिर्देशों के मुताबिक डेटा जमा करने में की दिशा निर्देश निरंकुश और मनमाने हैं. हर शख्स की जाति रिकॉर्ड करने के सरकारी प्रयास को व्यक्ति की गरिमा और सम्मान के खिलाफ भी बताया गया.


कास्ट सर्वे के पक्ष में दलील


बिहार के एडवोकेट जनरल पीके साही ने कास्ट सर्वे के पक्ष में राज्य सरकार की ओर से तर्क रखा. उन्होंने कहा कि सर्वे का स्पष्ट मकसद कमजोर तबके और हाशिये पर पड़े लोगों का उत्थान और विकास है. उन्होंने ऐसा सर्वे करने के राज्य सरकार के अधिकार और निजता के उल्लंघन से जुड़ी तमाम दलीलों को अनुमान और कल्पना बताया. बिहार सरकार का पक्ष रखते हुए उन्होंने ये भी जानकारी दी कि सर्वेक्षण का 80% काम हो गया है और जाति समेत सर्वेक्षण में पूछे गए तमाम विषयों के खुलासे को लेकर आपत्ति का एक भी उदाहरण सामने नहीं आया है.


राज्य के पास है सर्वे का अधिकार


एडवोकेट जनरल पीके शाही की ओर से कहा गया कि विधायी अधिकार की जहां तक बात है, इस सर्वे का संबंध संघ सूची के एंट्री 69 से है ही नहीं. उन्होंने 2011 की जनगणना का भी हवाला दिया कि उस वक्त केंद्र सरकार ने सेंसस के साथ ही जो सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की थी, उसका संबंध एंट्री 69 से नहीं था. केंद्र सरकार ने ये काम अनुच्छेद 73 के तहत मिले अधिकार के दायरे में कार्यकारी आदेश के जरिए किया था.


राज्य को समवर्ती सूची के तहत अधिकार


उन्होंने तर्क दिया कि जिस तरह से संघ सूची की एंट्री 94 के तहत केंद्र को जांच, सर्वे और आंकड़े जमा करने का अधिकार है, उसी तरह से राज्य सरकार को समवर्ती सूची की एंट्री 45 के तहत इसी सूची की एंट्री 20 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सर्वे करने का अधिकार है. सातवीं अनुसूची की तीसरी यानी समवर्ती सूची के तहत एंट्री 20 में आर्थिक और सामाजिक योजना का जिक्र है, जिस पर संसद के साथ ही राज्य विधानमंडल को भी कानून बनाने का अधिकार है. इस तर्क के जरिए उन्होंने कास्ट सर्वे के लिए राज्य विधायिका के अधिकार पर उठाए जा रहे सवालों को बेबुनियाद बताया.


ख़ास व्यक्तिगत विवरण नहीं पूछा गया है


जहां तक गोपनीयता या निजता के उल्लंघन का मसला था, एडवोकेट जनरल ने स्पष्ट किया कि कास्ट सर्वे का विरोध करने वालों ने कोर्ट को ये नहीं बताया है कि किस जानकारी के बाहर आने से निजता के अधिकार का हनन होगा. उनका कहना था कि पुट्टास्वामी और आधार दोनों ही केस में बायोमेट्रिक्स और आईरिस पहचान जैसी बहुत ही ख़ास व्यक्तिगत विवरण के बारे में कहा गया था कि इनका खुलासा नहीं होना चाहिए. 


इंदिरा साहनी मामले से जुड़े आदेश के खिलाफ नहीं


बिहार सरकार का पक्ष रखते हुए उन्होंने ये भी कहा था कि जाति जन्म से निर्धारित है ये किसी के पसंद का मामला नहीं है. कास्ट सर्वे इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के भी खिलाफ नहीं है. एडवोकेट जनरल का कहना था कि सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) के अलावा पिछड़े वर्ग और समुदाय के लिए राज्य सरकार की ओर से कल्याणकारी योजनाएं बनाई गई हैं. सर्वे के जरिए उन लोगों की पहचान कर योजनाओं का बेहतर लाभ पहुंचाना ही मकसद है.


