महात्मा गांधी के खिलाफ अंग्रेजों की ओर से चलाए गए ऐतिहासिक मुकदमे के सौ साल हो गए. इस पर पूरे देश-दुनिया की नजर थी और उन्हें छह साल कारावास की सजा सुनाई गई. इतिहास के पन्नों में यह मुकदमा खास है. ठीक सौ साल पहले भारत में 18 मार्च 1922 को, तब तक महात्मा बन चुके, मोहनदास गांधी पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध राजद्रोह और ‘असंतोष भड़काने’ के आरोप में मुकदमा शुरू किया गया था. इतिहास में इसे ‘द ग्रेट ट्रायल’ के रूप में याद किया जाता है. इसमें मोहनदास गांधी को छह साल कैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन खराब स्वास्थ्य और ‘अच्छे बर्ताव’ की वजह से दो साल बाद ही उन्हें रिहा कर दिया गया था. गांधी की जल्दी रिहाई को उनकी विशाल नैतिक विजय के रूप में देखा जाता है. इतिहास में ऐसे बहुत कम मुकदमे हैं, जहां अदालती कार्यवाही बहुत सभ्यता और शिष्टता के साथ चली और जहां सुनवाई कर रहे न्यायाधीश भी यह बात देखकर हैरान थे कि स्वयं आरोपों का सामना कर रहा व्यक्ति, उन्हें स्वीकार करते हुए सजा देने की मांग कर रहा था. गांधी हमेशा कानून का पालन करने की वकालत करते थे, मगर साथ ही अन्यायी कानून के विरुद्ध खड़े होकर उसे तोड़ने के हर व्यक्ति के अधिकार का नैतिक और विवेकपूर्ण समर्थन भी करते थे. उस दिन क्या हुआ अदालत में और क्या किया मोहनदास गांधी ने?


1.चौरी चौरा की घटना, गांधी की गिरफ्तारी और भारत में राजनीतिक मुकदमे


यह 1922 की बात है, जब भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन चल रहा था. गांधी ने 1920 में इसे शुरू किया था. चार फरवरी को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से नजदीक चौरी चौरा के एक बाजार में कांग्रेस और खिलाफत आंदोलन के कुछ कार्यकर्ताओं से हिंसक मुठभेड़ में 23 पुलिस वाले मारे गए. कांग्रेस के सर्वेसर्वा गांधी ने इस हिंसा को इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा कि राष्ट्र अभी स्वराज के लिए तैयार नहीं है और देश भर में चल रहे इस आंदोलन को उन्होंने वापस लेने का एकतरफा निर्णय ले लिया. तमाम कांग्रेसी नेता उनके इस फैसले से हतप्रभ रह गए. ज्यादातर का मानना था कि इस आंदोलन को वापस लेने का अधिकार सिर्फ कांग्रेस कार्यसमिति के पास है. वहीं बहुत से नेताओं ने गांधी के इस निर्णय को एक भीषण गलती रूप में देखा. मगर गांधी अपने फैसले और आलोचनाओं के विरुद्ध दृढ़ रहे. उन्होंने 16 फरवरी को ‘यंग इंडिया’ में लिखाः चौरी चौरा की भयानक हिंसा में छुपे इस संकेत को जो लोग नहीं समझ पा रहे हैं कि ‘यदि तत्काल बड़े कदम नहीं उठाए गए तो भारत किस दिशा में जा सकता है’ वे अक्षम हैं.


