चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति: सरकार के क़ब्ज़े में चुनाव आयोग, आरोप में कितनी है सच्चाई, विस्तार से समझें
देश में क़ानून के स्तर पर व्यापक बदलाव का दौर है. इस साल सितंबर में हुए संसद के विशेष सत्र के दौरान विधायिका में महिला आरक्षण को लेकर क़ानून बना. वहीं संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए क़ानून बनाने की प्रक्रिया पूरी की जा रही है. ये सारे मुद्दे बेहद ही गंभीर हैं.
हालाँकि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े क़ानून और विषय जितने गंभीर और महत्वपूर्ण हैं, उस लिहाज़ से इन विषयों पर देश में पर्याप्त चर्चा नहीं हो रही है. संवैधानिक निकाय निर्वाचन आयोग या चुनाव आयोग के महत्व को बताने की ज़रूरत नहीं है. देश में पहली बार मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाक़ी दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए संसद से क़ानून बनाया जा रहा है.
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए क़ानून
देश में पहला आम चुनाव होने के सात दशक से भी अधिक समय के बाद यह पहल की जा रही है. संसद से क़ानून बनाकर मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाक़ी दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए पहली बार सिलेक्शन कमेटी या चयन समिति की व्यवस्था की जा रही है. इसके लिए इस साल 10 अगस्त को संसद के मानसून सत्र के दौरान केंद्र सरकार की ओर से राज्य सभा में ''मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023'' पेश किया गया. 12 दिसंबर को इस विधेयक को राज्य सभा की मंजूरी मिल गयी है. लोक सभा से मंजूरी मिलने और उसके बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ ही नया क़ानून अस्तित्व में आ जायेगा.
मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का संवैधानिक अधिकार राष्ट्रपति को है और इसके लिए पहले कोई सिलेक्शन कमेटी की व्यवस्था नहीं थी. सर्च कमेटी नामों की सूची तैयार करके देती थी और उस सूची से सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करते रही है. इस सर्च कमेटी के सदस्य कार्यकारी का ही हिस्सा माने जाने वाले अधिकारी होते थे. इस नजरिए से ग़ौर करें तो अब तक अति महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की इच्छा ही सब कुछ थी.
सुप्रीम कोर्ट का आदेश और सरकार की पहल
यह हैरान करने वाली बात है कि चुनाव आयोग जैसी महत्वपू्र्ण संवैधानिक संस्था के लिए इस प्रकार का क़ानून अब तक संसद से नहीं बना था. नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के आख़िरी वर्ष में यह पहल की. हालाँकि यह पहल मोदी सरकार ने स्वाभाविक तौर से नहीं, बल्कि मजबूरी में की है. इस बाबत सुप्रीम कोर्ट ने 2 मार्च 2023 को एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था. उस फ़ैसले के आलोक में ही केंद्र सरकार को मजबूर होकर यह पहल करने पड़ी है. अगर केंद्र सरकार ऐसा नहीं करती, तो सुप्रीम कोर्ट ने मार्च के अपने आदेश में चयन समिति की जो रूपरेखा खींची थी, उसके मुताबिक़ मोदी सरकार को काम करना पड़ता.
यह भी कहना मुनासिब होगा कि सुप्रीम कोर्ट का मार्च में फ़ैसला नहीं आता तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की पुरानी प्रक्रिया ही जारी रहती. विडंबना है कि इस सिलसिले में गोस्वामी कमेटी (1990), 2002 में संविधान समीक्षा के लिए बनी राष्ट्रीय आयोग, 2015 में विधि आयोग की सिफ़ारिशों के बावजूद अब तक किसी सरकार ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए इस प्रकार का क़ानून बनाने की ज़हमत नहीं उठायी थी. अब मोदी सरकार ने पहल की भी है तो उस पर विवाद और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है.
