प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व की आज की बीजेपी अटल-आडवाणी युग की नहीं है. अटल के नेतृत्व में गरिमा, नैतिकता, शुचिता, मर्यादा का पालन करने वाली टीम कभी प्रचंड बहुमत देश में लेकर नहीं आ पाई. अटल का बहुत बड़ा कद था, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में सम्मान लेकिन जनादेश का भरोसा देश की जनता ने उस समय की बीजेपी पर नहीं किया. जरा सोचें, अटल जी की जगह अगर मोदी-शाह होते तो क्या कभी बीजेपी लोकसभा के फ्लोर पर एक वोट से हार जाती? कभी नहीं.
दरअसल आज की बीजेपी में सत्ता की भूख है. मोदी के निर्णयों में इंदिरा गांधी की छाप दिखती है. ना निर्णय लेने में देरी और ना ही सरकार बनाने के लिये विरोधी पार्टियों से गुरेज. सत्ता संघर्ष में सबकुछ जायज. वैसे मोदी-शाह का तो एजेंडा ही 'कांग्रेस मुक्त भारत' का है. इसके लिये उनसे जो भी बन पा रहा है वो सारे काम ये जोड़ी कर रही है और उसमें कामयाब हो रहे हैं. यही वजह है कि एक ओर कांग्रेस जहां देश की आबादी में अब सिर्फ ढाई फीसदी पर सिमट गई है तो बीजेपी/एनडीए 69 फीसदी के साथ देश की आबादी पर काबिज है और बाकी हिस्सों में क्षेत्रीय क्षत्रप.
राजनीतिक ताकत अपने साथ अहंकार लेकर आती है. आज बीजेपी के अंदर उस अहंकार को भी आप देख रहे हैं, वैसे ये सब कुछ कांग्रेस ने ही सिखाया है, आईये जरा इतिहास को टटोलते हैं-
कर्नाटक- कर्नाटक में 80 के दशक में भी राजनीतिक संकट देखने को मिला था. तब तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने जनता पार्टी के एसआर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. बोम्मई ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. फैसला बोम्मई के पक्ष में हुआ और उन्होंने फिर से वहां सरकार बनाई.
गुजरात- 22 साल पहले जब कांग्रेस समर्थन से देवेगौड़ा प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस नेता कृष्णपाल सिंह राज्यपाल थे तब गुजरात विधानसभा में अपना बहुमत साबित कर चुके मुख्यमंत्री सुरेश मेहता सरकार को संवैधानिक संकट बता कर बर्खास्त कर दिया गया था. मौजूदा हालात देखकर ऐसा लग रहा है कि बस किरदार बदल गये हैं, पार्टियां वहीं हैं और इतिहास खुद को दोहरा रहा है. आपको ये भी बता दें कि मौजूदा कर्नाटक में गवर्नर वजूभाई वाला जो खांटी संघ पृष्ठभूमि के हैं. गुजरात में सीएम के लिए भी उनका नाम चला था. नरेन्द्र मोदी के लिए राजकोट की अपनी सीट भी उन्होंने खाली की थी. यानि के मोदी के बेहद खास. उनसे बीजेपी के विरोध की बात सोचना बेमानी है. यही वजह है कि उन्होंने राजधर्म निभाते हुये येदुरप्पा को शपथ दिला दी.
बिहार-बिहार में 22 मई, 2005 की मध्यरात्रि को राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी. उस साल फरवरी में हुए चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. तब केन्द्र में कांग्रेस थी. कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को पलट दिया था.
