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चंडीगढ़ मेयर चुनाव और इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों से जुड़े हैं कई सवाल, कौन लेगा चुनावी तंत्र में निष्पक्षता की गारंटी

चुनावी तंत्र और चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ होती है. इसका सीधा संबंध नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकारों से है. सुप्रीम कोर्ट से दो फ़ैसले आए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर 15 फरवरी को फ़ैसला सुनाया. इसमें राजनीतिक चंदे के लिए लाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक घोषित किया गया.

उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 30 जनवरी को हुए चंडीगढ़ मेयर चुनाव में हुई धाँधली को लेकर 20 फरवरी को आदेश पारित किया. इसमें प्रिज़ाइडिंग ऑफिसर अनिल मसीह की हरकतों को कदाचार मानते हुए इसे लोकतंत्र की हत्या का एक प्रयास बताया गया.

चुनावी तंत्र की निष्पक्षता है महत्वपूर्ण

संसदीय व्यवस्था में चुनावी तंत्र के तहत ही राजनीतिक दल होते हैं. चुनाव की प्रक्रिया पूरी होती है. इस प्रक्रिया के ज़रिए ही विधायिका और सरकार का स्वरूप तय होता है. चुनाव की महत्ता को देखते हुए ही हमारे संविधान में निष्पक्ष चुनाव आयोग की व्यवस्था की गयी है. संसद के दोनों सदनों राज्य सभा और लोक सभा के साथ ही राज्य विधान मंडलों के चुनाव के लिए संविधान के भाग 15 में निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक संस्था का प्रावधान है. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी भी इसी आयोग के पास है. इसके साथ ही संविधान के भाग 9 और 9A में पंचायतों और नगर निकायों में चुनाव के लिए राज्य निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की गयी है. इन दोनों ही संस्थाओं पर अपने-अपने दायरे में आने वाले चुनाव में निष्पक्षता सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी है.

नागरिक अधिकारों से खिलवाड़ का मुद्दा

चुनावी तंत्र और प्रक्रिया पर देश के नागरिकों का भरोसा क़ायम रहे, इसकी ज़िमेम्दारी चुनाव आयोग के साथ ही विधायिका, कार्यपलिका और न्यायपालिका तीनों की है. संविधान में इस तरह की व्यवस्था का एकमात्र मकसद है कि पूरी चुनावी प्रक्रिया स्वतंत्र और निष्पक्ष रहे. चुनावी तंत्र से मतलब सिर्फ़ मतदान की प्रक्रिया से नहीं है. चुनावी तंत्र में राजनीतिक दल की चुनाव से जुड़ी गतिविधियाँ शामिल है. बतौर मतदाता देश के आम लोग इसका हिस्सा हैं. राजनीतिक चंदे से लेकर वोट मांगने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से अपनायी जाने वाली प्रक्रिया और प्रचार का तरीक़ा..यह सब कुछ चुनावी तंत्र का ही हिस्सा है. इन सारे आयाम में कहीं भी कोई गड़बड़ी होती है, तो सीधे चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठता है और यह कई तरह से नागरिक अधिकारों से खिलवाड़ का मसला बन जाता है.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश में निहित संदेश

इलेक्टोरल बॉन्ड और चंडीगढ़ मेयर चुनाव से जुड़े आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने जो-जो सवाल उठाए हैं, वो बेहद ही गंभीर हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक ठहराना और डोनर का नाम सार्वजनिक करने का निर्देश देना या फिर चंडीगढ़ में प्रिज़ाइडिंग ऑफिसर की हरकतों को ग़लत बताकर नतीजे को सुधार देना..तक ही सुप्रीम कोर्ट का आदेश सीमित नहीं है. इसमें भविष्य के नज़रिये से चुनाव आयोग से लेकर सरकार और तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक संदेश भी है. यह संदेश स्पष्ट है कि चुनावी तंत्र या चुनावी प्रक्रिया की गरिमा से खिलवाड़ करने का हक़ न तो राजनीतिक दलों को है और न ही सरकार को.

भारतीय संसदीय इतिहास में अनोखा केस

चंडीगढ़ मेयर चुनाव में हुई धाँधली भारतीय संसदीय इतिहास में अनोखा केस है. भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव में गड़बड़ी का आरोप कोई नयी बात नहीं है. पहले भी कई चुनाव में अनियमितता की कई घटना सामने आई हैं. अतीत में इनमें से कई मामले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी पहुँचे.