निजता के उल्लंघन का सवाल नहीं


धर्म, जाति और आय को लेकर मांगी गई जानकारी के खिलाफ जो दलील दी गई थी, उसके जवाब में एडवोकेट जनरल का कहना था कि इन तीनों को ही अभिन्न व्यक्तिगत पहलू नहीं माना जा सकता है. इनका खुलासा निजता के उल्लंघन के दायरे में नहीं आता है. उन्होंने स्पष्ट किया कि सर्वे में किसी भी शख्स के लिए किसी भी बात की जानकारी देने की बाध्यता नहीं है. सरकार जो भी प्रयास कर रही है, वो किसी शख्स के अपनी मर्जी से ही जानकारी देने तक ही सीमित है. उन्होंने याचिकाकर्ताओं के उन दलीलों को भी निराधार बताया कि परिवार की महिला सदस्य अपनी फैमिली के बारे में जानकारी नहीं दे सकती. उन्होंने कोर्ट के सामने स्पष्ट किया कि पुरुष या महिला में से कोई भी परिवार के बारे में जानकारी दे सकते हैं.


डेटा जमा करने का काम आयोग नहीं कर सकता


के. कृष्ण मूर्ति बनाम भारत संघ 2010 के मामले का उदाहरण देते हुए एडवोकेट जनरल ने कहा कि पिछड़े समुदाय के उत्थान के लिए डेटा जमा करने का काम कोई आयोग नहीं कर सकता है. ये काम राज्य का है और उसके बाद इसे आयोग को उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि आयोग अपनी सिफारिशें कर सके.


कास्ट सर्वे का संघ सूची से मतलब नहीं


बिहार में कास्ट सर्वे का काम राज्य सरकार के दायरे में सांख्यिकी संग्रहण अधिनियम, 2008 के तहत नहीं आता है, इस दलील के जवाब में एडवोकेट जनरल का कहना था कि इस कानून के सेक्शन 3 (a)के तहत जो सीमाएं हैं, वो सिर्फ सातवीं अनुसूची की संघ सूची तक ही सीमित है और बिहार के कास्ट सर्वे का उस सूची से कोई मतलब नहीं है.


संसद के विधायी अधिकारों का अतिक्रमण नहीं


बिहार सरकार की ओर से कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 243D, 243T और अनुच्छेद 246 के तहत समवर्ती सूची (List III) की एंट्री 20, 23, 24 और 45 को एक साथ देखने से स्पष्ट हो जाता है कि कास्ट सर्वे राज्य सरकार करा सकती है. ये सेंसस एक्ट या संसद के विधायी अधिकारों का अतिक्रमण नहीं है. बिहार सरकार की तरफ से इस सर्वे को जस्टिफाई करने के लिए अनुच्छेद 15(4), 16(4), 38 और 39 के साथ ही संविधान के भाग IX और IXA और 102वें संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 342A के लाए जाने का हवाला दिया.


अब उन ग्राउंड समझ लेते हैं, जिनके आधार पर कास्ट सर्वे को चुनौती दी गई. पटना हाईकोर्ट ने अपने आदेश में उन ग्राउंड पर अलग-अलग पक्ष रखा है:



  • राज्य विधायिका (विधानमंडल) को इस तरह के सर्वे का अधिकार नहीं है, जो मूल रूप से जनगणना ही हो.

  • अगर अधिकार है भी तो नागरिकों से ऐसे डेटा जमा करने के लिए कोई वैधानिक लक्ष्य या मकसद नहीं घोषित किया गया है.

  • धर्म, आय और जाति जैसे निजी विवरण का खुलासा करने में दबाव या जबरदस्ती जैसा तत्व मौजूद है. यह जबरदस्ती व्यक्ति की गोपनीयता या निजता का अतिक्रमण है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मूल्यवान मौलिक अधिकार का हिस्सा है.

