बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने राज्य में जातिगत आधारित जनगणना कराने का फैसला लेकर एक तरह से भानुमति का पिटारा खोल दिया है क्योंकि अब गैर बीजेपीशासित राज्यों को भी इस पर आगे बढ़ने का मौका मिल गया है.इसका असर सिर्फ राजनीति पर ही नहीं बल्कि सामाजिक,आर्थिक और नौकरियों में मिलने वाले आरक्षण पर भी होगा,जो पूरे देश की तस्वीर बदलकर रख देगा.शायद इसीलिए 1931 में आखिरी बार हुई जातीय जनगणना होने और देश के आजाद होने के बाद केंद्र में बनी किसी भी सरकार ने इस चिंगारी को अपनी हालत पर ही छोड़ दिया था,ताकि वो किसी बड़ी आग में न बदल जाये.कर्नाटक,तेलंगाना के बाद अब बिहार का ये फैसला केंद्र सरकार को मजबूर करेगा कि वह जल्द होने वाली राष्ट्रीय जनगणना में जातियों को भी शामिल करें.


दरअसल, जातिगत जनगणना एक ऐसा मुद्दा है जिस पर बीजेपी खुलकर कुछ कहने की स्थिति में नहीं है.हालांकि बीजेपी की बिहार इकाई के कुछ नेता  जातिगत जनगणना करवाने के पक्ष में रहे हैं लेकिन पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व ऐसा नहीं चाहता. इसकी बड़ी वजह ये भी है कि इससे ये पता लग जायेगा कि देश में कितनी अगड़ी, कितनी पिछड़ी जातियों हैं,कितने ओबीसी हैं और उनमें भी कितने अति पिछड़े वर्ग की उप जातियां हैं और कितने आदिवासी हैं.अभी तक हुई जनगणना के फार्म में सिर्फ धर्म का ही कॉलम होता आया है लेकिन अगर जातीय जनगणना होगी, तब उसमें जाति का कालम भी होगा.इससे ये पता लगेगा कि देश में अनुसूचित जाति यानी एससी और एसटी की आबादी में कितना इजाफा हुआ है.विशेषज्ञ मानते हैं कि इस सूरत में देश में रहने वाले आदिवासी धर्म के कॉलम में खुद को हिन्दू बताने की बजाय अपनी मूल जाति लिखेंगे. चूंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचता, इसलिये वे अब तक धर्म के नाम पर हिंदू पर ही टिक मार्क लगा देते हैं,जबकि वे हिन्दू धर्म को नहीं मानते.


आदिवासी इलाकों में काम कर चुके आरएसएस के प्रचारक भी इस तथ्य से इनकार नहीं करते कि वे खुद को हिंदू कहलाना पसंद नहीं करते क्योंकि सदियों पुराने उनके अपने अलग धार्मिक रीति-रिवाज,विवाह,अनुष्ठान और दाह संस्कार की परंपराएं हैं, जिन्हें वे छोड़ना नहीं चाहते. उन्हें समझाना भी बेहद कठिन है और यही वजह है कि समान नागरिक संहिता का कानून लागू करने में भी सरकार फूंक-फूंक कर कदम उठा रही है.वह इसलिए कि इस पर मुस्लिम समुदाय का विरोध अपनी जगह पर है लेकिन इससे बड़ा खतरा आदिवासियों के नाराज होने का है क्योंकि वे अपनी परंपरा को छोड़कर सरकार के बनाये ऐसे किसी कानून को नहीं मानेंगे. जबकि सच ये है कि पिछले पांच दशकों में संघ ने 'वनवासी कल्याण परिषद' के जरिये उनके बीच अपनी गहरी पैठ बनाई है


और उन्हें बीजेपी का सबसे मजबूत वोट बैंक माना जाता है. यही वजह है कि संघ की ग्राउंड रिपोर्ट मिलने से पहले मोदी सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे संवेदनशील मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई कदम उठाना नहीं चाहती.


लेकिन जातीय जनगणना कराने के मुद्दे पर नीतीश कुमार ने सर्वदलीय बैठक बुलाकर और उसमें सभी दलों को राजी करके बड़ा सियासी दांव खेला है. इससे ये पता लगेगा कि राज्य में ओबीसी और उनकी अन्य उप जातियां कितनी हैं और आरक्षण या सरकार की अन्य कल्याणकारी योजनाओं का फायदा असल में कितनी आबादी को मिलना चाहिये.