चुनाव में धाँधली के लिए कई तरीक़े आजमाए जाते रहे हैं. पहले पर्दे के पीछे छिपकर गड़बड़ियाँ की जाती थी. चंडीगढ़ का मामला ऐसा है, जिसमें गड़बड़ी को कैमरे की मौजूदगी में अंजाम दिया. जिस शख़्स पर चुनाव को निष्पक्षता के साथ संपन्न कराने की ज़िम्मेदारी होती है, उसी ने इस घिनौनी हरकत को करने में ढिठाई की सभी हद पार कर दी. स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीक़े से चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी प्रिज़ाइडिंग ऑफिसर या रिटर्निंग ऑफिसर की होती है.

कैमरे के सामने धाँधली का अनोखा मामला

चंडीगढ़ मेयर चुनाव 30 जनवरी को हुआ था. चुनाव को निष्पक्षता के संपन्न कराने के लिए अनिल मसीह को  प्रिज़ाइडिंग ऑफिसर बनाया गया था. अनिल मसीह चंडीगढ़ नगर पालिका के एक मनोनीत पार्षद हैं, जिनका संबंध बीजेपी से है. अनिल मसीह को भली भाँति पता था कि चुनाव की पूरी कार्यवाही सीसीटीवी में रिकॉर्ड हो रहा है. इसके बावजूद उन्होंने जानबूझकर आठ बैलेट पेपर को विरूपित करने का प्रयास किया, ताकि इन बैलेट पेपर को अवैध घोषित किया जा सके. सभी बैलेट पेपर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के पार्षदों के थे.

राजनीतिक और सरकारी तंत्र भी कटघरे में

सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने आदेश में स्पष्ट तौर से कहा है कि चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए अनिल मसीह को बैलेट पेपर को ख़राब करते हुए वीडियो में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. कोर्ट ने अनिल मसीह के ख़िलाफ़ आपराधिक मुकदमा चलाने का आदेश दिया है. अनिल मसीह ने चुनावी प्रक्रिया में कदाचार किया. कैमरे के सामने इस प्रकार का व्यवहार भारत में शायद ही कभी देखने को मिला है. अनिल मसीह का व्यवहार पूरे सिस्टम पर सवाल है. यहाँ सिर्फ़ चुनावी तंत्र कटघरे में नहीं है, बल्कि राजनीतिक और सरकारी तंत्र को लेकर भी कई सवाल खड़े होते हैं.

किसको लाभ, किसकी शह पर गड़बड़ी?

अनिल मसीह की हरकत से किसे लाभ हुआ, सबसे बड़ा सवाल यही है. इसी सवाल के जवाब में एक और महत्वपूर्ण मसला निहित है. एक मनोनीत पार्षद को बतौर प्रिज़ाइडिंग ऑफिसर इतना साहस कहाँ से आ गया कि उसे कैमरे का भी भय नहीं रहा. आख़िर उसने किसके कहने पर, किसके भरोसे पर इस कार्य का अंजाम दिया. इसका जवाब अनिल मसीह को तो देना ही पड़ेगा. साथ ही अनिल मसीह के इस कदाचार से जिसे लाभ हुआ, उसकी भी जवाबदेही बनती है.

अगर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट बीच में नहीं आता, तो अनिल मसीह ने अपने व्यवहार से यह सुनिश्चित कर दिया था कि चंडीगढ़ में बहुमत नहीं होने पर भी अगले एक साल तक बीजेपी का मेयर होता. जब 30 जनवरी को चंडीगढ़ मेयर का चुनाव हुआ था, तो अनिल मसीह ने  8 बैलेट पेपर अवैध घोषित कर दिया. इससे आम आदमी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के साझा उम्मीदवार कुलदीप कुमार के ख़िलाफ बीजेपी उम्मीदवार मनोज सोनकर के जीतने का रास्ता साफ हो गया. बीजेपी के उम्मीदवार को कुल 16 मत मिले और आप-कांग्रेस उम्मीदवार को 12 मत ही मिल पाया.

