नागरिकता का सवाल: परेशान करने वाला तथ्य और आतिथ्य का लोकाचार है?
लोकसभा में आधी रात तक चली आठ घंटे की बहस के दौरान अमित शाह ने खुद को विपक्ष के हमले से बचाया. आप मेरे विचार से अहमत हो सकते हैं लेकिन लगातार नेहरू और कांग्रेस पर अमित शाह का हमला उनकी इतिहास की कम समझ को दिखाता है.
सरकारें हमेशा झूठ बोलती हैं. सिर्फ अधिनायकवादी या निरंकुश सरकारें ही नहीं बल्कि खुद को लोकतंत्रिक बताने वाली सरकारें भी ऐसा करती हैं. कुछ उदारवादियों के पोषित दृष्टिकोण के विपरीत जो ट्रंप प्रशासन को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जो नैतिक मानकों का पालन नहीं करता और उसकी तुलना पिछली सरकारों से करते हैं. विशेषकर ओबामा प्रशासन से जिसे नैतिक संभावना का स्वर्णिम युग माना जाता है. अमेरिकी सरकार की पीढ़ियों का आधार ही झूठ है. अपने निर्वासन के वक्त अफगानिस्तान युद्ध में ड्रोन के इस्तेमाल को लेकर ओबामा ने झूठ बोला. हमें बताया जाता है कि उनका यह संदर्भ मायने रखता है. सच पूछिए तो पोस्ट ट्रुथ के मामले में ओबामा का ट्रंप से कोई मुकाबला नहीं है चूंकि ट्रंप और उनके गुर्गे हमेशा अलग-अलग तरीके से झूठ बोलते रहे हैं. झूठ के कई प्रकार होते हैं, झूठ सिर्फ वो नहीं है जिसमें गलत तथ्य दिया गया हो, या फिर धोखा देने के इरादे से दिया गया बयान हो, बल्कि वह वादा भी है जिसे यह जानकर किया गया हो कि वह पूरा नहीं हो सकता.
वर्तमान भारत सरकार के बारे यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन मामलों में वे अलग हैं. इसके अधिकांश वादे, खासतौर पर हिंदू निर्वाचन क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए किए गए हैं, जो झूठे हैं. अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है. बेरोजगारी इतिहास में सबसे ज्यादा है. प्रधानमंत्री ने भारत को खुले में शोच से मुक्त देश घोषित तो कर दिया है जबकि इसके समर्थन के लिए कोई सही सबूत नहीं हैं. सरकार की कुछ रिपोर्ट प्रधानमंत्री के दावे से मेल नहीं खातीं. इन सब को छोड़ दें तो हाल ही में लोकसभा से 311-80 से पास हुए नागरिकता संशोधन बिल का हाल भी ऐसा ही है. इस बिल को लेकर सरकार इतनी आश्वस्त थी कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी को भी जरूरी नहीं समझा गया. प्रधानमंत्री झारखंड में पार्टी की क्लीन स्वीप के लिए प्रचार कर रहे थे.
नागरिकता बिल पर अमित शाह के मजूबत बचाव से कुछ समस्याएं पैदा होती हैं. अपने भाषण में अमित शाह ने ऐसे वादे किए जो पूरे नहीं किए जा सकते जैसे कि भारतीय मुसलमानों को यह आश्वासन कि बिल का उन पर प्रभाव नहीं है और ना ही इसे मुसलमानों को राज्यविहीन करने के लिए बनाया गया है. लेकिन कोई इस बात को नहीं जानता है. अधिनायकवादी राज्य अल्पसंख्यकों के लिए संकट पैदा कर सकते हैं, लेकिन वे कभी-कभी अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए जाने जाते हैं, जब तक ऐसे अल्पसंख्यक राजनीतिक अशांति पैदा नहीं करते हैं. इन दिनों निरंकुश शासकों को भी कम से कम बहुलता और विविधता के मानदंडों के प्रति निष्ठा के बाहरी संकेतों को दिखाना होगा.
