राष्ट्रवाद के आगे जातिगत फैक्टर कमजोर, लालू की दोनों बेटियों के लिए चुनौती बेहद कड़ी
लोकसभा के प्रथम चरण का चुनाव होने में काफी कम दिन रह गए है. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने 22 सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है और सीवान की सीट ही अभी तक खाली रखी है. पार्टी ने आठ यादवों को टिकट दिया है, जिसमें पाटलिपुत्र और सारण, इन दोनों सीटों पर लालू की बेटियां मीसा भारती और रोहिणी आचार्य ही किस्मत आजमा रही हैं. इन दो सीटों पर पेंच फंसता हुआ दिख रहा है. सारण की सीट ऐतिहासिक है. यह लोकनायक जय प्रकाश नारायण की भूमि तो रही ही है, सांस्कृतिक रूप से यह भिखारी ठाकुर की भी धरती है. पुराने समय में इस सीट को छपरा सीट कहा जाता था, जहां से चार बार तक राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमों लालू यादव चुनाव लड़ते आए हैं.
सारण और पाटलिपुत्र है आरजेडी की फांस
राजनीति में ये अक्सर देखा जाता है कि जिस सीट पर अगर कोई लंबे समय से चुनाव जीतता आया है तो उस सीट को अपनी बपौती समझ लेता है. पहले राजद ने ये मान लिया था कि ये सीट उनकी ही रहेगी. इससे पहले वो कांग्रेस की सीट हुआ करती था आगे भी किसी की ये सीट हो सकती है, ऐसा राजद ने शायद कभी भी नहीं सोचा. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी राजीव प्रताप रूड़ी ने राजद की उम्मीदवार और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को पछाड़ दिया. इस सीट को परिवार का मानते हुए अगले चुनाव यानी कि 2019 के चुनाव में लालू ने अपने ही समधी चंद्रिका प्रसाद को दी, जहां से उनको फिर राजीव प्रताप रूड़ी से हार का सामना करना पड़ा. इस बार फिर से परिवार की सीट को सुरक्षित रखते हुए राजद ने इस सीट को परिवार के ही सदस्य को दिया है. इस बार लालू यादव की बेटी भाजपा के प्रत्याशी राजीव प्रताप रूड़ी से सामना कर रही है. अंदाजा लगाया जा रहा है कि अभी भी करीब 46 से 50 प्रतिशत वोट राजीव प्रताप रूड़ी को जाता हुआ दिख रहा है. जातिगत समीकरणों के आधार पर यह आकलन है, फिर मोदी की गारंटी है और रोहिणी मूलतः पैराशूट कैंडिडेट हैं. अगर रोहिणी आचार्य ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया तो भी करीब 35 प्रतिशत के आसपास वोट ला पाएंगी. वह जीत जाएं, तो चमत्कार ही माना जाएगा.
दोनों ही सीटों पर भाजपा की टक्कर
बिहार की पाटलिपुत्र सीट भी काफी चुनौतीपूर्ण है. यहां भी कांटे की टक्कर मानी जा रही है, क्योंकि पहले कभी रामकृपाल यादव इस सीट से चुनाव लड़ते आए हैं, जो लालू यादव के बेहद ही करीबी माने जाते थे. यहां भी परिवारवाद के लिए सीट दे दी गई है. पाटलिपुत्र से मीसा भारती को टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारा गया है. लालू यादव की पार्टी राजद से निकलकर रंजन यादव 2009 में जदयू में चले गए थे. तब रंजन यादव ने लालू यादव को चुनाव में शिकस्त दे दी. उसके बाद रामकृपाल यादव उस सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन लालू यादव, मीसा भारती को उस सीट से चुनाव लड़ाना चाहते थे. उसके बाद विवाद इस कदर बढ़ा कि रामकृपाल यादव राजद से अलग होकर भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा के टिकट से दो बार रामकृपाल यादव राजद के प्रत्याशी मीसा भारती को परास्त कर चुके हैं. तीसरी बार की स्थिति देखें, तो इस बार भी कहीं न कहीं रामकृपाल यादव भारी दिख रहे हैं. पाटलिपुत्र में रामकृपाल यादव ऐसे नेता बनकर उभरे हैं कि लोगों की छोटी से बड़ी समस्याओं और खुशियों-गमों में शामिल होते हैं. उनका जन-जन से मिलने का क्रम जारी रहता है. लालू यादव के परिवार को देखा जाए तो ये सभी लोग काफी अकड़ वाले और नकचढ़ी प्रवृत्ति के माने जाते हैं. ये पुलिस के सुरक्षा घेरे में रहते हैं. आम आदमी का उनसे मिलना सीधे तौर पर मुनासिब नहीं होता है. लालू यादव से मिलना भी आसान नहीं होता है.
