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बड़ी और जटिल अर्थव्यवस्था वाले चीन को नहीं कर सकते खारिज, इकोनॉमी हुई है धीमी, लेकिन चीन की धमक रुकेगी नहीं

जिस चीन को कभी अजेय यानी इनविन्सिबल माना जाता था, उस चीन की अर्थव्यवस्था को लेकर भी चर्चा शुरू हो चुकी है. कोविड को बाद लड़खड़ाता चीन अब तक  संभल नहीं पाया है. उसकी विकास दर बेहद कम हो गयी है और सुधार के अधिकांश उपाय अब तक काम नहीं आए हैं. हालांकि, चीन की इकोनॉमी का मर्सिया इतनी जल्दी नहीं लिखना चाहिए, क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था अब भी ड्रैगन जितनी विशाल भी है और धारदार भी. उसकी रफ्तार कम हुई है, लेकिन उसे खारिज करने की भूल नहीं करनी चाहिए. 

चीन में विकास की परतें लगीं दिखने

चीन की अर्थव्यवस्था के साथ एक-दो बातें समझ लेनी चाहिए. एक तो कोई भी अर्थव्यवस्था एक चरित्र के साथ आती है. चीन ने खुद को कई दशकों तक शीर्ष पर रखा. कुछ समय के बाद डिमिनिशिंग रिटर्न का लॉ शुरू हो जाता है. चीन के साथ सबसे बड़ा दुर्भाग्य कोविड का रहा. वह जो अचानक से ब्रेक लगा, उसके बाद चीन संभल ही नहीं पाया. एक क्वार्टर में पिछले वर्षों ऐसा लगा कि शायद बात संभल जाए, लेकिन सच पूछिए तो चीन उसके बाद गिर ही रहा है. उसका कारण यह था कि चीन में जो प्रॉपर्टी-प्राइसेज थे, वो अचानक गिर गए. इसके पीछे वजह ये थी कि जो भी बूम इस मार्केट में पिछले वर्षों में आया था, वह 'स्पेक्युलेटिव बूम' था. वह रीयल ग्रोथ नहीं था. स्पेक्युलेटिव का अर्थ ये हुआ कि निवेशकों को जो लग रहा था कि जमीनों में पैसा लगाओ, घरों में लगाओ और रिटर्न पाओ...तो, अगर बाजार में खरीदार नहीं हैं, तो वह बहुत दिनों तक चलेगा नहीं. वह हमने सबप्राइम-क्राइसिस के दौरान अमेरिका में देखा था. यह इसलिए ऐसा है कि स्पेक्युलेशन पर सारा पैसा है. यह चूंकि बहुत ज्यादा इनवॉल्व्ड होता है, तो यह पूरी इकोनॉमी पर काफी प्रभाव पड़ता है. 

रेस से बाहर नहीं हुआ है ड्रैगन

इतनी जल्दी इतने बड़े आकार के देश को दरकिनार करना मुश्किल है. उसमें भी वह देश, जिसने अच्छे दिन देख रखे हैं, जाहिर तौर पर उनके लीडर्स और अधिकारी तो यही कोशिश कर रहे हैं कि वापस वही दिन आ जाएं. दिक्कत ये हुई है कि चीन पर अन्य देशों का 'भरोसा' बेहद कम हुआ है. चीन की  समस्या केवल आंतरिक नहीं, बाह्य भी है. दोनों मिलकर उसकी परेशानी को बढ़ाता है. आगे वैश्विक राजनीति क्या करवट लेगी, पता नहीं लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था अभी भी बहुत बड़ी है, तो उसके लिए यह एक ऐसा प्रहार है, जिससे वह उबर सकता है. जनसंख्या में जो गिरावट आई है, वह बड़ी है. उसका कारण यह भी है कि नेक्स्ट जो बच्चे हैं, वे नहीं आ रहे हैं. इसका प्राइमरी रीजन महिलाओं की नकार में है. महिलाएं बच्चा पैदा नहीं करना चाहतीं. अधिकांश महिलाओं ने लिबरेशन का मतलब चखा है. तो, इसका सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ेगा चीन पर और सही आकलन तो इतिहास ही करेगा, लेकिन ये जरूर है कि चीन बहुत गहरे बदलाव से गुजरेगा. 

