बिहार सरकार ने महात्मा गाधी की जयंती के दिन जातिवार गणना सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किये. इसके बाद से जातिगत गणना को लेकर पूरे देश में राजनीतिक बयान-बाज़ी की बाढ़ आई हुई है. भविष्य में इससे बिहार के साथ ही देश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, इसको लेकर भी लोगों के बीच बहस तेज़ हो गई है.
इन सबके बीच चंद सवाल उठते हैं. क्या जातिवार गणना सर्वेक्षण से बिहार की तक़दीर बदल जायेगी. क्या देश में सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल बिहार में विकास की रफ़्तार थोड़ी बढ़ पायेगी. या इसके विपरीत क्या बिहार में जातिगत राजनीति, जो पहले से ही काफ़ी हावी है, को एक नया आयाम मिलेगा. नीतीश सरकार के इस क़दम से बिहार की राजनीति पर तो असर पड़ेगा ही, इसमें कोई संदेह नहीं है. इसके साथ ही यह पहलू प्रदेश के सामाजिक ताना-बाना से भी जुड़ा हुआ है. इसलिए भविष्य में प्रदेश के गाँव -देहातों पर भी इसका व्यापक असर पड़ेगा, इसकी भी भरपूर गुंजाइश है.
जातिगत गणना को लेकर राजनीति
सर्वेक्षण के नाम पर जातिगत गणना बिहार में हुई है, लेकिन इसकी दस्तक दूसरे राज्यों में भी सुनाई देने लगी है. ख़ासकर राजनीतिक दलों के बीच इसको लेकर उठा-पटक बढ़ गई है. राष्ट्रीय स्तर पर भी इस तरह की गणना करने की मांग विपक्ष की ओर से उठने लगी है.
आबादी के लिहाज़ से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में भी समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने बिहार की तर्ज़ पर ऐसी ही गणना की मांग की है. इन दलों का कहना है कि अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए न्याय का सिर्फ़ यही एक तरीक़ा है. कई-कई साल सत्ता में रहने के बावजूद राजनीतिक अस्तित्व के लिए जूझ रहे इन दलों को अब समझ में आया है कि जातिवार गणना से ही पिछड़े वर्ग का विकास हो सकता है, उन तबक़ों से जुड़े लोगों के साथ न्याय हो सकता है. राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर मेरा मानना है कि राजनीतिक दलों की इस सोच को हास्यास्पद ही कहा जा सकता है.
क्या कहता है जातिगत सर्वेक्षण?
यहाँ पर राष्ट्रीय स्तर पर या बाक़ी राज्यों में इसको लेकर मची हाए तौबा पर बात नहीं करेंगे. बिहार से जुड़े मसलों पर ही नज़र डालेंगे. पहले जाति सर्वेक्षण के आँकड़ों पर सरसरी निगाह डालते हैं. इसके मुताबिक बिहार की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ से कुछ ज़ियादा है.
सामाजिक तौर से जिस बात को केन्द्र बिंदु बनाकर सबसे अधिक राजनीतिक बयान-बाज़ी हो रही है, वो यह पहलू है कि प्रदेश की कुल आबादी में अन्य पिछड़ा वर्ग या'नी ओबीसी और अत्यंत पिछड़ा वर्ग या'नी ईबीसी की हिस्सेदारी 63% है. इसके मुताबिक़ बिहार में 36 फ़ीसदी आबादी के साथ ईबीसी सबसे बड़ा सामाजिक वर्ग है. उसके बाद 27.13% आबादी के साथ ओबीसी का नम्बर आता है.
अनुसूचित जाति (SC)कुल आबादी का 19.65% हैं. अनुसूचित जनजाति (ST) की आबादी क़रीब 22 लाख या'नी 1.68% है. इस जातिगत सर्वेक्षण से एक बात स्पष्ट है कि बिहार में ओबीसी, ईबीसी, एससी और एसटी मिलकर क़रीब 85 फ़ीसदी हो जाते हैं. या'नी सर्वण कहे जाने वाले जातियों और अन्य समुदायों की संख्या 15 फ़ीसदी के आस-पास है.
इस जाति सर्वेक्षण में बताया गया है कि बिहार में हिंदू आबादी 81.99% है. वहीं मुस्लिम आबादी 17.70% है. ईसाई, सिख, जैन और अन्य धर्मों को मानने वाले लोगों की संख्या बिहार में बेहद कम है. इन धर्मों के लोग बिहार की आबादी में आधा फ़ीसदी से भी कम हैं.