चंडीगढ़ मेयर चुनाव में कुल 36 मत हैं. इनमें 20 मत आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बन रहे थे. जबकि इस मोर्चे पर बीजेपी 16 मतों के साथ अल्पमत में थी. अनिल मसीह के खेल से बीजेपी उम्मीदवार 30 जनवरी को जीत दर्ज करने में सफल रहा.

बीजेपी को भी पता था कि मामला सुप्रीम कोर्ट में गया है. बीजेपी को उम्मीद रही होगी कि चुनाव रद्द हो जाएगा और नए सिरे से चुनाव की फिर संभावना बनेगी. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से पहले ही बीजेपी उम्मीदवार मनोज सोनकर मेयर पद से इस्तिफ़ा दे देते हैं. इस बीच में आम आदमी पार्टी के तीन पार्षद बीजेपी का दामन थाम लेते हैं. इसके ज़रिये बीजेपी यह सुनिश्चित कर लेती है कि दोबारा चुनाव होने पर उसकी जीत पक्की हो जाए.

सुप्रीम कोर्ट में मामला नहीं पहुँचता तो..

वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का, जिसने 30 जनवरी की चुनाव प्रक्रिया के आधार पर ही आम आदमी पार्टी के पार्षद कुलदीप कुमार को मेयर घोषित कर दिया. अनिल मसीह ने जिन 8 बैलेट पेपर को अवैध घोषित किया था, उसे सुप्रीम कोर्ट ने वैध माना. इससे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में 20 वोट हो जाते हैं और बीजेपी के उम्मीदवार के 16 वोट से यह अधिक हो जाता है. इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अनिल मसीह के घोषित नतीजे को निरस्त कर दिया और आम आदमी पार्टी -कांग्रेस गठबंधन के उम्मीदवार कुलदीप कुमार को शहर का नया मेयर घोषित किया.

गड़बड़ी से सीधे तौर पर बीजेपी को लाभ

कहने को तो मेयर का चुनाव था..छोटा चुनाव था, लेकिन जिस तरह की धाँधली को अंजाम दिया गया, उसका दूरगामी प्रभाव पड़ने वाला था. 30 जनवरी के पूरे प्रकरण से सीधे तौर से एकमात्र लाभ केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी को हो रहा था. ऐसे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर भी जवाबदेही बनती है. उस चुनावी प्रक्रिया में एक मत चंडीगढ़ की लोक सभा सांसद का भी था. वर्तमान में बीजेपी की किरण खेर वहाँ से सांसद हैं. उन्होंने भी मतदान में हिस्सा लिया था. ऐसे में उनकी भी जवाबदेही बनती है.

चुनावी लोकतंत्र में मूल जनादेश का महत्व

चंडीगढ़ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि चुनावी लोकतंत्र की प्रक्रिया में छल-प्रपंच के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का ज़िक्र किया है. कोर्ट का कहना है कि देश की शीर्ष अदालत होने के नाते यह ज़िम्मेदारी है कि चुनावी लोकतंत्र का मूल जनादेश सुरक्षित रखने के लिए असाधारण स्थिति पैदा होने पर अदालत हस्तक्षेप करे. संविधान के अनुच्छेद 142 का प्लेनरी पावर सुप्रीम कोर्ट के पास है. इसी अनुच्छेद से मिले अधिकार के तहत सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ मेयर मामले में 30 जनवरी के चुनाव परिणाम को रद्द और दरकिनार करते हुए आम उम्मीदवार को वैध रूप से निर्वाचित मेयर घोषित कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही है. कोर्ट का कहना है कि इस तरह के कदम उठाने की अनुमति देना लोकतंत्र के सबसे मूल्यवान सिद्धांतों के लिए विघटनकारी होगा. न्यायालय को ऐसी असाधारण परिस्थितियों में कदम उठाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्थानीय भागीदारी स्तर पर चुनावी लोकतंत्र का मूल जनादेश संरक्षित रहे.

बैलेट पेपर किस आधार पर अवैध घोषित किए जा सकते हैं, इसको लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है.  चंडीगढ़ नगर निगम (प्रक्रिया और कार्य संचालन) विनियम 1996 के नियम 6 के मुताबिक़ बैलेट पेपर सिर्फ़ तीन परिस्थितियों में अवैध हो सकता है....