असहयोग आंदोलन वापस लेने से जहां देश में गुस्सा फैल गया, वहीं अंग्रेजों ने राहत की सांस ली. गांधी ने दिसंबर 1920 में वादा किया किया था कि यदि देश अहिंसा के रास्ते पर चलेगा तो उसे ‘स्वराज’ मिलकर रहेगा. लेकिन एक साल गुजर गया और गांधी बुरी तरह नाकाम रहे. निश्चित ही इससे अंग्रेजों को यह विश्वास हो गया कि गांधी की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को बड़ा धक्का पहुंचा है. छह महीनों तक बॉम्बे प्रेसिडेंसी की सरकार, ब्रिटिश सरकार और लंदन स्थित इंडिया ऑफिस में इस बात पर जबरदस्त बहस चली कि क्या गांधी को गिरफ्तार करना चाहिए, अगर हां तो कब? गांधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखे अपने लेखों में ब्रिटिश सत्ता को ‘शैतान’ बताया, उसके हर कदम को मुंहतोड़ जवाब दिया और उसे उखाड़ फेंकने का आह्वान करते हुए लगातार नई चुनौतियां पेश की. ‘अ पजल एंड इट्स सॉल्यूशन’ में गांधी ने 15 दिसंबर को कड़े और साफ शब्दों में लिखा: ‘हम गिरफ्तारी चाहते हैं क्योंकि यह तथाकथित स्वतंत्रता गुलामी है. हम सरकार की ताकत को चुनौती देते हैं क्योंकि हमें लगता है कि उसके तमाम कदम पूरी तरह से शैतानी हैं. हम सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. हम चाहते कि वह लोगों की इच्छा के सामने समर्पण करे.’ 29 सितंबर 1920 को प्रकाशित लेख ‘इन टेंपरिंग विद लॉयलिटी’ में गांधी ने भारतीय सैनिकों से ब्रिटिश ताज के विरुद्ध अपनी निष्ठा त्यागने का आह्वान करते हुए लिखाः ‘किसी भी तरह से इस सरकार की सेवा करना, चाहे सैनिक के रूप में हो या नागरिक के रूप में, एक पाप है. यह सरकार भारत में मुस्लिमों का दमन करती है और पंजाब में अमानवीय कृत्यों के लिए दोषी है.’ गांधी की इन राजद्रोही बातों के लिए उन्हें खुला छोड़ देना, सरकार को सबकी नजरों में कमजोर साबित करता था. लेकिन इसके विपरीत ऐसे कई तर्क थे, जिनके हिसाब से गांधी को जेल में नहीं डाला जा सकता था. गांधी हर तर्क और मौके को अपने पक्ष में घुमा रहे थे. उन्हें जेल में डालने का मतलब था, किसी शहीद की तरह उन्हें सबके बीच प्रतिष्ठित कर देना. वह भी तब, जब उनका प्रभाव कम होता हुआ नजर आ रहा था. गांधी हर समय जेल से एक बड़ी छवि के साथ बाहर आते थे. गांधी को ऐसे आंशिक प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में भी देखा गया था, जिसके माध्यम से हिंसा का उपयोग करने के लिए उत्सुक लोगों को रोका जा सकता था. इन हालात में गांधी को तभी गिरफ्तार किया जा सकता था, जब उनकी स्वतंत्रता हर हाल में बर्दाश्त से बाहर हो जाए.


चौरी चौरा हत्याकांड और असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद अंग्रेजों के हाथ वह मौका लग गया था, जब उनकी आजादी छीनी जा सकती थी. उन पर मुकदमा चलाते हुए निश्चित ही अंग्रेजों की सोच यही थी कि ‘कानून के राज’ के प्रति अपनी वफादारी का उल्लेखनीय प्रदर्शन कर रहे हैं. एक तरफ कोई भी अन्य औपनिवेशिक ताकत किसी बागी को जीवन भर के लिए लोगों की नजरों से दूर कर देती या उसे गायब करा देती, मगर अंग्रेजों को अपनी ‘निष्पक्ष’ और ‘उचित प्रक्रिया’ के प्रदर्शन पर काफी गर्व था. औपनिवेशिक भारत की सरकारी गतिविधियों में इस राजनीतिक मुकदमे को बहुत ही खास जगह मिली, जबकि भारतीय दंड विधान की धारा 124 ए के तहत गांधी से पहले कई राष्ट्रवादी नेताओं पर अदालत में कार्यवाही हो चुकी थी. हालांकि इस मुकदमे को चलाने में जोखिम था क्योंकि इससे राजनीतिक असंतुष्टों को औपनिवेशिक साम्राज्य के विरुद्ध अपनी आवाज मुखर करने का मौका मिलता. अधिकतर राष्ट्रवादियों को तब के न्यायिक गलियारों में काफी सम्मान हासिल था और कुछ तो कानून और अदालती मामलों के पूरी तरह मंजे हुए खिलाड़ी थे. 1908 में तिलक के खिलाफ जो राजद्रोह का मुकदमा चला, उसमें उन्होंने अंग्रेजी नागरिक कानून और न्यायिक कौशल में खुद को प्रवीण साबित किया. लेकिन इस मुकदमे में यह बात भी खुल कर सामने आ गई थी कैसे राजनीतिक असंतुष्टों को दी जाने वाली सजा पूर्व निर्धारित निष्कर्ष की तरह होती थी.