जातिवार यादव संख्या बल में सबसे अधिक
जाति सर्वेक्षण में जिस बात की सबसे अधिक चर्चा हो रही है, वो है जातिवार आंकड़े. इस सर्वे के मुताबिक बिहार में सबसे ज़ियादा आबादी वाली जाति यादवों का तबक़ा है, जो ओबीसी समूह में शामिल हैं. यादव जाति के लोग प्रदेश की कुल आबादी का 14.27% है. रविदास-चर्मकार 5.25%, कुशवाहा 4.21%, मुसहर 3%, कुर्मी 2.87%, तेली 2.81%, मल्लाह 2.6%, बनिया 2.31% और कानू 2.21% हैं.
जिन जातियों को सवर्ण कहा जाता रहा है, उनमें ब्राह्मणों की संख्या 3.65%, राजपूतों की आबादी 3.45%, भूमिहारों की जनसंख्या 2.86% और कायस्थों की आबादी क़रीब 0.6% है. या'नी इन चारों जातियों की आबादी बिहार में महज़ 10.56% है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि सामाजिक तौर से संख्या बल यादवों का सबसे ज़ियादा है. इनकी संख्या प्रदेश में ब्राह्मण,राजपूत, भूमिहार और कायस्थ इन चारों की संख्या को मिला देने से भी अधिक है.
आरजेडी को सबसे अधिक लाभ की उम्मीद
बिहार में यादव जातिवार संख्या बल में सबसे अधिक हैं, इसका अनुमान तो पहले से ही था. हालांकि 1931 के बाद सरकारी तौर पर कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं था. अब जब ताज़ा ऑंकड़ें आये हैं, तो कहा जा सकता है कि इससे भविष्य में आरजेडी को अपनी राजनीति चमकाने में ज़ियादा मदद मिलेगी. 1990 के दशक से ही यादव समुदाय को लालू यादव की पार्टी आरजेडी का कोर वोट बैंक माना जाता है. 2005 से कई सालों तक सत्ता से दूर रहने के बावजूद यह वोट बैंक आरजेडी से मज़बूती से जुड़ा रहा है. अब यादव समुदाय पर सरकारी तौर से बिहार में सबसे अधिक आबादी वाली जाति होने का तमग़ा लग चुका है. इससे आरजेडी को सबसे ज़ियादा फ़ाइदा होगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है.
जाति के इर्द-गिर्द घूमती बिहार की राजनीति
अब बात करते हैं कि इन ऑंकड़ों से बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से ही हावी रही है. देश के अन्य राज्यों में भी राजनीति पर जातिगत भावनाओं और ध्रुवीकरण का असर रहा है. फिर भी जिस रूप में बिहार में इसका स्वरूप संविधान लागू होने के बाद से ही रहा है, वैसा प्रभाव किसी और राज्य में नहीं रहा है. एक और पहलू है जो जातिगत राजनीति को लेकर बिहार को तमाम अन्य राज्यों से अलग करता है. बिहार में राजनीति पर जातिगत समीकरणों का दबदबा कुछ इस कदर रहा है कि पिछले सात दशक से विकास के पैमाने पर यह प्रदेश लगातार पिछड़ते चला गया है. उसके बावजूद राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.
दशकों से सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति
प्रदेश के वंचित समुदाय या कहें जातियों को उनका हक़ और न्याय दिलाने के नाम पर ही यहां तमाम दलों की सियासत दशकों से चमकती रही है. नीतीश सरकार ने सर्वेक्षण के नाम पर जो जातिगत गणना करवाया है, सैद्धांतिक तौर से उसकी ज़रूरत के पीछे जेडीयू और आरजेडी यही दलील देते आ रही है कि इससे प्रदेश के पिछड़े, अत्यंत पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जातियों के कल्याण और विकास में मदद मिलेगी. संविधान के लागू होने के बाद हुए पहले विधान सभा चुनाव से ही अधिकांश समय बिहार की सत्ता पर कांग्रेस या लालू प्रसाद यादव परिवार या नीतीश कुमार का ही क़ब्ज़ा रहा है.
