(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
सीएए पर 4 साल तक चुप्पी, अब चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार की सक्रियता, मंशा पर सवाल में है दम
पिछले कुछ दिनों से नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 या'नी सीएए सुर्ख़ियों में है. यह क़ानून चार साल पहले बना था. अब तक लागू नहीं हो पाया था. अब केंद्र सरकार इसे लागू करने की तैयारी में है. पिछले दो महीने के भीतर इस क़ानून को लागू करने को लेकर कई केंद्रीय मंत्री भी बयान दे चुके हैं. इनमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी शामिल हैं.
आगामी लोक सभा चुनाव से पहले ही इसे लागू करने की आधिकारिक घोषणा केंद्र सरकार कर सकती है. गृह मंत्रालय जल्द ही इस क़ानून को व्यवहार में लागू करने से जुड़े नियमों का एलान कर सकता है. मंत्रालय के अधिकारियों से जानकारी मिली है कि नियम तैयार हैं. इस क़ानून के तहत नागरिकता देने से जुड़ी पूरी प्रक्रिया डिजिटल तरीक़े से पूरी की जाएगी और इसके लिए ऑनलाइन पोर्टल बनाया जा चुका है. नागरिकता के लिए ऑनलाइन आवेदन करना होगा. इसमें आवेदकों को भारत में अपने प्रवेश के वर्ष का ख़ुलासा करना होगा. इसके अलावा किसी अतिरिक्त दस्तावेज़ की ज़रूरत नहीं होगी.
सीएए को लेकर मोदी सरकार की सुगबुगाहट
हम सब जानते हैं कि देश लोक सभा चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है. निर्वाचन आयोग कुछ दिनों में ही चुनाव तारीख़ों का एलान कर सकता है. 2019 में चुनाव आयोग ने 10 मार्च को मतदान से जुड़ी तारीख़ो का एलान किया था. इस बार भी इसी के आस-पास एलान होने की संभावना है. जैसे ही आयोग चुनाव कार्यक्रम का एलान कर देगा, पूरे देश में आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी. ऐसे में माना जा रहा है कि केंद्र सरकार 10 मार्च से पहले ही सीएए को लागू करने से जुड़े नियमों और प्रक्रिया की घोषणा कर सकती है. इसके साथ ही सीएए के पक्ष और विपक्ष में राजनीतिक सरगर्मी एक बार फिर से तेज़ हो गयी है.
दिसंबर 2019 से अब तक नियम तैयार नहीं
नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2019 लोक सभा से 9 दिसंबर और राज्य सभा से 11 दिसंबर, 2019 को पारित हो गया था. उसके बाद 12 दिसंबर, 2019 को ही इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गयी थी. इसके साथ ही विधि और न्याय मंत्रालय ने इस क़ानून को लेकर गज़ेट या'नी राजपत्र भी प्रकाशित कर दिया था. इस गज़ेट में कहा गया था कि यह क़ानून उस तारीख़ से लागू होगा जो केंद्र सरकार, आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना से तय करेगी.
जब संसद से विधेयक पारित हो जाता है और राष्ट्रपति की भी अनुमति मिल जाती है, तो किसी भी क़ानून के लिए नियम-क़ायदे 6 महीने के भीतर तय हो जानी चाहिए. संसदीय प्रक्रिया में यही मैनुअल है. अगर ऐसा नहीं होता है, तो सरकार को लोक सभा और राज्य सभा दोनों में अधीनस्थ विधान समितियों से विस्तार की मांग करनी पड़ती है. सीएए के मामले में भी गृह मंत्रालय नियमित रूप से क़ानून से जुड़े नियमों को तैयार करने की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए संसदीय समितियों से विस्तार की मांग करती रही है.
चार साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद केंद्र सरकार लागू करने की तारीख़ तय नहीं कर पायी. अब लोक सभा चुनाव से ठीक पहले केंद्र सरकार इसे लागू करने जा रही है. ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि कहीं इसके ज़रिये राजनीतिक लाभ लेने का लेने का मंसूबा तो निहित नहीं है. देश में हिन्दू-मुस्लिम आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश कोई नयी बात नहीं है. इस पहलू से ख़ासकर बीजेपी को देश के अलग-अलग इलाकों में राजनीतिक लाभ वर्षों से मिलता भी रहा है.