2.गांधी पर मुकदमा या कठघरे में सत्ता?


गांधी पर मुकदमा चलाने से पहले उन पर किसी खास अपराध में मामला दर्ज करना जरूरी था. ‘यंग इंडिया’ में छपे लेखों में राजद्रोह था और विशेष तौर पर तीन ऐसे आलेख थे जिन्हें ‘ब्रिटिश इंडिया की महामहिम सरकार के विरुद्ध नफरत, तिरस्कार और वैमनस्य फैलाने’ के रूप में चिह्नित किया गया. उल्लेखनीय है कि ‘आरोपों’ में ‘राजद्रोह’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया, लेकिन इंग्लैंड में आईपीसी की धारा 124ए का सीधा मतलब राजद्रोह ही था. 20वीं सदी की शुरुआत में इंग्लैंड में राजद्रोह को राजनीतिक अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया था लेकिन अंग्रेजों को लगता था कि भारत और अन्य उपनिवेशों में इसे कानून की किताबों में बनाए रख कर, राष्ट्रवादी आंदोलनों को खत्म करने के प्रमुख हथियार के की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है.


11 मार्च 1922 की दोपहर में गांधी और यंग इंडिया के प्रकाशक शंकर लाल बैंकर को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. जब गांधी से उनके पेशे को दर्ज कराने को कहा गया तो उन्होंने लिखाः बुनकर और किसान. हम नहीं बता सकते कि उस वक्त अदालत के लिपिक ने गांधी द्वारा दी गई इस सूचना को किस प्रकार से देखा. संभवतः उसे यह गांधी का झूठ या चालाकी लगी होगी, जो असहयोग आंदोलन की पूरी रूप-रेखा खींचने और उसका आह्वान करने के बाद भी खुद को किसान बता रहा है. लेकिन सच यही है कि गांधी अपने आश्रम में सब्जियां उगाते थे और उनके पास संसार के पारिस्थितिक संतुलन पर एक व्यक्तिगत नजरिया था. साथ ही उन्होंने खेती-किसानी को हमेशा भारतीय सभ्यता की आत्मा के रूप में सम्मान दिया था. गांधी खुद को ‘बुनकर’ कहते हैं, तो यह रूपक की तरह उभरता है, जिसमें वह औपनिवेशिक साम्राज्य के विरुद्ध नैतिकता और राजनीति का ताना बाना बुन रहे हैं. परंतु इस बात के साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चरखा गांधी की पहचान और श्रम शक्ति की एकजुटता के प्रति उनके विश्वास की निशानी था. और यह केवल संयोग दिखता है कि यहां विनम्र किसान और बुनकर, अहिंसा जैसे अभूतपूर्व आंदोलन का नेतृत्व करते हुए एक बेहद शक्तिशाली साम्राज्य के विरुद्ध खड़े थे.


एक हफ्ते बाद 18 मार्च की दोपहर को गांधी को शाही बाग के सर्किट हाउस में ले जाया गया. अदालत खचाखच भरी थी. यहां मौजूद लोगों में जवाहरलाल नेहरू और सरोजिनी नायडू समेत अहमदाबाद और साबरमती आश्रम में उनके निकट सहयोगी शामिल थे. सरोजिनी ने अपनी डायरी में लिखा हैः ‘गांधी ने जैसे ही अदालत में प्रवेश किया, वहां मौजूद हर व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया.’ यह मुकदमा सुन रहे आईसीएस और डिस्ट्रिक्ट एंड सेशंस जज रॉबर्ट ब्रूमफील्ड ने अपनी दैनिक मुलाकातों की डायरी में उस ऐतिहासिक दिन को लेकर दुनिया को संकेत देते हुए इतना ही लिखाः ‘गोल्फ खेलने से पहले नाश्ता, गांधी का मुकदमा’


