साल 1949 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता और देश के संस्थापक कहलाने वाले माओत्से तुंग ने कहा कि "राजनीतिक ताकत बंदूक की नली से पैदा होती है, इसलिए राजनीति की इस शक्ति को सैनिक शक्ति से अलग नहीं किया जा सकता है." शक्ति के पुजारी कहे जाने वाले माओत्से तुंग के रास्ते पर ही शी जिनपिंग भी चल रहे हैं, जिनकी तीसरी बार ताजपोशी के लिए आज यानी 16 अक्टूबर को चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की अहम बैठक शुरू हो रही है जिस पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं.


हालांकि चीन की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जिनपिंग को तीसरी बार राष्ट्रपति बनाए जाने के ख़िलाफ़ विद्रोह कर रहा है. लेकिन बड़ी चिंता ये है कि ऐसी बग़ावत के बावजूद भी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना अगर जिनपिंग की ताजपोशी को ही मंजूरी देती है तो वे न सिर्फ आजीवन राष्ट्रपति बने रहेंगे बल्कि पहले से भी ज्यादा ताकतवर तानाशाह बन जाएंगे. इसीलिए भारत और अमेरिका समेत पूरा यूरोप कम्युनिस्ट पार्टी की इस बैठक पर टकटकी लगाए बैठा है.


दरअसल, दुनिया की फिक्र ये है कि जिनपिंग तीसरी बार सत्ता की कमान संभालने के बाद माओ से भी ज्यादा ताकतवर हो जाएंगे और कुछ ऐसे फैसले ले सकते हैं जिन्हें विश्व के लिए किसी भी पहलू से बेहतर नहीं माना जा सकता. यही वजह है कि 16 से 22 अक्टूबर तक चलने वाली इस बैठक के बाद जब जिनपिंग की ताजपोशी का ऐलान होगा तो वह समूची दुनिया के लिए तानाशाही के एक नए युग का आगाज़ होगा जिससे चीन की जनता भी अछूती नहीं रहने वाली है.


दरअसल, चीनी सभ्यता के सबसे बड़े स्तंभ माने जाने वाले संत लाओत्से की विचारधारा को खत्म करने और उनकी निशानियों को ख़त्म करने वाले माओत्से तुंग का स्पष्ट तौर पर ये मानना था कि सिर्फ हिंसा के जरिये ही एक वर्ग किसी दूसरे वर्ग के अधिकारों को समाप्त कर सकता है. ख़ुद माओ ने भी ऐसी ताकत के आधार पर ही सत्ता प्राप्त की थी. माओ सेना को ही राजसत्ता का सबसे प्रमुख अंग मानता था और उसका कहना था कि दुनिया में जो कोई भी राजसत्ता पर नियंत्रण रखना चाहता है और लंबे समय तक उसे कायम रखना चाहता है तो उसके पास एक मजबूत व ताकतवर सेना होना बेहद जरूरी है.


उस लिहाज़ से देखा जाए तो 10 साल पहले साल 2012 में चीन के राष्ट्रपति बनने वाले शी जिनपिंग ने माओ के इन विचारों को न सिर्फ पूरी तरह से अपनाया बल्कि उससे भी दो कदम आगे जाकर चीन को दुनिया की दूसरी ऐसी महाशक्ति बना डाला कि आज अमेरिका भी उससे सीधे कोई पंगा लेने से पहले दस बार सोचता है.


हालांकि माओ के बाद शी जिनपिंग कैसे इतने ताकतवर हो गए इसका पता तो पांच साल पहले तभी लग गया था जब अक्टूबर 2017 में चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रपति  जिनपिंग की विचारधारा को संविधान में शामिल करने का फ़ैसला किया था. यानी, देश के संविधान में शी को चीन के पहले कम्युनिस्ट नेता और संस्थापक माओत्से तुंग के बराबर दर्जा दे दिया गया. तब उस बैठक की शुरूआत में शी जिनपिंग ने तीन घंटे का भाषण दिया था. अपने भाषण में शी ने 'नए युग में चीनी ख़ूबियों के साथ समाजवाद' दर्शन को पहली बार पेश किया था जिसे 'शी जिनपिंग थॉट' नाम दिया गया.


वैसे तो इससे पहले भी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के अपने विचार रहे हैं लेकिन माओत्से तुंग के अलावा किसी के भी विचार को पार्टी संविधान में थॉट के रूप में जगह नहीं दी गई थी. केवल माओ और देंग ज़ियाओपिंग का नाम पार्टी संविधान में उनके विचार को लेकर शामिल किया गया था. पार्टी ने तब इस नए युग को आधुनिक चीन का तीसरा चैप्टर क़रार दिया था.


कहते हैं कि पहला चरण चेयरमैन माओ का था जिन्होंने गृह युद्ध में फंसे चीन को निकालने के लिए लोगों को एकजुट किया था. दूसरा चरण देंग ज़ियाओपिंग का रहा जिनके शासनकाल में चीन और ज्यादा एकजुट हुआ. ज़ियाओपिंग ने चीन को ज्यादा अनुशासित और विदेशों में भी मजबूत बनाया. उसके बाद तीसरा युग शी जिनपिंग का शुरू हुआ जब उनका नाम पार्टी संविधान में शामिल किया गया. जिसके बाद से उन्हें कोई चुनौती नहीं दे पाएगा जब तक कि कम्युनिस्ट पार्टी के नियमों पर कोई आंच न आए.


लेकिन पांच साल पहले शी जिनपिंग थॉट के साथ ही नए तेवर में जिस चीनी समाजवादी युग की शुरूआत हुई थी वह बहुत बड़े तबके को रास नहीं आ रही है इसीलिए जिनपिंग की मनमानी और टॉर्चर करने वाली नीतियों का लोग अब खुलेआम विरोध कर रहे हैं. लेकिन सच ये भी है कि बग़ावत की इस सूरत के बावजूद जिनपिंग की तीसरी ताजपोशी तय मानी जा रही है और उसके बाद वे ऐसी आवाजों को चुप कराने के लिए हर हथकंडा इस्तेमाल करने से पीछे भी नहीं हटने वाले हैं.


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