  • एक से अधिक वोट डाले गए हों.
  • मतदाता की पहचान करने वाला कोई निशान हो
  • चिह्न अस्पष्ट तरीके से लगाए गए हों, जिनसे पता नहीं चले कि वोट किसे दिया गया है.

बैलेट पेपर को अवैध करने का आधार नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इनमें से कोई भी परिस्थिति अनिल मसीह की ओर से अवैध किए गए 8 बैलेट पेपर में मौजूद नहीं है. इसलिए उन 8 बैलेट पेपर वैध माना जाना चाहिए क्योंकि बैलेट पेपर के आख़िर में पीठासीन अधिकारी द्वारा लगाए गए स्याही के निशान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है.

भविष्य में कोई भी प्रिज़ाइडिंग ऑफिसर ऐसा नहीं करे, अन्यथा आपराधिक मुकदमा चलाया जाएगा.  सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के ज़रिये यह भी मैसेज देने की कोशिश की है. अनिल मसीह का आचरण तो ग़लत था ही, कोर्ट में उन्होंने ग़लत बयान भी दिया. इसके लिए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने अनिल मसीह के ख़िलाफ़ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के तहत आपराधिक कार्यवाही शुरू करने को लेकर नोटिस जारी करने का भी आदेश दिया है.

चुनावी तंत्र की शुचिता और सुप्रीम कोर्ट के आदेश

एक हफ़्ते के भीतर जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी तंत्र में शुचिता बनाए रखने से जुड़े दो मामलों में ऐतिहासिक निर्णय दिया है, उसको देखते हुए अब चुनाव आयोग और मोदी सरकार की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. पहले से ही ईवीएम में गड़बड़ी में को लेकर मोदी सरकार विपक्ष के साथ ही आम लोगों में से एक बड़ी आबादी के निशाने पर है. मुख्य चुनाव आयुक्त और बाक़ी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए बने पिछले साल क़ानून से भी चुनावी तंत्र की निष्पक्षता को लेकर सवाल उठने लगे हैं. इस क़ानून से  मुख्य चुनाव आयुक्त और बाक़ी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी मनमानी की आशंका हमेशा ही बनी रहेगी. ऐसे में चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी हमेशा ही सवालों के घेरे में रहेगी.

अवैध योजना से हासिल राशि वैध कैसे?

इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये पिछले छह साल में तमाम राजनीतिक दलों को 16 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक की राशि बतौर चंदा हासिल होता है. सवाल उठता है कि योजना अवैध और असंवैधानिक घोषित हो जाती है, तो, उससे हासिल राशि वैध कैसे मानी जा सकती है, मोदी सरकार के साथ ही चुनाव आयोग को भी इस दिशा में जवाब देने की ज़रूरत है. जो योजना पारदर्शिता के नाम पर लाई गयी थी, उसमें आम नागरिकों के लिहाज़ से दूर-दूर तक पारदर्शिता का कोई कोना नहीं बनाया गया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में भी इस पहलू पर विस्तार से ज़िक्र किया गया है.

बॉन्ड से हासिल राशि पर विपक्षी दलों की भी चुप्पी

इलेक्टोरल बॉन्ड और चंडीगढ़ के उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि राजनीतिक दलों और सरकार की नज़र में चुनावी तंत्र और प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता का कोई ख़ास मायने नहीं रह गया है. अगर ऐसा होता, तो इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में विपक्षी दलों के नेता इस सवाल को लेकर ज़रूर आंदोलित होते कि अवैध और असंवैधानिक योजना से हासिल राशि वैध कैसे है. इस मामले पर तमाम विपक्षी दल चुप्पी साधने में ही अपनी-अपनी भलाई समझ रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद होना यह चाहिए कि तमाम विपक्षी दलों के नेताओं की ओर से अवैध बॉन्ड योजना से प्राप्त राशि की वापसी को लेकर मुहिम चलाई जाती. हालाँकि राशि वापसी या रिकवरी को लेकर सत्ता से लेकर तमाम दल एक ही पाले में नज़र आ रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी ओर से इसकी आशंका जतायी थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से सत्ताधारी दल और सरकारों से कंपनियों और बड़े-बड़े कारोबारियों को फेवर मिल सकता है. मार्च में डोनर के नाम सार्वजनिक होने के बाद अब इसकी भी जाँच होनी चाहिए कि कहीं चंदा देकर कंपनियों और बड़े-बड़े कारोबारियों को सरकार से या फिर राजनीतिक दलों से कोई फ़ाइदा तो नहीं मिला है.