अभियोजन पक्ष का प्रतिनिधित्व बॉम्बे प्रेसीडेंसी के एडवोकेट-जनरल सर थॉमस स्ट्रांगमेन कर रहे थे, जबकि अभियुक्त की मर्जी के मुताबिक उसके बचाव में कोई नहीं था. आरोप पत्र पढ़ा गया. न्यायाधीश ने जब दोनों से पूछा कि उनके क्या तर्क हैं. तो दोनों ने एक ही जवाब दियाः दोषी. इस बात में संदेह नहीं कि गांधी हमेशा से अंग्रेजों के लिए एक पहेली थे, जिनके बारे में वह कभी तय नहीं कर सके कि वह ‘संत’ थे या ‘राजनेता’. उन्हें आश्चर्य होता था कि गांधी खुद को गर्व से ईसाई कहने वालों से कहीं श्रेष्ठ ईसाई मालूम पड़ते थे. एक तरह से गांधी ने अंग्रेजों के हथियारों को पहले ही बेकार कर दिया था.


चूंकि बचाव पक्ष भी खुद को दोषी बता रहा था, इसलिए लंबी सुनवाई की कोई जरूरत नहीं रह गई थी और ब्रूमफील्ड ने फैसला सुनाने का प्रस्ताव रखा. इस पर एडवोकेट-जनरल ने कुछ टिप्पणियां की, दोषी के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की गंभीरता को विस्तार से बताया और तब ब्रूमफील्ड ने दोषी को यह कहते हुए मौका दिया कि वह ‘सजा के सवाल पर अपनी बात रखे.’ गांधी अपने साथ एक लिखित वक्तव्य लाए थे लेकिन उन्होंने उसे पढ़ने के बजाय तत्काल कुछ बातें कही, जिन्होंने न्यायाधीश को भी हैरत में डाल दिया. गांधी ने स्वीकार किया कि अंग्रेजों के विरुद्ध ‘धर्मयुद्ध’ छेड़ कर उन्होंने आग से खेलने का काम किया है. उन्हें पता था कि जिस तरह वह अहिंसा के विचार पर आसक्त हैं, वैसे उनके देशवासी नहीं हैं. उन्होंने चौरी चौरा समेत जितनी भी हिंसा असहयोग आंदोलन के दौरान हुई, उसकी जिम्मेदारी ली और साफ शब्दों में कहा कि ‘जानबूझ कर किए गए अपराध के लिए’ कानून जो भी सजा देता है, वह ‘कड़ी से कड़ी सजा’ उन्हें दी जाए. लेकिन वह ऐसी हो जो उन्हें ‘नागरिक के रूप में उनके सर्वोच्च कर्तव्य का बोध’ कराए. गांधी  ने अपनी बात इन शब्दों के साथ खत्म की कि ‘अपने वक्तव्य में अब यह कह रहा हूं जज महोदय कि आपके पास एक ही रास्ता बचा है. अगर आपको लगता है कि यह सत्ता और कानून, जिसकी आप मदद कर रहे हैं, अगर जनता के हित में है तो मुझे कठिन से कठिन दंड दें या फिर पद से इस्तीफा दे दें.’


गांधी का लिखित वक्तव्य और भी सशक्त था. वास्तव में वह ब्रिटिश शासन की विनाशकारी नीतियों और गलत कामों के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता का घोषणा पत्र था. वह विश्व इतिहास में औपनिवेशिक विरोध की नींव रखने वाला दस्तावेज था. जिसमें राजनीतिक उद्देश्यों और नैतिकताओं का ऊंचा स्थान था. गांधी ने इसमें बताया कि कैसे उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के एक निष्ठावान नागरिक से राजद्रोही बना दिया गया. उन्होंने वर्णन किया कि कैसे ब्रिटेन ने भारत को एक असहाय, किसी भी हमले हमले के विरुद्ध खुद की रक्षा में असमर्थ और अपने ही लोगों के लिए कुछ कर पाने लायक नहीं छोड़ा है. उन्होंने ‘नेक-नीयत’ ब्रिटिश अधिकारियों के बारे में कहा, ‘उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं है कि ब्रिटिश इंडिया में सिर्फ भारतीयों के शोषण के लिए सरकार बनाई गई है. किसी तरह का सुधार या आंकड़ों की बाजीगरी इस बात की सफाई नहीं दे सकती कि भारत के अनेक गांवों में क्यों नंगी आंखों से कंकाल देखे जा सकते हैं.’