4 साल तक ख़ामोशी, चुनाव से ठीक पहले रस्साकशी
संसद से क़ानून बना है, तो लागू होगा ही. इसमें किसी तरह का शक-ओ-शुब्हा नहीं है, लेकिन चार साल की चुप्पी के बाद सीएए के माध्यम से जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है, सवाल उससे खड़ा हो जाता है. आख़िर कौन-सी मजबूरी थी कि मोदी सरकार क़ानून बनने के बावजूद इतने साल तक ख़ामोश रही है. बीच-बीच में गृह मंत्रालय के अधिकारियों की ओर से जानकारी दी जाती रही कि क़ानून को अमली जामा पहनाने के लिए प्रशासनिक और संगठनात्मक तंत्र तैयार किया जा रहा है. इसके तैयार होने के बाद ही क़ानून को लागू किया जाएगा. हालाँकि इस दलील में कोई दम नहीं है. मोदी सरकार तक़रीबन एक दशक से चाह रही थी, उसके बावजूद प्रशासनिक और संगठनात्मक तंत्र के नाम पर क़ानून बन जाने के बाद भी चार साल तक चुप्पी साधे रहना, समझ से परे है. सवाल उठता है कि अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि सीएए को लागू करने लेकर मोदी सरकार बेहद सक्रिय हो उठी है.
सरकार को क़ानून में संशोधन की ज़रूरत क्यों पड़ी?
भारत में नागरिकता देने के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 पहले से ही मौज़ूद है. बाद में इस क़ानून में कई बार संशोधन भी किया गया है. जब मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनी, उसके बाद से ही मौजूदा सीएए को लाने के लिए केंद्र सरकार प्रयासरत थी. मोदी सरकार चाहती थी कि बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता दी जाए. मुस्लिमों को इससे बाहर रखना था.
समस्या यह थी कि मोदी सरकार उन लोगों को नागरिकता देना चाहती थी, जो अवैध तरीक़े से भारत आए हैं और जिनके पास भारत में आने से संबंधित कोई यात्रा दस्तावेज़ नहीं हो. इससे लिए ज़रूरी था कि नागरिकता अधिनियम, 1955 में बदलाव किया जाए. ऐसा होने पर ही तीन देशों के छह धर्मों से जुड़े अवैध प्रवासियों को भारतीय नागरिकता बिना किसी बाधा के मिल सकती थी.
ऐसे में यह कहना सही नहीं है कि मोदी सरकार की ओर से 2019 में ही इस क़ानून को लाने का प्रयास किया गया. मोदी सरकार के एजेंडे में यह 2014 से ही शामिल था. इस क़ानून को लाने के लिए मोदी सरकार की ओर से पहली बड़ी कोशिश 2016 में की गयी. नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 तैयार किया गया था. जुलाई 2016 में लोक सभा में पेश भी किया गया. संयुक्त संसदीय समिति ने इस पर विचार किया. जनवरी, 2019 में समिति की रिपोर्ट भी आ गयी. लोक सभा से जनवरी 2019 में इसे मंज़ूरी भी मिल गयी, लेकिन 16वीं लोक सभा के विघटन के बाद यह विधेयक समाप्त हो गया.
मई 2019 में मोदी सरकार सत्ता में बरक़रार रही. नए सिरे से दिसंबर 2019 में संसद से नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया गया. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह क़ानून बन गया. इसमें जो प्रमुख प्रावधान और उसके निष्कर्ष हैं, उन पर एक नज़र डालते हैं...
- यह नागरिकता देने से संबंधित क़ानून है. नागरिकता छीनने से इसका कोई संबंध नहीं है.
- इसके दायरे में तीन देश अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से अवैध तरीक़े से भारत में आने वाले लोग शामिल हैं.
