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'शहरों का नाम बदलना भारतीयता को फिर से स्थापित करने जैसा, इसमें कुछ भी नहीं है ग़लत'

औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नया नामकरण छत्रपति संभाजी नगर और धाराशिव कर दिया गया है. इसी तरह से अन्य शहरों, जहां पर विदेशी आक्रांताओं ने शासन किया था और अपने मुताबिक उन शहरों का नामकरण किया था उन शहरों के नाम फिर से भारतीय प्राचीन इतिहास के मुताबिक बदलने के लिए आयोग बनाने की मांग सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल याचिका दायर कर की गई थी.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग को ठुकराते हुए इसे संविधान के प्रस्तावना में निहित मूल सिद्धांत, अनुच्छेद14 और नीति निदेशक तत्वों का हवाला देते हुए खारिज कर दिया.  सवाल उठता है कि क्या शहरों का नाम नहीं बदला जाना चाहिए. ये प्रश्न मूलतः भारतीय परंपरा या सनातनी दृष्टि से जुड़ा है. ये सभी को मालूम है कि हमारी सभ्यता हजारों-हजारों साल पुरानी रही है. उस वक्त जो भी हमने नामकरण किया था वो हमलोगों ने अपने शास्त्रों और साहित्यों में उल्लेखित नामों के आधार पर किया था.

जब हम अतीत में देखेंगे तो यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि उस वक्त जो भी बाहरी आक्रांता आए, उन लोगों ने यहां के जगहों का नाम अपने-अपने हिसाब से रखा. अब हम उसे ही अपनी भारतीय परंपरा के अनुरूप  कर रहे हैं. अगर फिरोज शाह तुगलक को ही लिया जाए, तो उसने अपने शासन काल में 300 शहरों को बसाया और सभी का नामकरण अपने तरीके से किया या अपनी शासन व्यवस्था के अनुरूप किया.

अब बड़ा प्रश्न ये है कि हमारी दृष्टि क्या है? हमारी दृष्टि तो मूलतः एक भारतीय दृष्टि है, जो भारतीय परंपरा से जुड़ी है. जो शास्त्र में लिखा है, लोक परंपरा के तहत जो बातें रही हैं, वहीं भारतीयता की पहचान है. ये जो पहचान है, वो कोई 500 या 600 सालों से नहीं बनी है. ये हजारों सालों से बनी है. यदि हमें भारतीयता को जीवंत बनाए रखना है, तो अपने धरोहर या विरासत की मौलिकता को बनाए रखना होगा. शहरों के नाम में बदलाव के जरिए यहीं कोशिश की जा रही है, जो सर्व समाज की इच्छा भी है.

इलाहाबाद का ही उदाहरण ले लीजिए, जिसका नाम अब प्रयागराज हो गया है. इसके पीछे का कारण ये है कि जब हम शोध करते हैं तो हमें पता चलता है कि जो बातें उस स्थान के विषय में सामने निकल कर सामने आ रही हैं, वहां हमें प्रयागराज के बारे में बात करते हैं. अब ये नए विद्यार्थियों के लिए समस्या होती है कि ये नया नामकरण तो अब हुआ है. प्राचीन भारतीय इतिहास की दृष्टि से अगर देखें तो ये हमलोगों के लिए सर्वसुलभ और सर्वविदित भी होगा. ये इतिहास के पुनर्लेखन करने का अवसर है, जिससे विद्यार्थियों को भी अपनी प्राचीन परंपरा समझने में लाभ मिलेगा. भारतीयता की दृष्टि से और शोध के संदर्भ में भी ये बहुत अच्छी बात होगी.

दुनिया की लगभग सभी सभ्यताएं ध्वस्त हो चुकी हैं या होने के कगार पर खड़ी हैं. यदि हम यूनानी सभ्यता को ही देखें तो उसका क्या हश्र हुआ. वो दुनिया की सबसे प्राचीनतम सभ्यता थी लेकिन अब वह बची नहीं रही. आनन्‍द केंटिश कुमारस्‍वामी को ही देखिए, उन्होंने किस तरीके से भारत के ऊपर काम किया था और उसके बाद किस तरीके से हमलोगों के समक्ष एक नजरिया पेश किया था कि अगर सभ्यता के रूप में कोई पूरी दुनिया को कुछ दे सकता है तो वो भारतीय सभ्यता दे सकती है.