गांधी ने और खामियां गिनाई. जिनके मुताबिक ब्रिटिश कानून भले ही न्याय देने की बात करता है, लेकिन उसकी आड़ में शोषण होता है. सबूतों के साथ छेड़छाड़ होती है और खुली आंखों के आगे तमाम चालबाजियां की जाती हैं. वह इन तमाम बातों को अंग्रेजी मुहावरों, दार्शनिक तत्वों वाली उत्कृष्ट बयानबाजी बताते हैं और इनके प्रति जागरूक होने की सलाह देते हैं. इसके बाद वह अभियोगों को गद्य की सहज-सरल भाषा के चतुराई से इस्तेमाल किए जाने की बात करते हुए कहते हैं, ‘स्नेह को कानून से निर्मित या नियंत्रित नहीं किया जा सकता.’ कानून नफरती भाषण को आपराधिक श्रेणी में तो रख सकता है लेकिन यह आपको दूसरों से प्यार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता.


गांधी के मुताबिक उन्हें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि न्यायाधीश उनकी बात से प्रभावित होंगे या उनके फैसले पर इन बातों का कोई प्रभाव पड़ेगा, लेकिन ब्रूमफील्ड निश्चित ही उनसे बहुत ‘प्रभावित’ हुए, या उससे भी कहीं अधिक रूपांतरित. उन्होंने लिखा, ‘कानून की नजर में सब बराबर हैं, लेकिन वह इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि ‘गांधी एक दूसरी तरह के व्यक्ति’ हैं, जिनके विरुद्ध उन्होंने मुकदमा सुना. वह इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं कर सके कि वास्तव में गांधी ‘करोड़ों लोगों की नजर में’ महान देशभक्त, बड़े नेता और ‘ऊंचे मूल्यों तथा श्रेष्ठ बल्कि संत की तरह जीवन जीने वाले व्यक्ति थे.’ फिर भी एक न्यायाधीश के रूप में उन्हें अपनी ड्यूटी का निर्वाह करना था और गांधी को ‘कानून के मुजरिम’ के रूप में देखना था, जिन्होंने खुद कानून का उल्लंघन करने की बात स्वीकार की थी.’


ब्रूमफील्ड ने गांधी को छह साल साधारण जेल की सजा सुनाई और साथ ही कहा कि कोई अन्य व्यक्ति उनसे अधिक खुश नहीं होगा अगर सरकार भारत में हो रही घटनाओं को देखते हुए इस सजा की अवधि को कम कर दे. पूरे मुकदमे की कार्यवाही में अभूतपूर्व शिष्टता थी और एक तरह का साहस भी. हर किसी ने जज के फैसले की प्रशंसा की और इस पर सरोजिनी नायडू ने लिखा, ‘लोगों के दुख की भावनाओं का ज्वार फूट पड़ा था और गांधी के साथ धीमे-धीमे जुलूस ऐसे चल रहा था, जैसे कोई तीर्थयात्रा के लिए निकला हो.’ मीलों तक लोग गांधी को घेर कर चल रहे थे. कुछ रो रहे थे. कुछ उनके पैरों में गिर रहे थे. उन दिनों आजादी की लड़ाई का समर्थन कर रहे अंग्रेजी अखबार ‘द बॉम्बे क्रॉनिकल’ के मुताबिक ‘दुनिया के महानतम व्यक्ति’ के विरुद्ध चले इस मुकदमे ने लोगों को सुकरात के आखिरी क्षणों की याद दिला दी, जब वह ‘शांत भाव से मुस्कराते हुए’ आखिरी क्षणों में अपने शिष्यों के साथ थे. मुकदमे के प्रत्यक्षदर्शियों को इस बात के लिए माफ कर दिया जाना चाहिए कि उनकी नजर में यहां सत्ता खुद ही कठघरे में खड़ी हुई थी.



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