धर्म और जाति के नाम पर राजनीति

राजनीति और चुनावी प्रक्रिया में बाहुबल और धनबल का प्रभाव और घालमेल वर्षों पुराना रहा है. तमाम कोशिशों के बावजूद इस दिशा में सुधार नहीं हो पाया है. समय के साथ चुनावी प्रक्रिया में इनका महत्व और बढ़ते ही जा रहा है. अब तो चुनाव में धर्म और जाति के नाम पर खुल्लम-खुल्ला वोट बैंक साधने की कोशिश में हर राजनीतिक दल और उसके नेता जुटे हैं. हम देखते हैं कि चुनाव प्रचार में भी तमाम नेता धार्मिक और जातिगत भावनाओं को उभारने और उनके नाम पर वोट मांगने बिल्कुल भी भयभीत नहीं होते हैं. इस पहलू पर चुनाव आयोग की भूमिका मूकदर्शक से ज़ियादा नहीं दिखती है. जबकि हमारे संविधान में संवैधानिक और क़ानूनी तौर से चुनाव आयोग को बेहद ताक़तवर संस्था के तौर पर शामिल किया गया है. इसके बावजूद हाल-फ़िलहाल के वर्षों में खुलेआम धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगा जा रहा है. सरकार भी मौन है और चुनाव आयोग भी.

आम नागरिकों का ही सबसे अधिक नुक़सान

चुनावी प्रक्रिया से खिलवाड़ या धाँधली और चुनावी तंत्र पर सरकार का हावी होना, किसी भी तरह से लोकतंत्र के लिए सही नहीं माना सकता है. इसमें सबसे अधिक और भयानक नुक़सान देश के नागरिकों का ही है. चुनावी प्रक्रिया पर सरकार या राजनीतिक दलों के पूरी तरह से हावी होते ही, नागरिक अधिकारों में कटौती का सिलसिला तेज़ हो जाता है. इस बात को नहीं भूलना चाहिए. जनमत निर्माण से लेकर चुनाव प्रचार में धर्म और जाति के मुद्दों को हावी रखकर चुनाव के वास्तविक महत्व से ही नागरिकों को दूर ले जाने की कोशिश हो रही है. नागरिक केंद्रित विमर्श की जगह पर राजनीतिक दलों ख़ासकर सत्तारूढ़ दलों के हित से जुड़े विमर्श तक ही पूरी चुनावी प्रक्रिया को सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है.

चुनावी तंत्र की निष्पक्षता की गारंटी कौन लेगा?

देश लोक सभा चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है. ऐसे में चुनावी विश्वसनीयता को लेकर उठते सवालों पर देश के नागरिकों को आश्वस्त करने की ज़िम्मेदारी किसकी बनती है. देश के प्रधानमंत्री होने के साथ ही सबसे बड़े सत्ताधारी दल बीजेपी का वरिष्ठ नेता होने के नाते नरेंद्र मोदी को हर वो प्रयास करना चाहिए, जिससे आम नागरिकों में पूरे चुनावी तंत्र और राजनीतिक दलों पर भरोसा बरक़रार रहे. इस दिशा में व्यवहार में सरकार का सर्वेसर्वा होने की वज्ह से प्रधानमंत्री की जवाबदेही सबसे अधिक बनती है.

इसके साथ ही मुख्य चुनाव आयक्त को भी ईवीएम में गड़बड़ी होने से जुड़ी हर आशंका को दूर करने पर खुलकर सामने आना चाहिए. अगर आरोप लगे रहे हैं, ईवीएम टेम्परिंग और डेटा हेर-फेर की आशंका है, तो उसका निराकरण करने की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही मुख्य चुनाव आयुक्त की बनती है. संसदीय व्यवस्था में यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका हो या फिर चुनाव आयोग जैसी संविधान के तहत बनी कोई भी संस्था हो.. सबकी जवाबहेदी सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता को लेकर ही है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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