  • कास्ट सर्वे के नाम पर जो भी किया जा रहा है, वो आधार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में निर्धारित सिद्धांतों के खिलाफ है. ये प्रयास उस केस के आदेश में निर्धारित 3 मानकों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है. 


कास्ट सर्वे पर हो रहे खर्च पर सवाल


एक याचिका में ये भी सवाल उठाया गया है कि इस सर्वे पर जो बड़े पैमाने पर खर्च हो रहा है, वो कानून के मुताबिक नहीं है. आरोप लगाया गया है कि इसके लिए आकस्मिकता निधि (contingency fund) से 500 करोड़ रुपये लिए गए हैं, जो संविधान में निर्धारित प्रक्रिया के मुताबिक नहीं लिया गया है. हालांकि हाईकोर्ट ने खर्च वाले पहलू पर विचार करने से ये कहते हुए इनकार कर दिया कि विधानसभा से पूरक बजट पहले ही पारित हो चुका है.


राज्य विधानमंडल का अधिकार क्षेत्र (काम्पटिन्स)


इस मसले पर पटना हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 के तहत सामाजिक और आर्थिक तौर से पिछड़े वर्ग के लिए सकारात्मक कार्रवाई ( मुख्य तौर से आरक्षण) सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकारें, केंद्र से जनगणना से संबंधित जानकारी मिलने का इंतजार नहीं कर सकती हैं.


7वीं अनुसूची की लिस्ट III में  एंट्री 20, 23 और 45


हाईकोर्ट ने कहा कि सभी कानूनों के स्रोत अनुच्छेद 246 को अनुच्छेद 15 और 16 के साथ सातवीं अनुसूची के लिस्ट III के साथ पढ़ा जाना चाहिए. इस सूची की एंट्री 20 का संबंध आर्थिक और सामाजिक प्लानिंग से है और एंट्री 23 सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा; रोजगार और बेरोजगारी से संबंधित है. ऐसे में संसद से बने किसी कानून का विरोध किए बिना इन मसलों पर राज्य विधायिका को कानून बनाने की शक्ति है. हाईकोर्ट ने इस दिशा में समवर्ती सूची की एंट्री 45 को भी महत्वपूर्ण माना है, जिसके तहत संघ और राज्य सूची में शामिल किसी विषय के लिए आंकड़े जमा करने का प्रावधान है. हाईकोर्ट की इस बात से राज्य का दावा बनता है.


सरकार के पास होने चाहिए जातिगत आंकड़े


हाईकोर्ट ने बिहार सरकार की इस दलील को भी संतुष्ट करने वाला माना कि पिछड़े समुदाय के लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए उस समुदाय से जुड़े आंकड़े सरकार के पास होना चाहिए, जैसा कि इंदिरा साहनी केस में भी माना गया था.


बिहार सरकार के अधिकार क्षेत्र के दायरे में


पटना हाईकोर्ट ने आदेश में कहा है कि बिहार सरकार जो सर्वे कर रही है, वो उसके अधिकार क्षेत्र के दायरे में है क्योंकि अनुच्छेद 16 के तहत कोई भी सकारात्मक कार्रवाई या अनुच्छेद 15 के तहत लाभकारी कानून या योजना को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति के संबंध में प्रासंगिक डेटा के संग्रह के बाद ही डिजाइन और कार्यान्वित किया जा सकता है.


जनगणना शब्द की परिभाषा स्पष्ट नहीं


हाईकोर्ट ने ये माना कि न तो संविधान में और न ही सेंसस एक्ट 1948 में जनगणना शब्द की परिभाषा स्पष्ट किया गया है और सर्वे में जो भी जानकारी मांगी गई है, वो सेंसस शब्द के दायरे में आता हो ऐसा कोई विवरण नहीं है. हाईकोर्ट ने सांख्यिकी संग्रहण अधिनियम, 2008 का हवाला देते हुए कहा कि संघ सूची की एंट्री 69 के तहत सेंसस विषय का होना... किसी भी राज्य को अपने यहां कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए लाइव डेटा एकत्रित करने से नहीं रोकता है. हाईकोर्ट ने ये कहा है कि पैन इंडिया सेंसस सिर्फ केंद्र सरकार के द्वारा ही किया जा सकता है और सातवीं अनुसूची की पहली सूची में एंट्री 69 को शामिल किए जाने का यही कारण है.