- इसके दायरे में इन तीन देशों के 6 धर्म के लोग आते हैं. हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोगों को ही इस क़ानून से नागरिकता मिल पाएगी. इन तीनों देशों से अवैध तरीक़े से भारत आने वाले मुस्लिम धर्म के लोग भारतीय नागरिकता पाने के हक़दार नहीं होंगे.
- नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 में एक ख़ास अवधि का भी ज़िक्र है. यह भारत में प्रवेश से जुड़ी तारीख़ है. तीन देशों से संबंधित 6 धर्मों के जो भी अवैध प्रवासी 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत आए हैं, वे लोग ही इस क़ानून के तहत भारतीय नागरिकता पाने के योग्य माने जाएंगे.
- इस क़ानून में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि अवैध प्रवास या नागरिकता के संबंध में किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ लंबित कोई भी कार्यवाही उसे नागरिकता प्रदान करने पर समाप्त हो जाएगी. या'नी अवैध प्रवास का टैग ख़त्म हो जाएगा.
- संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्र और बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत अधिसूचित "द इनर लाइन" के दायरे में आने वाले क्षेत्र पर यह क़ानून लागू नहीं होगा.
- अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से संबंधित हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदाय से जुड़े लोगों के लिए भारत में निवास की अवधि से जुड़ी शर्त में छूट का प्रावधान कर दिया गया. विदेशी नागरिकों के लिए देशीयकरण या नैचरलज़ैशन के तहत भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए भारत में कम से कम 11 साल रहने की अनिवार्यता है. मौजूदा क़ानून के लिए जरिए लाभार्थी लोगों के लिए इस अवधि को घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया है.
सीएए लागू होने से यह सुनिश्चित हो जाएगा कि अवैध प्रवासियों का एक बड़ा समूह भारतीय नागरिक हो जाएगा. उन्हें वैध दस्तावेज़ के बिना भी भारत में रहने पर निर्वासित नहीं किया जाएगा या कारावास नहीं भेजा जाएगा. इस तरह की कार्यवाही ही बंद हो जाएगी.
सीएए, 2019 के दायरे में मुस्लिम शामिल नहीं
नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 में मोटे तौर पर यही प्रावधान हैं. इस क़ानून को लेकर कुछ भ्रांतियाँ भी हैं, जिनके बारे में आम लोगों को सही जानकारी होनी चाहिए. मोदी सरकार ने धार्मिक उत्पीड़न को आधार बनाकर नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 में ही छह धर्मों का जगह दी है. मोदी सरकार का शुरू से यह पक्ष रहा है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में मुस्लिम धर्म के लोगों का धार्मिक उत्पीड़न नहीं होता है. यही कारण है कि सीएए में मुस्लिम समुदाय को शामिल नहीं किया गया है. धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों को जटिल प्रक्रिया से मुक्ति देने के लिए यह क़ानून बनाया गया.
नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 के ज़रिये नागरिकता अधिनियम, 1955 में निहित नैचरलज़ैशन या पंजीकरण प्रक्रिया से भारतीय नागरिकता हासिल करने के प्रावधान में कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है. इसका मतलब है कि पहले की तरह ही कोई भी विदेशी नागरिक या भारतीय मूल का विदेशी नागरिक इन दोनों तरीक़ो से भारतीय नागरिकता हासिल करने का प्रयास कर सकता है.
अवैध प्रवासियों को बाहर भेजने से सीएए का संबंध नहीं
जब नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 बना था, उस समय केंद्र सरकार की ओर से स्पष्ट कर दिया गया था कि इस क़ानून का संबंध किसी भी विदेशी को भारत से बाहर भेजने से संबंधित नहीं है. किसी भी विदेशी नागरिक (चाहे वो किसी भी धर्म या देश का हो) को भारत से बाहर भेजने की प्रक्रिया पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) एक्ट, 1920 और फॉरनर्स एक्ट, 1946 के तहत ही की जाती है. इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है. इसका मतलब है कि सामान्य निर्वासन प्रक्रिया सिर्फ़ और सिर्फ़ गैर-क़ानूनी तरीक़े से भारत में रह रहे विदेशियों पर ही लागू होगी. इसके ज़रिये सरकार कहना चाहती है कि सीएए का बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से अवैध तरीक़े से भारत आए मुस्लिम अप्रवासियों को वापस भेजने से संबंध नहीं है.
