साल 2006 में बिहार की महिलाओं को पंचायती राज चुनाव में 50 फीसदी आरक्षण दिया जा चुका था. चुनाव भी संपन्न हो चुके थे. नीतीश कुमार दिल्ली में थे किसी कार्यक्रम के सिलसिले में. वहाँ उन्होंने एक शानदार बात कही थी, जो महिला आरक्षण क़ानून को पास किए जाते वक्त याद करने की जरूरत है. उन्होंने पंचायत में 50 फीसदी महिला आरक्षण पर लग रहे आरोपों को ले कर कहा था, “थोड़ा रुकिये. बदलाव आपको दिखेगा. अभी हमारे यहाँ दो एमपी होते हैं. एक मुखिया पति, दूसरा मेंबर ऑफ पार्लियामेंट. लेकिन, समय के साथ महिलाएं जब अपने अधिकार और रुतबे से वाकिफ होंगी तो ये “मुखियापति” यानी एमपी साहब किनारे कर दिए जाएंगे.” नीतीश कुमार का यह बयान कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं.
मसलन, समाज में चेंज किसी रिवाल्यूशन के कारण नहीं आता बल्कि यह इवोल्यूशन (क्रमिक विकास) का परिणाम होता है, बशर्ते आप सिर्फ़ बदलाव के एजेंट मात्र के रूप में काम करें. 17 साल बीत गए. आज बिहार की महिला मुखियाएं कमाल कर रही हैं. ऋतु जायसवाल जैसी महिला मुखिया यूएन जैसी अंतरराष्ट्रीय मंच तक गयी और आज बिहार की राजनीति में अपने मुखिया रहते किए हुए कामों की बदौलत शानदार स्थान बना चुकी हैं. यानी, 2006 में नीतीश कुमार ने महिला आरक्षण की जो नींव रखी थी, वह आज फलीभूत होती दिख रही हैं. विजनरी वर्क इसे ही कहते हैं, जो लंबे समय में अपनी सार्थकता साबित करें.
बिहार मॉडल: आधी आबादी को पूरा हक़
आधी आबादी को एक तिहाई हक़ देने में भारतीय लोकतंत्र को 75 साल लग गए. महिला आरक्षण विधेयक का कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने स्वागत किया, किया भी जाना चाहिए, भले विपक्ष इसमें अब भी कोटा विदिन कोटा की बात कर रहा हैं. भारत में आरक्षण को ले कर पॉपुलर कल्चर (मीडिया-बुद्धिजीवियों के एक ख़ास वर्ग में) में एक पूर्वाग्रह से भरी हुई धारण काम करती है. एक पक्ष आरक्षण को नकारता है या उसके आधार को बदलने की बात करता है तो दूसरा पक्ष इसे और इंटेंस और डीप बनाने की वकालत करता है. जैसा कि अभी महिला आरक्षण क़ानून में ओबीसी कम्युनिटी को शामिल किए जाने को ले कर बहस हो रही हैं. इन तमाम विवादों से इतर, अच्छी बात यह है कि विपक्ष ने भी इस विधेयक का समर्थन किया.
यह वक्त हैं महिला आरक्षण के स्वरुप पर ईमानदारी से एक नजर डालने की. बिहार में लंबे समय से महिला सशक्तीकरण के प्रयास किए जा रहे हैं. साल 2006 में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50% आरक्षण दिया गया. 2007 से शहरी स्थानीय निकायों में भी महिलाओं के लिए 50% आरक्षण की शुरुआत हुई. 2006 से ही महिलाओं को प्राथमिक शिक्षक भर्ती में 50% आरक्षण दिया जा रहा है और 2016 से सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35% आरक्षण का प्रावधान किया गया है. बिहार आज देश का इकलौता राज्य है, जहां महिला पुलिसकर्मियों की भागीदारी देश में सबसे अधिक है. इसके अलावा मेडिकल, इंजीनियरिंग और खेल विश्वविद्यालयों के तहत संस्थानों में छात्राओं के लिए 33% सीटें आरक्षित हैं, जो भारत में पहली बार है. इसके अलावा, महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों में संगठित करने के लिए जीविका नाम से एक परियोजना शुरू की गयी. तत्कालीन केंद्र सरकार ने इसी तर्ज पर आजीविका कार्यक्रम शुरू किया था. अब तक, 10.47 लाख स्वयं सहायता समूह बनाए जा चुके हैं, जिनमें 1.3 करोड़ से अधिक महिलाएँ जीविका दीदियाँ हैं.