इसी संदर्भ में आप रविन्द्र नाथ टैगोर, तिलक, अरविंदो या गांधी को ले लीजिए या आप विद्या निवास मिश्र, कपिल तिवारी, प्रोफेसर आरके मिश्रा को ले लीजिए तो इस तरह के जो विद्वान रहे हैं वो हमारी मौलिक दृष्टि की धारनाओं को स्थापित करते रहे हैं. हमें यह देखना पड़ेगा कि अगर इस तरह का परिवर्तन बन रहा है और उसमें जन चेष्टाएँ शामिल हैं तो ये बदलाव हमलोगों के लिए अपेक्षित और सुनिश्चित हैं.

बड़ा प्रश्न  ये है कि एकता क्या है. असल में समग्रता और राष्ट्रीयता को लिए हुए भारतीयता ही एकता है. चाहे कोई विशिष्ट वर्ग या समुदाय हो, उसे भी इस बात को समझकर स्वीकार करना होगा. शहरों के नाम के भीतर छिपी मौलिक चेतनाओं को समझते हुए ऊपरी पक्ष के आधार पर नहीं सोचना होगा. दूसरी बात ये है कि हम लोग इतनी जल्दबाजी में भी नहीं हैं या ऐसा भी तो नहीं है कि हम हर शहर का नाम बदल रहे हैं. तीसरी बात ये कि जो भी सरकार होती है उसकी एक अपनी दृष्टि होती है और अगर उनकी भारतीयता की दृष्टि रही है और वो उसको रख रहे हैं और जहां तक मुझे लगता है तो इसमें कोई बुराई नहीं हैं. ये तो सर्व समाज मान्य नजरिया है.

आर्य के आक्रमण का सिद्धांत के बारे में सुना होगा. आपको ये मालूम होगा कि इस पर विलियम जोंस की एक थ्योरी थी. जब विलियम जोंस भारत आ रहा था और उसने भारत के बारे में बड़ी बात बोली थी. एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल में उसके अध्यक्षीय भाषण के तहत संबोधन देख लीजिए. उसने अपने संबोधन में ये बात कही थी कि यदि यूरोप को अपने पूर्वाग्रह से ऊपर उठना है तो उसको इस भारतीय दृष्टि को समझना पड़ेगा और सीखना पड़ेगा. चूंकि वो एक भाषा शास्त्री भी था और उसने भारत के संदर्भ में बहुत अच्छी-अच्छी बातें भी कही.  विल क्लिंसन ने गीता का जो अनुवाद किया या स्वयं विलियम जोंस ने अभिज्ञान शाकुंतलम का जो अनुवाद किया, उससे जिस तरह की भारतीय चेतना विदेशों में पहुंची और उसके बाद एक खलबली मची.  उससे भारत के प्रति एक अलग दृष्टिकोण पैदा हुई कि अरे हम तो शासन करने आए थे और हम क्या कर रहे हैं. यहां  विदेशी शासकों ने आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत से जुड़ा एक विवादित विचारधारा रख दी कि आर्य कहां से आए. क्या हमारा ये दायित्व नहीं बनता है कि हम सचेत होकर फिर से उन प्रश्नों और उस दृष्टिकोण को स्पष्ट करें.

कौन सा विषय नहीं है या पक्ष नहीं है कि जिसे दोबारा नहीं लिखा जाना चाहिए. इतिहास हमें हमेशा सजगता सीखाता है. चूंकि हमारे सामने नए शोध, नए तथ्य आते रहते हैं. जैसे उदाहरण के तौर पर अगर आप हड़प्पा सभ्यता को ही लें. उसका जो जनरलाइजेशन हुआ है तो हम लोगों ने मात्र हड़प्पा और मोहनजोदड़ो इन दो शहरों के आधार पर पूरा इतिहास लिख दिया. लेकिन आज आप देखिये कि इतने वर्षों की खुदाई में अनेकानेक स्थल हमारे सामने आ चुके हैं, लेकिन क्या पूर्व के इतिहास लेखन में उनका जिक्र हुआ है. जो जानकारियां निकल कर सामने आ रही हैं, क्या वो हम लोगों तक पहुंच रहा है. ये एक बड़ा प्रश्न है. इतिहास की दृष्टि ही ऐसी है कि वो हमेशा हमको नवोन्मेष के बारे में बताता है. नवोन्मेषी होना इतिहास की एक प्रमुख विशेषता रही है और यही हमारी सनातनी दृष्टि रही है. 

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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