चयन समिति की संरचना को लेकर विवाद
मुख्य चुनाव आयुक्त और बाक़ी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर केंद्र सरकार जिस प्रकार का क़ानून संसद से बनवाने जा रही है, उसमें और सुप्रीम कोर्ट के आदेश में अंतर है. मुख्य अंतर सिलेक्शन कमेटी के सदस्यों को लेकर है. विवाद या आरोप -प्रत्यारोप का मुख्य कारण यही अंतर है. इस अंतर की वज्ह से ही कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों का आरोप है कि मोदी सरकार चुनाव आयोग को सरकारी क़ब्ज़े का हिस्सा बनाना चाह रही है. विपक्षी दलों का आरोप है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाक़ी आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार पूरा नियंत्रण बनाना चाह रही है और इस मकसद से सिलेक्शन कमेटी की संरचना को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक़ नहीं रखा है.
सिलेक्शन कमेटी के तीसरे सदस्य पर विवाद
सिलेक्शन कमेटी के सदस्य कौन होंगे..विवाद के मूल में यही सवाल है. सुप्रीम कोर्ट ने मार्च के आदेश में कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार तीन सदस्यीय सिलेक्शन कमेटी बनाए. इसमें बतौर सदस्य प्रधानमंत्री, लोक सभा में नेता विपक्ष और तीसरे सदस्य के तौर पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रहेंगे. सरकार ने भी नए क़ानून में तीन सदस्यीय सिलेक्शन कमेटी के प्रावधान को रखा है, लेकिन उसमें बतौर सदस्य चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को नहीं रखा गया है. तीसरे सदस्य के रूप में सरकार ने " प्रधानमंत्री द्वारा नामित किए जाने वाले एक कैबिनेट मंत्री" को रखा है. सरकार के विधेयक के सेक्शन 7 में सिलेक्शन कमेटी का प्रावधान है.
स्पष्ट है कि सरकार को चयन समिति में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का रहना स्वीकार नहीं है. विधेयक में यह भी साफ कर दिया गया है कि नेता विपक्ष के तौर पर अगर लोक सभा में किसी को मान्यता नहीं मिली हुई है, तो विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को कमेटी का सदस्य बनाया जाएगा.
नियुक्ति में सरकारी नियंत्रण बढ़ जाएगा!
इन बातों से स्पष्ट है कि विवाद और आरोप-प्रत्यारोप का मुख्य कारण सिलेक्शन कमेटी में तीसरे सदस्य को लेकर है. नया क़ानून बनने के बाद मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाक़ी दो निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के लिए जो सिलेक्शन कमेटी बनेगी, उसमें सरकार का प्रभुत्व होगा. बतौर सदस्य प्रधानमंत्री और एक कैबिनेट मंत्री के होने से कमेटी में सरकार बहुमत में होगी. कमेटी में कोई भी फ़ैसला बहुमत के आधार पर ही होगा. इस तरह से यह तो कहा ही जा सकता है कि नियुक्ति में सरकार की मर्ज़ी सर्वोपरि हो जायेगी. इस तरह से नियुक्ति में कार्यपालिका या'नी सरकार का ही नियंत्रण रहेगा क्योंकि चयन समिति में तीन में से दो सदस्य सरकार से होंगे. सरल शब्दों में कहें, तो सरकार जिन नामों पर सहमति होगी, उनका मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्त बनना निश्चित है. यहाँ पर लोक सभा के नेता विपक्ष की भूमिका असहमति जताने तक ही सीमित हो जायेगी.
अगस्त में पेश विधेयक में कुछ संशोधन
अगस्त में पेश विधेयक और राज्य सभा से पारित विधेयक में दो-तीन महत्वपूर्ण बदलाव भी किया गया है. पहले सरकार ने जो विधेयक पेश किया था, उसमें खोजबीन समिति या'नी सर्च कमेटी कैबिनेट सचिव को बनाया गया था. बाद में सरकार ने इसमें संशोधन किया. अब खोजबीन समिति के अध्यक्ष विधि और न्याय या'नी क़ानून मंत्री होंगे. खोजबीन समिति का काम सिलेक्शन कमेटी के विचार के लिए पाँच व्यक्तियों का एक पैनल तैयार करना है. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली सिलेक्शन कमेटी पैनल के इन व्यक्तियों पर विचार कर मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति पर फ़ैसला लेगी. हालाँकि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली सिलेक्शन कमेटी इस पैनल से बाहर के व्यक्तियों पर विचार करने के लिए भी स्वतंत्र है. नये बनने वाले क़ानून के सेक्शन 8 (2) इसका प्रावधान कर दिया गया है.