बीच में कुछ समय 5 मार्च 1967 से 28 जनवरी 1968 के बीच महामाया प्रसाद सिन्हा की अगुवाई में जन क्रांति दल की सरकार थी. वहीं एक फरवरी 1968 से लेकर 22 मार्च 1968 के बीच बी.पी मंडल की अगुवाई में शोषित दल की सरकार थी. फिर 22 दिसंबर 1970 से दो जून 1971 के बीच कर्पूरी ठाकुर की अगुवाई में सोशलिस्ट पार्टी की सरकार रही थी. इसके अलावा 24 जून 1977 से लेकर 17 फरवरी 1980 के बीच जनता पार्टीकी सरकार रही थी,जिसमें कर्पूरी ठाकुर और राम सुंदर दास बारी-बारी से मुख्यमंत्री रहे थे. इन सबको मिला दें तो साढ़े चार साल की अवधि को छोड़कर कांग्रेस, लालू प्रसाद यादव परिवार या नीतीश कुमार ही बिहार की सत्ता पर क़ाबिज़ रहे हैं.
1990 से बिहार में राजनीति का नया अध्याय शुरू
बिहार की राजनीति में 10 मार्च 1990 से एक नये अध्याय की शुरूआत हुई थी. आज़ादी के बाद से अधिकांश समय तक बिहार में कांग्रेस शासन में रही थी. मंडल कमीशन के दौर में बिहार की राजनीति ने नई करवट ली. मार्च 1990 से प्रदेश में लालू प्रसाद यादव की सत्ता की शुरूआत हुई. उसके बाद अगले 15 साल तक बिहार में लालू यादव परिवार और उनकी पार्टी आरजेडी (1997 से पहले जनता दल) का शासन रहा. उसके बाद फिर नीतीश कुमार का युग शुरू हुआ. बिहार में नवंबर 2005 से जेडीयू नेता नीतीश कुमार की सत्ता का सफ़र शुरू हुआ. वो सिलसिला अभी भी जारी है. यानी पिछले 33 साल से बिहार में लालू परिवार या नीतीश राज ही रहा है. मज़े की बात तो यह है कि नवंबर 2005 से अगस्त 2022 तक नीतीश की सरकार में तक़रीबन 12 साल बीजेपी भी हिस्सेदार रही है. अभी भी मौजूदा बिहार सरकार में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस शामिल हैं.
सामाजिक न्याय का नाम और सत्ता पर क़ब्ज़ा
चाहे नीतीश हो या लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी या फिर ऊपर जिन नामों की चर्चा की गई है, इसके साथ ही कांग्रेस के कई चेहरे.... ये सभी प्रदेश के मुख्यमंत्री इस दावे के साथ बने कि उनका मकसद यहां के वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय दिलाकर बिहार को विकास की राह पर ले जाना है. सात दशक बीत जाने पर भी बिहार के लोगों की क़िस्मत नहीं बदली. प्रदेश के पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जातियों को न्याय महीं मिल सका.
अब वहीं पार्टियां इसके लिए जातिगत गणना का बनाना बनाकर बिहार की राजनीति में एक और नया दौर शुरू करना चाहती हैं. इसके आधार पर सिर्फ़ भावनात्मक माहौल बनाकर इन दलों की कोशिश है कि प्रदेश की सत्ता पर लंबे वक़्त तक बना रहा जाय. अगर इनकी दलों की मंशा ऐसी नहीं होती तो, एक प्रदेश के लोगों की हालत बेहतर बनाने के लिए 7 दशक का वक़्त कोई कम समय नहीं होता है. हर वर्ग के विकास और समृद्धि की नीयत से अगर पिछले 7 दशक से तमाम राजनीतिक दलों ने काम किया होता, तो आज विकास के हर पैमाने पर देश में सबसे निचले पायदान वाला राज्य बिहार नहीं होता.
बिहार में जाति फैक्टर कितना हावी?
बिहार की राजनीति में जाति फैक्टर कितना हावी है, ये इससे समझा जा सकता है कि 21वीं सदी का तीसरा दशक होने के बावजूद यहां विधान सभा और कमोबेश लोक सभा चुनाव में जातिगत गोलबंदी को ध्यान में रखकर ही कोई सियासी गठबंधन किया जाता है.