एक बात और समझ लेनी चाहिए कि इन तीन देशों के अलावा बाक़ी देशों में धार्मिक उत्पीड़न का सामना कर रहे हिन्दू या दूसरे धर्म के लोग 2019 के क़ानून के दायरे में नहीं आते हैं. इसलिए भारतीय नागरिकता की चाह रखने वाले ऐसे लोगों को पहले से निर्धारित नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत ही प्रक्रिया पूरी करनी होगी.
भारतीय नागरिकों पर नहीं पड़ेगा कोई असर
मोदी सरकार इस तरह की आशंका को भी पहले ही ख़ारिज कर चुकी है कि मौजूदा क़ानून भारतीय मुस्लिमों को धीरे-धीरे भारत की नागरिकता से बाहर कर देगा. इस क़ानून का किसी भी तरह से कोई भी संबंध भारतीय नागरिकों से नहीं है. सरकार यह भी कह चुकी है नागरिकता संशोधन क़ानून का नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स या'नी NRC से भी कोई संबंध नहीं है.
असम अकॉर्ड कमज़ोर करने को लेकर आपत्ति
सीएए, 2019 के ख़िलाफ़ में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि यह 1985 के असम अकॉर्ड को कमज़ोर करता है. इस अकॉर्ड के तहत अवैध शरणार्थियों को पकड़ने या वापिस भेजने के लिए 24 मार्च 1971 की कट ऑफ डेट निर्धारित है. या'नी इस तारीख़ के पहले भारत में पूर्वी पाकिस्तान ( मौजूदा बांग्लादेश) से आए शरणार्थियों को प्रक्रिया के तहत भारतीय नागरिकता देने की व्यवस्था थी. मौजूदा सीएए में कट ऑफ डेट 31 दिसंबर, 2014 रखा गया है. इसको आधार बनाकर असम में सीएए का भारी विरोध शुरू से किया जा रहा है. हालाँकि मोदी सरकार कहती आयी है कि यह क़ानून किसी भी तरह से असम अकॉर्ड की मूल भावना को कमज़ोर नहीं करता है.
इस क़ानून का विरोध करने वाले लोगों की एक दलील यह भी रही है कि इसमें बलूच, अहमदिया या रोहिंग्या के लिए जगह नहीं है. इन समुदाय के लोग अभी भी भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं. हालाँकि इसके लिए उन्हें नागरिकता अधिनियम, 1955 से संबंधित योग्यता पूरी करनी होगी.
असम और पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक विरोध
सीएए के विरोध से जुड़ा एक व्यापक पहलू असम और पश्चिम बंगाल की जनसांख्यिकीय संरचना या डिमाग्रफी से जुड़ा है. हम सब जानते हैं कि पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से पलायन कर भारी मात्रा में लोग असम और पश्चिम बंगाल पहुँचे. इनमें हिन्दुओं के साथ ही मुस्लिमों की भी बड़ी तादाद है. मौजूदा सीएए से इन दोनों ही राज्यों में हिन्दुओं को तो आसानी से भारतीय नागरिकता मिल जाएगी, लेकिन मुस्लिम इससे वंचित ही रहेंगे. इन दोनों ही राज्यों में एक बड़ा तबक़ा मानता है कि सीएए के जऱिये बीजेपी डिमाग्रफिक स्ट्रकचर बदलना चाहती है, जिससे भविष्य में पार्टी को लाभ हो. सीएए का मुद्दा सामाजिक ताने-बाने से जुड़ा है. असम का एक तबक़ा इसे असमिया लोगों की पहचान को ख़तरे में डालने वाला क़ानून मानता है.