बदलाव से सुप्रीम कोर्ट के जज के समान ही दर्जा
सरकार की ओर से अगस्त में पेश विधेयक में एक और महत्वूर्ण संशोधन या बदलाव किया है. अगस्त में जो विधेयक पेश किया गया था, उसमें मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों को कैबिनेट सचिव के समान पद माना गया था. कैबिनेट सचिव के वेतन, भत्ते और सेवा की शर्तों के समान ही मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों वेतन, भत्ते और सेवा की शर्तों को रखा गया था. हालाँकि 12 दिसंबर को राज्य सभा से पारित विधेयक में सरकार ने इसमें संशोधन कर दिया. अब मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों को सुप्रीम कोर्ट के जज के समान वेतन देने का प्रावधान कर दिया गया है. इससे लिए सेक्शन 10 (1) में प्रावधान है.
नए बनने वाले क़ानून में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से उसी रीति और आधार पर हटाया जा सकता है, जैसी व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के किसी जज के लिए है. इस प्रावधान का ज़िक्र नए बनने वाले क़ानून के सेक्शन 11(2) में किया गया है. अन्य निर्वाचन आयुक्तों को मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की सिफ़ारिश से हटाया जा सकता है. इस क़ानून में यह भी साफ कर दिया गया है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल छह वर्ष या 65 वर्ष की आयु का होने तक होगा. इसका मतलब है इन दोनों में से जो भी पहले हो जाय, वहीं लागू होगा. यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त पुनर्नियुक्ति के पात्र नहीं होंगे या'नी दोबारा उसी पर पर नियुक्ति नहीं होगी.
नियुक्ति में न्यायपालिका की भूमिका नहीं
इसके साथ ही नये क़ानून से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में न्यायपालिका की भूमिका या हस्तक्षेप की कोई संभावना नहीं रह जायेगी. ऊपर के विवरण के नज़रिया से सोचें, तो चुनाव आयोग जैसी महत्वूपर्ण संवैधानिक संस्था पर सरकारी नियंत्रण बढ़ने की संभावना ज़रूर बढ़ जाती है.
विपक्ष के कुछ सांसदों का यह भी आरोप है कि जिस तरह का क़ानून बन रहा है, उससे सरकार किसी को भी (राजनीतिक व्यक्ति को भी) चुनाव आयुक्त जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठा सकती है. हालाँकि इस आरोप में कोई ख़ास दम नहीं है. सरकार अपने पसंद के व्यक्ति को ज़रूर मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाक़ी दो निर्वाचन आयुक्त बना सकती है, लेकिन किसी भी ऐरा-ग़ैरा को इस पर पर आसीन का देगी, इसकी गुंजाइश बिल्कुल भी नहीं है.
जो नया क़ानून बनेगा, उसके उसके सेक्शन 5 में ही यह प्रावधान कर दिया गया है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त या अन्य निर्वाचन आयुक्त वहीं व्यक्ति बन सकते हैं, जो भारत सरकार के सचिव के समतुल्य रैंक का पद धारण कर रहे हैं या धारण कर चुके हैं. इसके अलावा इसी सेक्शन में यह भी कहा गया है कि उस व्यक्ति के पास चुनावों के प्रबंधन और उनके संचालन का ज्ञान और अनुभव हो.