इसीलिये सीएम नीतीश कुमार ने साफतौर पर कहा है कि जातीय गणना पूरी होने पर इसे प्रकाशित किया जाएगा, ताकि सभी लोगों को इसकी जानकारी मिल सके. इसमें जातियों की उप जातियों की भी गणना होगी और सभी सम्प्रदाय की जातियों की गणना भी होगी. इसका मतलब है कि इससे ये आंकड़ा भी सामने आएगा कि हिंदुओं के अलावा मुस्लिम, सिख और ईसाई समुदाय में कितने दलित हैं,कितने अति निम्न पिछड़े हैं,जिन्हें सरकार की मदद की दरकार है.


दरअसल, देश भर में जातीय जनगणना कराने के अनुरोध को लेकर बीजेपी समेत बिहार की सभी पार्टियों ने नीतीश कुमार की अगुवाई में पिछले साल पीएम मोदी से मुलाकात की थी. लेकिन तब उन्हें कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला था. इसीलिये नीतीश ने बुधवार को ये खुलासा कर दिया कि अब जब केंद्र ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रव्यापी जातीय जनगणना नहीं की जा सकती है, तो हमने राज्य की जनगणना कराने का सर्वसम्मति से फैसला लिया है. कर्नाटक और तेलंगाना के बाद बिहार अपनी जातीय जनगणना करने वाला तीसरा राज्य होगा.


अब जबकि बिहार ने इस पिटारे को खोल ही दिया है, तो ये जानना भी जरुरी है कि साल 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी.हर दस साल बाद होने वाली ये कवायद साल 1941 में भी हुई थी. तब ब्रिटिश हुकूमत ने जनगणना के समय जाति आधारित आंकड़े तो जरूर जुटाए थे लेकिन उन्हें प्रकाशित नहीं किया गया था.उसके बाद देश के आजाद होने के बाद पहली जनगणना 1951 में हुई थी. लेकिन साल 1951 से 2011 तक हुई जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा तो दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं.


लेकिन इसी बीच साल 1990 में केंद्र में आई तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के लिए मंडल आयोग की सिफ़ारिश को लागू लार दिया था.दरअसल,ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी. उसी एक फैसले ने पूरे उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया था. हालांकि अगले यानी 1991 में हुए लोकसभा चुनावों में उन्हें इसका कोई फायदा नहीं मिला और कांग्रेस ओबीसी का लगभग सारा वोट बैंक हड़पते हुए केंद्र की सत्ता में काबिज हो गई.


हालांकि देश के धुरंधर जानकार आज भी ये मानते हैं कि देश में ओबीसी आबादी कितनी प्रतिशत है, इसका कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध  नहीं है.मंडल आयोग की रिपोर्ट के आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. हालाँकि मंडल कमीशन ने भी तब साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था.लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर अपने मनमाफिक इस आँकड़े को कभी थोड़ा कम कर देती हैं,तो कभी किसी राज्य में थोड़ा ज़्यादा करके आँकती है.


विशेषज्ञों के मुताबिक पुराने रिकॉर्ड के अनुसार देश की आबादी में अनुसूचित जाति 15 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति  साढ़े सात फ़ीसदी हैं. इसी आधार पर उनको सरकारी नौकरियों, स्कूल, कॉलेज़ में आरक्षण इसी अनुपात में मिलता है. लेकिन  देशव्यापी जातीय जनगणना होने और उसके नतीजे आने के बाद इनकी आबादी बढ़ना लाजिमी है और उसी अनुपात में सरकार को आरक्षण भी देना होगा.


सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ कुल मिला कर 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इस वजह से 50 फ़ीसदी में से अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण को निकाल कर बाक़ी का आरक्षण ओबीसी के खाते में डाल दिया. लेकिन इसके अलावा ओबीसी आरक्षण का कोई आधार नहीं है. अगर पूरे देश में जाति के आधार पर जनगणना होती है,तब सच सामने आ जायेगा. शायद यही कारण है कि हर सरकार इस सच का सामना करने से डरती है?



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