कास्ट सर्वे का मकसद या लक्ष्य वैध


हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र के साथ ही कास्ट सर्वे कराने के पीछे के उद्देश्य से जुड़े पहलू पर भी गौर किया. हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के उस आपत्ति को खारिज कर दिया कि सर्वे से जुड़ी सरकारी अधिसूचना में मकसद को स्पष्ट होना चाहिए था. इस बात को मानते हुए हाईकोर्ट ने कमिश्नर ऑफ पुलिस बनाम गोर्धनदास धनजी 1952 के केस का हवाला देते हुए कहा कि अनुच्छेद 162 के तहत जारी अधिसूचना को उसके मकसद या निर्णय प्रक्रिया के बैकग्राउंड पर नहीं जांचा जा सकता है. हाईकोर्ट ने माना कि राज्य सरकार की ओर से एक मई 2023 के काउंटर हलफनामे में सर्वे के उद्देश्य के साथ ही सर्वे कराने के निर्णय लेने की प्रक्रिया को भी बताया गया है.


हाईकोर्ट ने इस बात को स्पष्ट किया है कि कास्ट सर्वे कराने से जुड़ी पॉलिसी को राज्य के दोनों सदनों से मंजूरी मिली है. उसके बाद राज्य सरकार ने कास्ट बेस्ड गणना करने का फैसला किया. हाईकोर्ट ने स्वीकार किया कि विधानमंडल से लिए गए फैसले पर सरकार अमल कर रही है, जिससे इसका उद्देश्य स्पष्ट होता है. इस बात के पक्ष में हाईकोर्ट ने सीएजी बनाम के. एस. जगन्नाथन 1986 केस में सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के साथ ही इंदिरा साहनी केस का भी जिक्र किया है.


हाईकोर्ट ने माना है कि सर्वे के तहत जिन 17 मदों में जानकारियां जुटाई जा रही हैं, उनसे निश्चित तौर से समुदायों में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन का पता चलेगा और ये आर्थिक स्थिति का भी एक संकेतक है.


अपनी इच्छा से जानकारी देना और गोपनीयता


इस मसले पर हाईकोर्ट ने माना कि अधिसूचना में भले ही अपनी इच्छा से जानकारी देने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है. साथ ही हाईकोर्ट ने ये कहा कि सर्वे का 80% काम पूरा हो गया है और इस दरम्यान एक भी ऐसी शिकायत नहीं मिली है, जहां जबरन या किसी दबाव से जानकारी ली गई हो. कोर्ट ने माना कि जिन 17 मदों में जानकारी मांगी जा रही है, उनमें से किसी पर विवाद नहीं किया जा सकता है.


हाईकोर्ट ने बिहार सरकार की उस दलील को भी सही माना है कि पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए जाति जानने की प्रक्रिया से शुरुआत की जा सकती है और कोर्ट ने कहा है कि इस बात को इंदिरा साहनी केस में संविधान पीठ ने भी स्वीकार किया था.


हाईकोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि नीतिगत मामला मानते हुए केंद्र सरकार ने जाति आधारित कोई भी गणना नहीं करने का फैसला किया. इसका ये मतलब नहीं है कि एंट्री 69 में सेंसस को शामिल किए जाने भर से ही राज्यों को इस तरह का काम करने से रोका जाए.