महिला सशक्तीकरण की “मूक क्रान्ति”
हिन्दुस्तान जैसे देश में जातिविहीन समाज की कल्पना, एक यूटोपियन सपने से कम नहीं. जाति हैं, जाति आधारित आर्थिक विषमताएं भी हैं, जाति आधारित सामाजिक-शैक्षणिक पिछडापन भी है. यह लगा बात है कि पिछले 75 सालों के अफर्मेटिव एक्शन के बदौलत पिछड़े लोगों के जीवन में बदलाव आया है. लेकिन, यह बदलाव अभी भी पर्याप्त नहीं है. तिस पर महिलाओं की स्थिति, आप सहज ही कल्पना कर सकते हैं. यही वजह है कि पंचायतों/शहरी निकायों में 50 फीसदी आरक्षण देते हुए नीतीश कुमार ने समाज के सभी वर्गों, सामान्य, पिछड़ा, अति पिछड़ा, एससी आदि का ख्याल रखा. इसी तर्ज पर सरकारी नौकरियों में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी. और एक सबसे दिलचस्प बात यह कि इस आरक्षण व्यवस्था से मोटे तौर पर सामान्य वर्ग की महिलाओं को सरकारी नौकरी पाने के मामले में ठीकठाक संख्या में लाभ मिला. वजह, शैक्षणिक रूप से वे अग्रणी पंक्ति में थी. शिक्षिका हो या नर्स, इसके लिए आवश्यक ट्रेनिंग आदि वो पहले से ले चुकी थी और नीतीश कुमार की नई आरक्षण नीति जब लागू हुई तो उन्हें इसका जबरदस्त फ़ायदा मिला. साथ ही, अन्य श्रेणियों की महिलाओं ने ही इसका फायदा उठाया. आज बिहार में, महिला पुलिसकर्मियों की संख्या हो, नर्सेज की संख्या हो, शिक्षकों की संख्या हो, इसमें महिलाओं (सामान्य श्रेणी समेत, आबादी के अनुसार) की संख्या शानदार स्थिति में हैं. आप बिहार के किसी भी शहर के रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड पर सुबह-सुबह जाइए, आपको महिलाएं बड़ी संख्या में अपने कार्य स्थल पर जाते हुए दिखेंगी. यह इतनी बड़ी संख्या हैं, जिसे देख कर आप सहज ही बिहार में महिला सशक्तिकरण की एक “मूक क्रान्ति” को अनुभव कर सकेंगे.
महिला सशक्तीकरण: लोहिया से मोदी तक
महिला आरक्षण क़ानून का समर्थन करते हुए, नीतीश कुमार ने कहा है, “मेरा दृढ़ मत है कि संसद में महिला आरक्षण के दायरे में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की महिलाओं को भी आरक्षण दिया जाना चाहिए.” चूंकि, इस क़ानून के अनुसार, जनगणना की जानी है और उसके बाद चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाएगा. इन कदमों के बाद ही प्रस्तावित विधेयक के प्रावधान लागू हो सकेंगे. नीतीश कुमार की मांग है कि जनगणना समय पर पूरी होनी चाहिए थी और जनगणना के साथ जाति जनगणना भी होनी चाहिए. उनका कहना है कि अगर जातीय जनगणना पहले हो जाती तो पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षण तुरंत लागू किया जा सकता था. बहरहाल, इस डिबेट को थोड़ा अतीत के आईने से देखें तो डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने ग्वालियर से राजमाता विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ एक मेहतरानी सुक्खो रानी को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संशोपा) के टिकट पर चुनाव मैदान में उतारा था.
सुक्खो रानी हार गयी थी, लेकिन आज उनकी पीढी (उनके पोते की पत्नी) मध्य प्रदेश में मंत्री रही. यह कमाल बिना महिला आरक्षण के इसलिए संभव हो सका कि लोहिया जैसे विजनरी नेता उस वक्त थे. याकि बिहार में भी भगवती देवी, जो पत्थर तोड़ने का काम करती थी, लालू यादव के समय चुनावी लड़ाई में शामिल हुई और विधायक बनी. कहने का अर्थ यह है कि आरक्षण का लाभ किसे मिले? भारतीय राजनीति में शुरू से दबदबा बनाए रानी-महारानी को या सुक्खो रानी या भगवती देवी जैसी महिलाओं को? आदर्श स्थिति क्या हो सकती है, इसका जवाब, इसका मॉडल, बिहार में उपलब्ध है, जहां आरक्षण के जरिये समावेशी सशक्तिकरण की कोशिश की गयी. स्वयं पिछड़ी जाति से आने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी क्या नीतीश कुमार के बिहार मॉडल से सीख लेते हुए महिला आरक्षण क़ानून को और अधिक समावेशी बनाने की कोशिश करेंगे?
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