किसी भी इकोनॉमी का स्टेजेज ऑफ ग्रोथ होता है. तो, जो विकास की धारा है, वह प्राइमरी यानी खेती-किसानी वगैरह से शुरू होती है. फिर, अर्थव्यवस्था जब आगे बढ़ती है तो आप निर्माण या मैन्युफैक्चरिंग की ओर बढ़ते हैं. तब आपकी इकोनॉमी के लिए बहुत फायदा नहीं होता. जब आप सर्विस सेक्टर की तरह मूव करते हैं, तो फिर फायदा होता है. चीन ने प्राइमरी से मैन्युफैक्चरिंग की ओर का ग्रोथ देखा है. वह सर्विस सेक्टर की तरफ नहीं बढ़ा है. भारत ने इंडस्ट्री का टेकऑफ नहीं देखा, जितनी तेजी से सर्विस सेक्टर की तरफ घूम गया. इस लिहाज से चीन के मुकाबले ग्रोथ दिखता है. चीन की इकोनॉमी अब यही कोशिस करेगी कि अब इकोनॉमी का रुख बदला जाए. चीन ने क्लाइमेंट चेंज का प्रभाव साफ तौर पर देखा है. बाढ़, बिजली, गर्मी उसके पास इनसे परेशान होने की वजहें है. इसलिए, वह चाहेगा कि उसकी रफ्तार थोड़ी नियंत्रण में हो. वे अब क्वालिटी ऑफ इकोनॉमी की तरफ जाएंगे. हमारा वर्कफोर्स अपने कौशल के हिसाब से जल्दी ही समय के मुताबिक ढल गया. चीन अब इसीलिए, गुणात्मक परिवर्तन चाह रहा है. 

भारत के पास है मौका, आजमाइश कड़ी 

भारत और चीन को अगर देखें, तो हमारा बहुत ऐतिहासिक संबंध रहा है. हम लोग बहुत पुराने समय से व्यापार भी करते रहे हैं. आज के दौर में भी अगर देखें तो दोनों देशों के बीच 120अरब डॉलर का व्यापार हुआ है. ये बहुत बड़ा है. हालांकि, भारत के लिए चिंता की बात है कि इसमें 90 फीसदी सामान चीन से आ रहा है. इसके बाद जब हमने देखा कि हम उसको क्या भेजते हैं, और बदले में चीन हमें क्या भेजता है? तो, हम प्राथमिक अर्थव्यवस्था के घटक जैसे, रुई, ग्रेनाइट, मसाला इत्यादि भेजते हैं, जबकि चीन हमें भेजता है मेमोरी चिप्स, सर्किट्स, फार्मास्यूटिकल में जो इस्तेमाल होते हैं. तो, अभी की सरकार की एक तारीफ तो करनी पड़ेगी कि सरकार ने यह बात भांप ली है और वह रातोंरात तो यह बदल नहीं सकता, इसलिए वह कई चरणों में इस निर्भरता को कम करने की कोशिश कर रहे हैं. पहले तो सामरिक और रणनीतिक महत्व के जो मसलें हैं, सरकार उनको लेकर चल रही है. जैसे, मेमोरी चिप्स हैं, फार्मा इंडस्ट्री के उपकरण हैं, इन तमाम चीजों पर की निर्भरता को कम करना होगा और कई कदम भी लिए गए हैं. टैरिफ भी बढ़ाया गया है.

हमने पहले चीन-भारत सीमा की परिस्थिति देखी है, तो उन आधार पर सरकार आनेवाले आयात को भी देख रही है और यहां की कंपनियां हैं, उसको प्रोत्साहित किया जा रहा है. इसको तो रणनीतिक तौर पर देखें, इसके अलावा व्यापारिक कारण भी हैं. सरकार चीन की तरह ही निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाना चाह रही है. इसलिए, ईएलआई और कई सारे इनसेन्टिव, तो बाहर की कंपनी अभी थोड़ा ठहरकर देख रही है. नौकरशाही से लेकर तमाम चीजें जो एक लोकतंत्र में होते हैं, तो एपल की बात तो कब से चल रही है, पर एपल का प्रोडक्शन तो शुरू नहीं हुआ न. तो, वह एक अलग बात है. 

अभी जो चीन में बेरोजगारी के आंकड़े आए हैं, वे चेतावनी देनेवाले हैं. जो युवाओं में बेरोजगारी की दर है, वो बहुत बड़ा है. कहावत है कि मुसीबत कभी अकेली नहीं आती. तो, अब जितने नकाब थे, वो चीन के चेहरे से उलट रहे हैं. कुछ लोगों के पास बहुत पैसा आया, लेकिन इक्विटी जिसकी बात कम्युनिस्ट शासन में होती है, वह इक्विटी समाज में बंट नहीं पायी. इसका मतलब यह हुआ कि कोई बहुत धनी बने, लेकिन अधिकांश लोग गरीबी में हैं. यही तो कारण है कि घर खाली हैं औऱ साथ में लोग बेघर भी हैं. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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