इस सेक्शन से यह सुनिश्चित हो जाता है मुख्य निर्वाचन आयुक्त या अन्य निर्वाचन आयुक्त के पद पर कहीं से भी किसी को भी लाकर नहीं बिठाया जा सकता है. हालाँकि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सिलेक्शन कमेटी के स्वरूप में ही नियुक्ति में सरकारी नियंत्रण की पूरी गुंजाइश बना दी गयी है.
चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता
इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त या अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का मुद्दा बेहद महत्वपूर्ण और गंभीर है. यह सीधे-सीधे देश के लोकतांत्रिक ढाँचा और ताना-बाना से जुड़ा पहलू है. यह चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता से जुड़ा मुद्दा है. पूरे प्रकरण को इस लिहाज़ से ही समझा जाना चाहिए. चाहे सरकार कोई भी हो, चुनाव आयोग या चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित कोई भी क़ानून संसद से बनवाने में इस पहलू का ख़ास ध्यान रखा जाना चाहिए. इसके लिए इतना तो कहा जा सकता है कि मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार को पूरे प्रकरण में विपक्ष को भी भरोसे में लेने की कोशिश करनी चाहिए थी.
इसके साथ ही इस मसले पर मीडिया के अलग-अलग मंचों से लेकर आम लोगों के बीच भी चर्चा होनी चाहिए थी. हम सब जानते हैं कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्त को लेकर संसद से अब तक कोई क़ानून नहीं बना था, जिस तरह के क़ानून की अपेक्षा संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के तहत की गई थी. अब जब क़ानून बन रहा है, तो इस तरह के विवाद और आरोप से सवाल तो खड़े होंगे ही.
मजबूरी में बनाना पड़ रहा है कानून!
इस साल दो मार्च को सुप्रीम कोर्ट से जो फ़ैसला आया था, उसके बाद केंद्र सरकार के लिए नया क़ानून बनाना अनिवार्य हो गया था. यह पहलू को भी समझा जा सकता है. मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार कार्यकाल 19 फरवरी 2025 तक है, उनके रिटायरमेंट में अभी वक़्त है. निकट भविष्य में समस्या बाक़ी दो चुनाव आयुक्तों में से एक अनूप चंद्र पाण्डेय के रिटायरमेट से जुड़ी है. चुनाव आयुक्त के तौर पर अनूप चंद्र पाण्डेय का कार्यकाल अगले साल 15 फरवरी, 2024 को पूरा हो रहा है. ऐसे में उनकी जगह कौन लेगा, अगर नया क़ानून नहीं बनता है, तो ये तय करने के लिए केंद्र सरकार को वहीं प्रक्रिया अपनानी पड़ेगी जो सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था.
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों की ओर से आपत्ति
विपक्षी दलों के साथ ही कई पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों की ओर से भी सरकार की ओर से लाए गये विधेयक के कुछ प्रावधानों पर गंभीर ए'तिराज़ जताया गया था. इस बाबत 16 सितंबर को एन. गोपालस्वामी, वीएस संपत और एस.वाई. कुरैशी समेत कुछ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी भेजा था. उसमें मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों को कैबिनेट सचिव के बराबर दर्जा देने के प्रावधान का विरोध किया गया था. साथ ही चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने पर भी ज़ोर दिया गया था.
चुनाव आयोग को कमज़ोर करने की कोशिश!
चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था को कमज़ोर करने की कोई भी कोशिश भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सही नहीं माना जा सकता है. ऐसे भी लंबे समय से चुनाव आयोग में सरकारी दख़्ल को लेकर आरोप लगते रहे हैं. संविधान में निर्वाचन आयोग या चुनाव आयोग को बेहद महत्वपूर्ण संस्था माना गया है. हर किसी को यह बात समझने की ज़रूरत है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, न कि संसद से पारित क़ानून से बनी संस्था या सरकारी आदेश से बनी संस्था.