राजनीति की बात को कुछ समय के लिए अलग कर दें, तो अभी भी बिहार में सामाजिक स्तर पर जातिगत मनमुटाव और संघर्ष व्यापक पैमाने पर मौजूद है. ऐसे तो इस स्थिति को कोई भी छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों में भी महसूस कर सकता है, लेकिन प्रदेश के गाँव -देहातों में जातिगत मनमुटाव और संघर्ष का स्वरूप खुले तौर से कोई भी अभी भी अनुभव कर सकता है. शायद ही यहां कोई ऐसा गाँव होगा, जहाँ जाति के नाम पर हुए विवाद को लेकर दो-चार मुकदमे दर्ज न हों. यह अभी भी बिहार की सच्चाई है. इससे इंकार करने का मतलब यही हो सकता है कि या तो बिहारी समाज की वास्तविकता का भान न हो..या फिर जान बूझकर इस पहलू से आँखें मूँद ली जायें.
जातीय प्रभुत्व को लेकर नये सिरे से बहस
जातिगत सर्वेक्षण से मिले आँकड़ों से किस दल को भविष्य में राजनीतिक लाभ कितना होगा, इस बहस से बाहर जाकर भी सोचने की ज़रूरत है. इतना तो तय है कि पहले से ही जातीय भावनाओं के द्वंद्व में उलझे प्रदेश के लोगों में एक बार फिर से संख्या बल के आधार पर जातीय प्रभुत्व को लेकर नये सिरे से बहस शुरू हो जायेगी. अंदर-अंदर ही प्रदेश के अधिकांश लोगों में जो जातीय विरोध की भावना सुलगते रहती है, उस भावना को इस सर्वे के ज़रिये और शह मिलने की संभावना निश्चित तौर से बढ़ गई है. गाँव-देहातों में इसका सबसे ज़ियादा प्रभाव देखने को मिलेगा. यह स्थिति बिहार के भविष्य के लिए सही नहीं कही जा सकती है.
विकास से जुड़े मानकों पर कहाँ है बिहार?
अब विकास की बात करें, तो बिहार की स्थिति कितनी दयनीय है, यह बात किसी से छिपी नहीं है. अगर दक्षिण भारतीय राज्यों के साथ ही अन्य राज्यों से भी तुलना करें, तो कानून व्यवस्था बिहार में कभी बेहतर रही ही नहीं है. इसके साथ ही विकास और समुद्धि के हर पैमाने पर जितने भी राष्ट्रव्यापी सर्वे हों, उन सबमें बिहार हमेशा ही नीचे ही स्थान पाते रहा है.
आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन बिहार की नियति
सियासी दांव-पेंच में माहिर नीतीश पिछले 17 साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने में कामयाब होते रहे हैं, लेकिन बिहार को आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन से निकालने में कामयाब नहीं हो पाए हैं. किसी भी राज्य का कायाकल्प करने के लिए 17 साल का समय काफ़ी होता है. उसके बावजूद बिहार अभी भी देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल है. अर्थव्यवस्था की कोई भी कसौटी हो, बिहार नीचे से ही किसी पायदान पर खड़ा होता है.
चाहे गरीबी, चाहे साक्षरता हो..17 सालों में नीतीश भी बिहार को उस टैग से बाहर नहीं निकाल पाए, जो टैग बिहार के ऊपर 90 के दशक में था. बिहार में ऐसा कोई सेक्टर नहीं है, जिसको लेकर ये कहा जाए कि वो भारत के किसी राज्य की तुलना में बेहतर हो. इसके लिए किसी आंकड़े की जरूरत नहीं है. जो लोग वहां रह रहे हैं, वे इसे रोज महसूस करते हैं. रोजगार के अभाव से जुड़ा दर्द और पलायन का दर्द दशकों से बिहार के लोग महसूस कर रहे हैं.
शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार को लेकर सवाल
साक्षरता के मामले में बिहार देश में आज भी सबसे निचले स्थान पर है. शिक्षा और शैक्षणिक माहौल का स्तर लगातार गिरते जा रहा है. उच्च शिक्षा की हालत तो और भी खराब है. सरकारी अस्पतालों का हाल कितना बुरा है, ये तो वहां रहने वाले लोग ही बेहतर जानते हैं. बिहार दशकों से गरीबी और भूख मिटाने, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार, उद्योग नवाचार और बुनियादी ढांचे और जलवायु कार्रवाई के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्य के रूप में शामिल रहा है.