जब 2019 में संसद में विधेयक लाया गया था, तो इसके ख़िलाफ़ देशव्यापी आंदोलन का भी एक दौर चला था. सीएए के लागू होने को लेकर असम और पश्चिम बंगाल सबसे संवेदनशील राज्य हैं. असम और पश्चिम बंगाल में विरोध का सुर सबसे मुखर रहा था. अभी भी कमोबेश इन्हीं दो राज्यों में विरोध का स्वर सबसे तेज़ है. इस क़ानून से कितने लोगों को फ़ाइदा होगा या फिर असम और पश्चिम बंगाल के साथ ही किन-किन राज्यों में जनसंख्या की सामाजिक संरचना पर प्रभाव पड़ेगा, इसको लेकर फ़िलहाल कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं है.
सीएए से बने राजनीतिक माहौल से किसे होगा लाभ?
दरअसल क़ानून बनने के इतने साल बाद सीएए को लेकर सुगबुगाहट से एक बात तो तय है. जब क़ानून बन रहा था, तब भी इसके पक्ष और विपक्ष का आधार धार्मिक था. अब भी स्थिति वैसी ही है. इतना तय है कि एक बार फिर से सीएए को लेकर जो माहौल बना है और आगे भी बनेगा, उसका असर लोक सभा चुनाव पर भी देखने को मिल सकता है. कम से कम पश्चिम बंगाल में राजनीतिक असर सबसे अधिक होगा. अगर चुनावी लाभ के नज़रिये से ग़ौर करें, तो बीजेपी के लिए पश्चिम बंगाल में यह सबसे अधिक फ़ाइदा वाला पहलू है.
हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण!
बीजेपी ने 2019 के लोक सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में 18 सीट जीतकर बड़ी कामयाबी हासिल की थी. हालाँकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने 2021 के विधान सभा चुनाव में ऐतिहासिक और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया. उसके बाद से पश्चिम बंगाल में बीजेपी की स्थिति कमज़ोर हुई है. बीजेपी इस बार पश्चिम बंगाल की 42 में से 35 लोक सभा सीट जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही है. ममता बनर्जी की मज़बूत स्थिति को देखते हुए यह बेहद मुश्किल लक्ष्य है. पश्चिम बंगाल में अगर वोटों का ध्रुवीकरण हिन्दु-मुस्लिम के आधार पर हो, तो यह बीजेपी के पक्ष में जा सकता है.
असम में बीजेपी मज़बूत स्थिति में हैं. तात्कालिक तौर से सीएए से बने राजनीतिक माहौल से बीजेपी असली फ़ाइदा पश्चिम बंगाल में उठाना चाह रही है. इन दोनों राज्यों के अलावा सीएए से जो राजनीतिक माहौल बनेगा, उससे दूसरे राज्यों में भी धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण होने की संभावना को बल मिल सकता है. यह भी एक पहलू है, जिस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है. सीएए को लागू करने को लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय अगर जल्द ही कोई नोटिफिकेशन जारी करता है, तो असम और पश्चिम बंगाल में इसके ख़िलाफ आंदोलन तेज़ होने की पूरी संभावना है.
अनुच्छेद 14 के हनन से जुड़ा प्रश्न भी महत्वपूर्ण
सीएए की संवैधानिकता को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा. इस क़ानून के विरोध में एक और दलील दी जाती रही है. क़ानून से संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 14 का हनन होगा. अनुच्छेद 14 विधि के समझ समता से संबंधित है. यह अनुच्छेद व्यक्तियों, नागरिकों और विदेशियों तक को समानता को क़ाननू की नज़र में समानता की गारंटी देता है. सीएए का विरोध करने वाले लोगों का तर्क है कि इस क़ानून में मूल देश और धर्म के आधार पर भेदभाव किया गया है. बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के अलावा भी म्यांमार और श्रीलंका जैसे कई देश हैं, जहाँ धार्मिक उत्पीड़न का इतिहास रहा है. बड़े पैमाने पर रोहिंग्या और श्रीलंकाई तमिल भारत में शरण लेते रहे हैं. अगर भविष्य में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 की समीक्षा करती है, तो अनुच्छेद 14 के उल्लंघन का बिंदु महत्वपूर्ण रहने वाला है.
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