संविधान के भाग 15 में निर्वाचन आयोग
चुनाव आयोग है एक संवैधानिक संस्था
लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था में चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीक़े से हो, इसके लिए संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से लेकर अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन आयोग से जुड़े प्रावधान हैं. अनुच्छेद 324 (1) में निर्वाचन आयोग यानी चुनाव आयोग की व्यवस्था है. चुनाव आयोग के पास लोक सभा, राज्य सभा के साथ ही राज्य विधानमंडलों के लिए चुनाव कराने की जिम्मेदारी है. इसी आयोग के पास राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव कराने की जिम्मेदारी भी है. चुनाव आयोग को संविधान के तहत बेहद ख़ास ज़िम्मेदारी सौंपी गई है. इस लिहाज़ से ग़ौर करें , तो संविधान में जितने भी निकाय या संस्था का प्रावधान किया गया है, उनमें चुनाव आयोग सबसे महत्वपूर्ण निकायों में से एक है.
पहले सिर्फ़ मुख्य चुनाव आयुक्त की व्यवस्था
अनुच्छेद 324 (2) इस आयोग में मुख्य निर्चावन आयुक्त के साथ कितने और आयुक्त होंगे, इसके निर्धारण के लिए प्रावधान है. निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संवैधानिक तौर से राष्ट्रपति करते हैं. अभी भी सिलेक्शन कमेटी की सिफारिशों के आधार पर नियुक्ति राष्ट्रपति के नाम पर ही होगी. 15 अक्टूबर 1989 तक निर्वाचन आयोग एक सदस्यीय संवैधानिक निकाय था. उस वक़्त तक सिर्फ़ मुख्य चुनाव आयुक्त होते थे. 16 अक्टूबर 1989 से इस आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ ही दो और चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था की गई. हालांकि 1990 में फिर से आयोग को एक सदस्यीय बना दिया गया और अन्य दो चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था समाप्त कर दी गई. फिर अक्टूबर 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ अन्य दो चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था को बहाल कर दिया गया. तब से यही व्यवस्था बनी हुई है.
नियुक्ति में सरकारी मनमानी समाप्त हो
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी मनमानी समाप्त हो और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक ऐसा सिस्टम हो, जिससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर कोई सवाल न उठ सके, इसकी माँग के साथ ही इस पर बहस लंबे वक़्त से हो रही थी. इसके लिए अनूप बरनवाल 2015 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करते हैं.
याचिका पर पहले दो सदस्यीय पीठ सुनवाई करती है. बाद में मामला पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया जाता है. बाद में इस मामले में कई और याचिकाएं भी जुड़ती जाती हैं. अंत में दो मार्च 2023 को जस्टिस के एम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ का ऐतिहासिक निर्णय आता है. उसमें सुप्रीम कोर्ट आदेश देती है कि संसद से क़ानून बनाए जाने तक एक सेलेक्शन कमेटी की सिफारिशों के आधार पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होगी.
निष्पक्षता और स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में दिए अपने आदेश को भी दो पहलुओं पर आधारित रखा था. पहला, चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और दूसरा, चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने इसे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना था. इसे सुनिश्चित करने के मकसद से ही सुप्रीम कोर्ट ने संसद से क़ाननू बनने तक केंद्र सरकार को सिलेक्शन कमेटी की व्यवस्था करने का आदेश दिया था.
संविधान लागू होने के बाद से कई सरकार आई और गई. सत्ता पक्ष में अलग-अलग दल आए और गए. उसके बावजूद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए निष्पक्ष और पारदर्शी वैधानिक प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए संसद से कोई क़ानून नहीं बना. इस वजह से जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो एक लंबी सुनवाई के बाद भारत के सर्वोच्च अदालत ने सिलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश दिया.