बिहार में बेरोजगारी दर 18.8% तक पहुंच गया है. जम्मू-कश्मीर और राजस्थान के बाद उच्चतम बेरोजगारी दर के मामले में बिहार तीसरे नंबर पर है. प्रदेश में उद्योग न के बराबर है. प्रदेश के जीडीपी में 30 से 35% हिस्सा अभी भी बिहार से बाहर काम करने वाले लोगों की ओर से भेजी हुई राशि का है. प्रदेश के बाकी हिस्सों की क्या बात करें, राजधानी पटना में चंद वीआईपी इलाकों को छोड़ दें, तो सड़क, नाला से लेकर दूसरे ज़रूरी बुनियादी सुविधाओं का क्या हाल है, ये वहां के निवासी ही जानते हैं.
चुनावी समीकरणों को साधने पर रहा है ज़ोर
बिहार के हर लोगों तक बेहतर शिक्षा, बेहतर मेडिकल सुविधा, बेहतर रोजगार पहुंचाने पर किसी भी दल का ख़ास ज़ोर कभी नहीं रहा है. बिहार में अधिकांश समय राजनीतिक दलों का मुख्य ज़ोर जाति से जुड़े चुनावी समीकरणों को साधने पर रहा है. इसके लिए राजनीतक दल या सरकार बाहुबली, आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों और हत्या तक के मामलों में सज़ायाफ़्ता लोगों को शह देने या उनके मुताबिक़ नियम क़ा'इदा में हेर-फेर करने में भी कोई गुरेज़ नहीं करते हैं. अनंत सिंह, आनंद मोहन, शहाबुद्दीन, सूरजभान सिंह, सुनील पांडे, प्रभुनाथ सिंह, राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव, काली पांडेय, राजन तिवारी, रामा किशोर सिंह, मुन्ना शुक्ला समेत इस तरह के तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं.
राजनीतिक दलों से सवाल करने की ज़रूरत
नीतीश कुमार से सवाल करने की ज़रूरत है कि बिहार के पिछड़े और अत्यंत पिछड़े वर्गों तक शिक्षा से लेकर चिकित्सा से जुड़ी हर बुनियादी सेवा पहुंचाने में पिछले 17 साल में आपको किसने रोका था. कौन से आँकड़े इसमें बाधा बन रहे थे.
कुछ इसी तरह का सवाल आजेडी से भी पूछा जाना चाहिए कि 1990 से 2005 तक ऐसा करने में कौन सी बाधी सामने आ रही थी. इसके साथ ही नीतीश सरकार में फ़िलहाल हिस्सेदार और कई वर्षों तक बिहार की सत्ता को संभालने वाली कांग्रेस को भी इन सवालों का जवाब जनता के सामने पेश करना चाहिए.
इतना ही नहीं, बीजेपी के तमाम नेता नीतीश सरकार के इस जाति सर्वेक्षण में तमाम तरह के नुक़्स निकाल रहे हैं. उनके नेताओं से भी पूछा जाना चाहिए कि जब वे सत्ता में थे तो बिहार में इस जाति सर्वे के पक्ष में थे. यही नहीं, क़रीब 12 साल बीजेपी भी बिहार में नीतीश सरकार में शामिल रही है. इस लिहाज़ से बीजेपी से भी ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि प्रदेश के वंचित वर्गों के विकास और सामाजिक उत्थान के लिए इस दरम्यान उनकी ओर से क्या-क्या किया गया. किसी राज्य का कायाकल्प करने के लिए 12 साल का वक़्त भी काफ़ी होता है. इसलिए बीजेपी भी बिहार की बदहाली से जुड़े सवालों से भाग नहीं सकती है.
सात दशक से जातिगत राजनीति का खेल
समाज चाहे कोई भी हो, तबक़ा चाहे कोई भी हो, बुनियादी सुविधाओं का कितना भी अभाव हो..अगर दो चीज़ किसी भी वर्ग तक पहुंचाने को लेकर कोई भी सरकार कटिबद्ध हो जाय..तो उस वर्ग के कल्याण के लिए जाति से जुड़े किसी आँकड़े की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. ये दो चीज़ हैं..उच्च गुणवत्ता से पूर्ण प्राथमिक शिक्षा और बेहतर प्राथमिक चिकित्सा सेवा. समुदाय कितना भी पिछड़ा हो, अगर ये दो चीजें मुहैया कराने पर किसी सरकार भी का ज़ोर रहेगा, तो उस समुदाय का भविष्य सुनहरा बनने से कोई रोक नहीं सकता है. इसे वास्तविकता का चोला पहनाने के लिए सरकार को जाति से जुड़े ऑंकड़ों का मोहताज होना पड़े, तो इसे दलगत फ़ाइदा से जुड़ा राजनीतिक प्रपंच ही कहा जा सकता है.