यूपी- यूपी में भी कांग्रेस ने अपने राज्यपाल के जरिये कुछ ऐसा ही किया.1996 में बीजेपी को करीब पौने दो सौ सीट मिली थी लेकिन बहुमत से वह काफी दूर थी. सपा 100 से अधिक तो बसपा को 60 से अधिक सीटें मिलीं. कांग्रेस सिर्फ 33 सीट पाई थी. इस स्थिति में राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया. इस बीच बीजेपी और बसपा ने गठबंधन कर सरकान बनाई. जो ज्यादा दिन नहीं चली. फिर कल्याण सिंह ने जोड़-तोड़ कर सरकार बनाई, लेकिन 21 फरवरी 1998 को राज्यपाल भंडारी ने कल्याण सिंह को बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को शपथ दिलाई थी. लेकिन अगले ही दिन गवर्नर के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. हाईकोर्ट ने गवर्नर का आदेश बदल दिया, जिसके बाद जगदंबिका पाल को कुर्सी छोड़नी पड़ी.
हरियाणा- 1982 में हरियाणा की 90 सदस्यों वाली विधानसभा के चुनाव हुए थे और नतीजे आए तो त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आई. कांग्रेस-आई को 35 सीटें मिलीं और लोकदल को 31 सीटें. छह सीटें लोकदल की सहयोगी बीजेपी को मिली. राज्य में सरकार बनाने की दावेदारी दोनों ही दलों ने रख दी. कांग्रेस के भजनलाल और लोकदल की तरफ से देवीलाल. लेकिन राज्यपाल गणपति देव तपासे ने कांग्रेस के भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. कहा जाता है कि इस बात से गुस्साये देवीलाल ने राज्यपाल तपासे को थप्पड़ मार दिया था.
आंध्रप्रदेश- इसी तरह 1983 से 1984 के बीच आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे ठाकुर रामलाल ने बहुमत हासिल कर चुकी एनटी रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. उन्होंने सरकार के वित्त मंत्री एन भास्कर राव को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया. बाद में राष्ट्रपति के दखल से ही एनटी रामाराव आंध्र की सत्ता दोबारा हासिल कर पाए थे. तत्कालीन केंद्र सरकार को शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बनाना पड़ा.
गोवा- साल 1980 में गोवा में कांग्रेस का एक भी विधायक जीतकर नहीं आ पाया, फिर भी सरकार कांग्रेस ने ही बनाई और वो भी बिना राष्ट्रपति शासन लगाए. ये शायद भारत के इतिहास में पहली बार हो रहा था. दरअसल 1961 में गोवा की मुक्ति के बाद 1963 में पहले चुनाव से लेकर 1979 की जनता पार्टी सरकार तक गोवा में एक ही पार्टी का शासन रहा और जनसंघ (बीजेपी) या कांग्रेस अपनी जड़ें जमाने में नाकाम रहीं.
इन तमाम मामलों पर नजर डालें तो कर्नाटक में बीजेपी आज वही कर रही है जो कांग्रेस हमेशा से करती रही है. नेहरू जी ने तो केरल में नंबूदरीपाद की अगुवाई वाली पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को ही बर्खास्त कर दिया था. बीजेपी ने उसी राजनीतिक इतिहास से सबक लिया है. आज बीजेपी देश में बेहद ताकतवर है. मोदी के सामने बिखरा हुआ और कमजोर विपक्ष है. जिसे नहीं पता कि वो मोदी का मुकाबला कैसे, किन मुद्दों पर और किस चेहरे के साथ करना है.
सच ये भी है कि देश में जब-जब खंडित जनादेश आता है तब-तब नैतिकता के सारे मानदंड ध्वस्त हो जाते हैं. वैसे राजनीति में 'साम-दाम-दण्ड-भेद' कौटिल्य का सिद्धांत भी यही कहता है यानि कि सफलता ही अंतिम सत्य है.
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
कर्नाटक चुनाव: कांग्रेस ने जो बोया आज वही फसल काट रही है
ABP News Bureau
Updated at:
17 May 2018 02:37 PM (IST)
आज की बीजेपी में सत्ता की भूख है. मोदी के निर्णयों में इंदिरा गांधी की छाप दिखती है. ना निर्णय लेने में देरी और ना ही सरकार बनाने के लिये विरोधी पार्टियों से गुरेज. सत्ता संघर्ष में सबकुछ जायज. वैसे मोदी-शाह का तो एजेंडा ही 'कांग्रेस मुक्त भारत' का है.
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