क़ानून बनाने की एकमात्र अथॉरिटी है संसद
इसका एक और भी पहलू है. केंद्रीय स्तर पर क़ानून बनाने की एकमात्र अथॉरिटी देश की संसद है. क़ानून बनाने में संसद की सर्वोच्चता पर कोई शक या संदेह किसी को नहीं है. ऐसे में सरकार उस क़ानून में क्या प्रावधान रखना चाहती है, ये पूरी तरह से सरकार का विशेषाधिकार है. क़ानून बनाने का अधिकार संसद को है. सरकार उस क़ानून के प्रावधान में क्या रखती है, यह न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र का विषय नहीं है. इस दृष्टिकोण से सोचें, तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया और सिलेक्शन कमेटी को लेकर क्या व्यवस्था होगी, ये तय करने का एकमात्र अधिकार सरकार के पास ही है. इसलिए फ़िलहाल को कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में अपने आदेश में सिलेक्शन कमेटी को लेकर जो दिशा निर्देश दिए हैं, सरकार के लिए हू-ब-हू वही ढाँचा रखना बाध्यकारी नहीं है.
क़ानून बनने के बाद हो सकती है समीक्षा
एक बार संसद से क़ानून बन जाए और अगर उसकी संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है, तब ही सुप्रीम कोर्ट इसमें आगे कुछ कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट का काम क़ानून बनाना नहीं है. लेकिन संसद से बने क़ानून में इस बात की पड़ताल करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को ज़रूर है कि जो भी क़ानून संसद से पारित हुआ है, उससे संविधान के मूल ढाँचे पर तो कोई असर नहीं पड़ रहा है. सुप्रीम कोर्ट ऐसा होने पर उस क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए अवैध भी ठहरा सकती है. अतीत में ऐसा कई मामलों में हो भी चुका है. अधिकांश लोगों को राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)क़ानून का मामला याद होगा. संसद से 2014 में पारित इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 16 अक्टूबर 2015 को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया था.
इतना कहा जा सकता है कि सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए जिस रूप में क़ानून बना रही है, उसकी संवैधानिकता पर फ़िलहाल कोई सवाल नहीं उठता है. इतना जरूर है कि सरकार जो प्रक्रिया अपनाना चाहती है, उस नज़रिये से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी.
निष्पक्षता और स्वतंत्रता कैसे होगी सुनिश्चित?
पूरा मुद्दा चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता से जुड़ा है. भारत में चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी का मुद्दा काफी पुराना है. हर चुनाव के बाद चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी या धांधली को लेकर किसी न किसी दल या पक्ष से आरोप लगते रहे हैं. चाहे चुनाव तारीखों का ऐलान हो, या फिर चुनाव में अधिकारियों की तैनाती का मुद्दा हो, या निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी हो, निर्वाचन आयोग की इसमें एकमात्र अथॉरिटी है. ऐसे में चुनाव आयोग के साथ ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता और तटस्थता का पहलू बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है.
इतना कहा जा सकता है कि सिलेक्शन कमेटी में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के होने से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी मनमानी की गुंजाइश बेहद कम या नगण्य हो जाती. तब नियुक्ति प्रक्रिया ज्यादा पारदर्शी और भरोसेमंद होती. कैबिनेट मंत्री की बजाय अगर इस सिलेक्शन कमेटी में कोई और सदस्य होता जो कार्यपालिका का हिस्सा नहीं होता तो शायद निष्पक्षता और स्वतंत्रता को लेकर संदेश की संभावना कम हो जाती.
केंद्र सरकार की बनती है ज़िम्मेदारी
चुनाव आयोग को लेकर देशवासियों, मतदाताओं का भरोसा बना रहे, ये बेहद महत्वपूर्ण है. ये नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव आयोग कोई कार्यकारी संस्था या निकाय नहीं, बल्कि इसका गठन संविधान में ही निहित है. इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि इस संस्था को लेकर लोगों का भरोसा बना रहे. मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो, उसमें कोई सरकारी स्तर पर मैनिपुलेशन या गड़बड़ी की संभावना न हो. इतनी महत्वपूर्ण संस्था के सर्वेसर्वा या'नी मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर जनता के बीच शक-ओ-शुब्हा की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. जनता के बीच ऐसा कोई संदेश न जाए कि सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में निरंकुश तरीक़े से काम कर रही है.
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