पाटलिपुत्र सीट की बात करें तो इस सीट पर व्यापारियों का एक खास असर है. कायस्थ जाति से जुड़े लोग अधिकांश पटना में रहते हैं ये एक तरह से वोट को सीधे तौर पर इंपैक्ट दिखाते हैं. व्यापारियों को सुविधा उपलब्ध कराने के लिए रामकृपाल यादव जाने जाते हैं. व्यापारियों में रामकृपाल यादव की एक खास पहचान बनी है. कहा जाता है कि लालू यादव की पुत्री के शादी के समय टाटा के शो रूम से गाड़ियां उठा ली गई थी, उस समय जंगलराज का दौर था, उसको व्यापारियों ने याद रखा है. अभी हाल में बिहार की पिछले सरकार में राजद शामिल थी, जिसमें पटना में व्यापारियों को लेकर ऐसी एक-दो घटनाएं हुई थी, उसके बाद से फिर से जंगल राज के वापसी की बातें उठने लगी थी. इससे पाटलिपुत्र की सीट पर राजद की स्थिति काफी अच्छा नहीं माना जा सकता.
बिहार ही नहीं, हर जगह जाति का फैक्टर
बिहार की बात नहीं है बल्कि पूरे देश में कहीं न कहीं जाति प्रथा है. हर जगह जाति को ध्यान में रखकर वोट की प्रक्रिया चलते रही है. दिल्ली यूनिवर्सिटी के यूनियन के चुनाव तक में टोकस और सैनी जाति के ही कैंडिडेट हमेशा से चुनाव लड़ते आए हैं. हरियाणा में जब मनोहर लाल खट्टर सीएम बने तो कई बार सवाल उठा कि जाट वोटरों को नाराज किया जा रहा है. वहां भी जाति प्रथा है. बिहार में यादव समुदाय को राजद अपनी गुलाम मान चुकी हैं, लेकिन इसमें सेंध लगने का अब काम शुरू हो गया है. चंद्रशेखर यादव जो कुछ दिन पहले बिहार सरकार में शिक्षा मंत्री थे, जिन्होंने रामचरित मानस को लेकर अनर्गल बयान दिए. देखा जाए तो रामचरित मानस यादव समाज के काफी बुजुर्ग सुनते और पढ़ते हैं. यादव समुदाय का कोई व्यक्ति अगर ऐसा बयान देता है और फिर ये उम्मीद करते हैं कि यादव समाज चुनाव में उनको वोट दें तो ऐसा नहीं होता है. आजकल का जो युवा वर्ग है वो सीधे तौर पर किसी बात से जल्दी प्रभावित होता है हालांकि, डैमेज को कंट्रोल करने को लेकर राजद काफी काम कर रहा है. अब राजद के किसी भी कार्यक्रम में मंच पर चंद्रशेखर यादव नहीं देखे जाते, लेकिन डैमेज अब हो चुका है ये कंट्रोल करने का अब कोई फायदा नहीं दिख रहा है. इसका फायदा सीधे तौर पर कहीं न कहीं भाजपा को हुआ है.
राष्ट्रवाद के आगे जातिवाद कमजोर
यादव समाज सिर्फ राजद को वोट देता है ये बात सच है, लेकिन ऐसा विधानसभा के चुनाव में होता है. लोकसभा चुनाव में जाति फैक्टर उतना मतलब नहीं रख पाता है. जाति के आगे नरेंद्र मोदी खड़े है. राष्ट्रवाद के आगे जातिवाद कमजोर पड़ जाता है. सारण सीट पर 25 प्रतिशत यादव और 23 प्रतिशत राजपूत, 20 प्रतिशत बनिया जाति से, 10 प्रतिशत मुस्लिम वोटर है. राजनीतिक विश्लेषक और अन्य लोग भी मानते हैं कि अन्य जातियों के वोट है वो कहीं बंट भी सकते हैं लेकिन मुस्लिम वोट को एकजुट हमेशा से देखा है और वो कहीं न कहीं राजद के पक्ष में जाता हुआ दिखता है. सारण में 23 प्रतिशत राजपूत के वोटर के साथ 10 प्रतिशत यादव-युवा वोटर राजीव प्रताप रूड़ी के साथ जाता हुआ दिख रहा है. इस बार दोनों सीटों पर मामला फंसा हुआ है और कहीं से भी जीत के रास्ते आसान नजर नहीं आ रहे हैं.
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