गोपनीयता के उल्लंघन का आधार नहीं


हाईकोर्ट ने बिहार सरकार की उस दलील को भी स्वीकार किया है कि इस सर्वे में नागरिकों से ऐसी कोई जानकारी नहीं मांगी जा रही है, जिससे आधार केस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक गोपनीयता का उल्लंघन माना जाए. इस तरह की जानकारी स्कूल में दाखिला, बैंक खाता खुलवाने या दूसरे कार्यों में देना आम बात है.


पुट्टास्वामी और आधार केस का जिक्र करते हुए हाईकोर्ट ने कास्ट सर्वे की प्रक्रिया में निजता या गोपनीयता के उल्लंघन की संभावनाओं को पूरी तरह से खारिज कर दिया. कोर्ट ने जोर-जबरदस्ती के स्कोप को नकारते हुए कहा है कि जो भी डेटा मांगा गया है, वो पब्लिक डोमेन में उपलब्ध हैं, लेकिन उन्हें अभी भी निकालना मुश्किल है.


हाईकोर्ट ने एक तरह से बिहार सरकार के उस दावे को स्वीकार किया है कि कास्ट सर्वे का मकसद पिछड़े वर्ग, एससी और एसटी समुदाय की पहचान कर उसके हिसाब से कल्याणकारी योजनाओं को बनाकर उन तक लाभ पहुंचाना है. हाईकोर्ट ने बिहार सरकार के दावा को स्वीकार करते हुए ये भी कहा है कि नेशनल हेल्थ सर्वे में इस तरह की जानकारी मांगी जाती है. 


आधार से जुड़ी जानकारी वैकल्पिक


जहां तक आधार से जुड़ी जानकारी है, हाईकोर्ट ने कहा है कि सर्वे के फॉर्मेट में उसे विकल्प के तौर पर रखा गया है, जो चाहे वो जानकारी दे सकता है और जो नहीं चाहे उसे देने की जरूरत नहीं है. इसके लिए किसी पर दबाव नहीं है. इसी आधार पर हाईकोर्ट ने माना है कि सुप्रीम कोर्ट से पूर्व में निर्धारित निजता के अधिकार के उल्लंघन का कोई स्कोप नहीं है. इसके लिए हाईकोर्ट ने पुट्टास्वामी केस में मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस चेलमेश्वर की टिप्पणियों का भी उल्लेख किया है.


हाईकोर्ट ने माना कि कास्ट सर्वे से , आधार से जुड़े जो तीन  मानक या कसौटी है, उन पर भी कोई आंच नहीं  पड़ रहा है. न तो इससे अनुच्छेद 14 का और न ही अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हो रहा है. साथ ही बिहार सरकार जो भी प्रक्रिया अपना रही है, वो राज्य की जनता की जरूरतों को पूरा करने के अनुपात में ही है और सरकार की कार्रवाई से किसी नागरिक के अधिकारों पर असर नहीं पड़ रहा है.


सुरक्षा चिंताओं पर हाईकोर्ट ने किया विचार


हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कास्ट सर्वे के जरिए जमा डेटा से जुड़ी सुरक्षा चिंताओं पर भी गौर किया. कोर्ट ने माना कि राज्य सरकार की ओर से जो भी बताया गया है कि उसके मुताबिक जाति आधारित सर्वे में फूल प्रूफ सिक्योरिटी मैकेनिज्म है और उसमें डेटा लीक की कोई गुंजाइश नहीं है.


फैसले के आखिर में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के कास्ट सर्वे की प्रक्रिया को पूरी तरह से वैध माना है और ये भी कहा कि ये करने का राज्य सरकार के पास पूरा अधिकार है. हाईकोर्ट ने कहा है कि राज्य सरकार ये कार्य 'न्याय के साथ विकास' प्रदान करने के वैध उद्देश्य के साथ कर रही है. इस प्रक्रिया में कोई जोर-जबरदस्ती नहीं है. निजता के अधिकार का कोई उल्लंघन नहीं है. इसके साथ ही पटना हाईकोर्ट ने कास्ट सर्वे को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]