चीन जमीन के अंदर करीब 10 किलोमीटर से ज्यादा की खुदाई कर रहा है. इससे पहले रूस ने इसी तरह की खुदाई की थी. रूस को इस तरह की खुदाई में वर्षों लगे थे और उसने 12 हजार मीटर से अधिक की खुदाई की थी. चीन अपने शिनजियांग प्रांत में 10 किमी गहरी खुदाई शुरू कर चुका है. इस तरह की खुदाई काफी मुश्किल होती है, क्योंकि एक निश्चित गहराई के बाद जमीन की सतह के नीच खौलता लावा मिलता है और मशीनें भी पिघल सकती हैं.
वैज्ञानिक जिज्ञासा से ही होती है खोज
दो तरह की चीजें वैज्ञानिक करते हैं. पहली बात तो जिज्ञासा की है. हरेक वैज्ञानिक बस जानना चाहता है, बाकी उसका नतीजा क्या होगा, वह बाद की बात है. दुनिया की सारी महत्वपूर्ण खोज इसी जिज्ञासा की वजह से हुई है. जैसे, फैराडे ने एक घुंडी में मैग्नेट को घुमाकर देखा तो बिजली बनी. बाद में वह पूरी दुनिया में क्रांति ले आया. हमारी दुनिया रोशन हो गयी. बाकी खोजों के साथ भी यही बात है. जमीन के नीचे का तो हमें मालूम है कि 2 से 100 किलोमीटर तक मिट्टी है, क्रस्ट है, फिर मेटल है, उसके बाद लावा है. समंदर के अंदर 1 से 2 किलोमीटर तक ही क्रस्ट है, उसके बाद लावा निकलने लगता है. तो, सैद्धांतिक तौर से तो चीन को पता है कि क्या है, लेकिन अब तक सबसे डीप डिगिंग रूस ने की थी. वह 12 किलोमीटर नीचे तक गया था और उसमें उसे 6 साल लगे थे, क्योंकि उसके अंदर जाने पर आपका मेटल पिघलने लगता है, तो चुनौती यह भी है कि उस धातु को खोजें जो वहां खुदाई कर सके. तो, नयी खोजें होंगी, उच्च तापमान पर काम करनेवाली मशीनें वगैरह मिलेंगी. दूसरी बात ये है कि भविष्य में ऊर्जा का पूरा स्रोत जियो-थर्मल एनर्जी ही होनेवाला है. बचपन में मैंने एक साइंस-फिक्शन पढ़ा था, जिसमें उन्होंने पूरी एक कॉलोनी ही बसा ली थी, जमीन के नीचे. जमीन के गर्भ में जो लावा है, उससे भी ऊर्जा उत्पादित की जा सकती है, क्योंकि वह ज्वालामुखी की तरह और काफी उच्च तापमान वाला होता है.
वैज्ञानिक शिक्षा पर बहुत कम है हमारा खर्च
मजेदार चीज यह है कि चीन ने शुरुआत की है और अपना एस्ट्रोनॉट भी भेज दिया है. यह देश की नींव होती है, जो तकनीक देता है. डिस्कवरी बहुत जरूरी है. किसी भी देश की तरक्की के लिए इस तरह की डिस्कवरी और एंक्वायरी होती रहनी चाहिए. हमें भी बल्कि ऐसी बातें करनी चाहिए. रूस ने जो खुदाई की, उसके बाद रोक दिया. रूस अस्थिर भी हो गया है. चीन पिछले 10-15 वर्षों में शिक्षा में बहुत आगे बढ़ा है. वह एजुकेशन पर अमेरिका से भी ज्यादा निवेश करता है, हमसे तो करता ही है. शिक्षा और विज्ञान के शोध व विकास पर भी वह बहुत अधिक खर्च करता है. हमारे यहां भी यह होगा, तभी विश्वगुरु बनने का जो सपना हम देख रहे हैं, तभी पूरा हो पाएगा. यूनिवर्सिटी को भी रिसर्च लैब में बदलना होगा. स्कूलों की हालत सुधारनी होगी. अभी तक के हमारे पूरे एजुकेशन सिस्टम में यूनिवर्सिटी केवल डिग्री बांटने की दुकान बन कर रह गयी है, जबकि सभी विकसित देशों में यूनिवर्सिटीज में फंडामेंटल रिसर्च होती है और फिर उसे इंडस्ट्री आगे टेक्नोलॉजी में बदलती है.
चीन अगर इस क्षेत्र में निवेश कर रहा है, तो उसे नतीजे भी मिल रहे हैं. आप किसी देश की तरक्की को जीडीपी से आंकते हैं, आप एक्सपोर्ट से आंकते हैं, दूसरी तरफ आप देखते हैं कि किसी देश में कितने साइंटिफिक पेपर प्रकाशित होते हैं. चीन इस मामले में दूसरे स्थान पर है और बहुत जल्द अमेरिका को भी पीछे छोड़नेवाला है. हमारे देश की हालत इस मामले में बहुत खराब है और हम आठवें या नवें स्थान पर हैं. चीन की तरह भारत को भी इस तरह के काम करने चाहिए. चीन न्यूक्लियर फिजन पर काम कर रहा है, वह अगर पूरा हो गया तो एनर्जी के मामले में सबसे बड़ा हो जाएगा. अगर जियोथर्मल पर काम कर लिया तो पेट्रोल पर उसकी निर्भरता बहुत कम हो जाएगी, जिसके कारण बहुत सारा एक्टिविज्म और आतंकवाद का बाजार बना है, उससे भी वह मुक्त हो जाएगा. फिर, पेट्रोल से तो प्रदूषण भी बढ़ता है. अगर 25 साल में इसको कंट्रोल नहीं किया तो ग्लोबल वार्मिंग तो दुनिया का 15 से 20 फीसदी हिस्सा ही डुबा देगी. तो, अगर ग्लोबल वार्मिंग से बचना है तो इस तरह के उपाय खोजने ही होंगे जो पेट्रोल और डीजल के मुकाबले पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाएं. चीन इस खोद से भूकंप के बारे में जान सकता है. जमीनी डिस्टर्बेंस के बारे में जान सकता है. बहुतेरी चीजें ऐसी होंगी जो उसे पता चलेंगी.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)