बिहार में पिछले 7 दशक से जातिगत राजनीति का जो खेल चल रहा है, प्रदेश के विकास की सबसे बड़ी बाधा वही है. बिहार के लोगों में जातिगत राजनीति का मोहमाया कुछ इस कदर बनाकर रखा गया है कि विकास को दर-किनार करना राजनीतिक दलों के लिए आसान हो जाता है. पार्टियों के कर्ता-धर्ता को लगने लगता है कि जाति एक ऐसा फैक्टर है, जिसमें लोगों को उलझाकर रखने से विकास से जुड़े सवाल चुनाव के समय उन्हें परेशान नहीं करेगा. पिछले 70 साल से बिहार में यही हो रहा है.
जातीय मनमुटाव को बल मिलने की आशंका
बिहार जैसे राज्य में अगर किसी सरकार या तमाम पार्टियों को आधिकारिक जातिगत आँकड़े मिल जाए तो इसकी संभावना और आशंका हमेशा बनी रहेगी कि हर दल उस लिहाज़ से अपने राजनीतिक एजेंडे को तरजीह देगा. ये किसी भी तरह से बिहार के विकास और बेहतर सामाजिक माहौल के लिए सही नहीं हो सकता है. पहले से ही बिहार जातिगत रंजिश से सुलगते रहने वाला राज्य रहा है. अब जातिगत गणना के आँकड़े सामाजिक खाई और जातीय मनमुटाव को और बढ़ाने वाले ही साबित हो सकते हैं. राजनीतिक दलों के साथ ही सामाजिक विश्लेषकों को यह अच्छे से पता है कि किसी भी वर्ग का विकास करने के लिए किसी आँकड़े की ज़रूरत नहीं होती है, इच्छाशक्ति की ज़रूरत होती है.
जातियों में उलझे बिहार में विकास की आस
दशकों से विकास की आस में बिहार के लोगों की निगाहें राजनीतिक दलों और सरकार पर टिकी हैं. लेकिन अलग-अलग दलों के सत्ता में आने और राजनीतिक दलों के तमाम वादों के बावजूद अभी भी बिहार की वास्तविकता..विकास की बाट जोहते लोग ही हैं. यह सौ फ़ीसदी सच है कि जातियों में उलझे बिहार में विकास की आस के साथ जीने को लोग मजबूर हैं. इसका एक बड़ा कारण राजनीति से भी जुड़ा हुआ है. यहाँ पिछले 7 दशकों से तमाम दलों की कोशिश रही है कि राजनीति को जातियों के इर्द-गिर्द उलझाकर रखा जाय. इसी वज्ह से भले ही प्रदेश के लोग विकास की चाहत रखते हों, लेकिन चुनाव के वक़्त वोटिंग में जाति फैक्टर उन पर सबसे ज़ियादा हावी हो जाता है. यह फैक्टर विधान सभा चुनाव में चरम पर होता है.
विकसित राज्यों की पंक्ति में कब शामिल बिहार?
बिहार का भविष्य कितना सुनहरा होगा और यह देश के बाक़ी विकसित राज्यों की पंक्ति में कब शामिल होगा, इसकी गारंटी सभी राजनीतिक दलों को देनी चाहिए. प्रदेश के लोगों को इस पर समय सीमा तय करने के बारे में राजनीतिक दलों से बार-बार सवाल पूछने की ज़रूरत है. महज़ रिपोर्ट बनाने या जातिगत सर्वेक्षण से सामाजिक न्याय की जीत सुनिश्चित नहीं होने वाली है. न ही इससे अत्यंत पिछड़े वर्गों के लिए प्रगति और समृद्धि के नये रास्ते खुलने वाले हैं.
जितनी आबादी, उतना हक़..जैसे नारे जब तक राजनीतिक लाभ के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल होते रहेंगे, तब तक वंचित वर्गों का सामाजिक और आर्थिक उत्थान संभव नहीं है. प्रदेश के लोगों को, प्रदेश के मतदाताओं को जाति आधारित पार्टी कार्यकर्ता बनाने की राजनीतिक दलों की किसी भी तरह की साजिश या कोशिश से बाहर निकलकर नागरिक बनने की ज़रूरत है. ऐसा होने पर ही बिहार का भविष्य सुनहरा हो सकता है. तभी बिहार भी बाक़ी विकसित राज्यों की तरह अपेक्षाकृत समृद्ध बन सकता है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]