1955 के नागरिकता कानून में बदलाव करने के लिए नागरिकता संशोधन बिल को लाने का प्रयास पहली बार 2016 में किया गया. यह बिल पाकिस्तान, अगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता देगा. बिल में कहा गया है कि यह लोग 31 दिसंबर 2014 से पहले बार आए हों. इन लोगों के ना सिर्फ निर्वासन से राहत मिलेगी बल्कि पंजीकरण के जरिए नागरिकता भी दी जाएगी. इस बिल की आलोचना करने वालों का तर्क है कि जानबूझकर इस बिल से मुस्लिमों को बाहर रखा गया है. इसके जरिए मुस्लिमों में भय पैदा करने की कोशिश की जा रही है. यह हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए लंबे समय से चल रहे प्रयास का हिस्सा है. नैतिक तौर पर नागरिकता बिल संविधान के आर्टिकल 14 का उल्लंघन करता है.
लोकसभा में आधी रात तक चली आठ घंटे की बहस के दौरान अमित शाह ने खुद को विपक्ष के हमले से बचाया. आप मेरे विचार से अहमत हो सकते हैं लेकिन लगातार नेहरू और कांग्रेस पर अमित शाह का हमला उनकी इतिहास की कम समझ को दिखाता है. नेहरू की आलोचना निंदनीय है और यह महज संयोग नहीं है कि नागरिकता बिल के लिए आधी रात को वोटिंग करवाई गई. नेहरू ने भी आधी रात को ही आजादी के बाद अपना भाषण दिया था. अमित शाह और बीजेपी लंबे समय से हिंदुओं को "आजादी" देने का वादा कर रहे थे जो उन्हें मुस्लिम शासकों और ब्रिटिश सरकार से नहीं मिली और आखिरकार नेहरू के सांचे में धर्मनिरपेक्षतावादियों को हटा दिया. धर्मनिरपेक्षतावादियों और उदारवादियों के बीच असहजता पैदा करने के लिए की जाने वाली गृह मंत्री की टिप्पणियों पर विचार किया जाना चाहिए.
पहली बात पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान मुख्यतः मुस्लिम देश हैं. नागरिकता बिल के लिए जो तर्क दिया जा रहा है उसके मुताबिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण की आवश्यकता है ना कि बहुसंख्यक को. उदाहरण के लिए नागरिकता बिल एक ऐसे हिंदू को नागरिकता देने के वादा नहीं करता है, जो 2014 से पहले हिंदू-बहुल मॉरीशस से आए हों, या पड़ोसी देश नेपाल से. एक बार "अल्पसंख्यकों" और "प्रमुखताओं" की भाषा के लिए प्रतिबद्ध होने के बाद परिणाम के लिए भी प्रतिबद्ध है. अगर किसी को सुरक्षा की जरूरत है तो वह अल्पसंख्यक होंगे.
दूसरी बात शाह ने यह सच मान लिया है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा की जरूरत है. यह तर्क दिया जा सकता है कि अमित शाह सही बोल रहे हैं. इन देशों में अल्पसंख्यकों की हालत बहुत ही निराशाजनक रही है, यहां तक कि 1951 में पश्चिम पाकिस्तान में हिंदुओं की जनसंख्या भी पाकिस्तान में 1.6% पर स्थिर रही है. लेकिन, कुल मिलाकर, पाकिस्तान की आबादी में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी 1940 के अंत में लगभग 23% से घटकर वर्तमान में 3.5% हो गई. जातीय रूप से विविध अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक व्यावहारिक रूप से अस्तित्वहीन हैं, और एक बार संपन्न हिंदू और सिख समुदायों को पिछले चार दशकों में प्रारंभिक गिरावट का सामना करना पड़ा है. 40 साल पहले शुरू हुए गृहयुद्ध में इन गैर-मुस्लिम समुदायों की निकटता का वर्णन किया जा सकता है, लेकिन यह बहाना करना बेकार होगा कि अफगानिस्तान में मुजाहिदीन और इस्लामी पुनरुत्थान की गैर-मुस्लिमों के गायब होने से कोई लेना-देना नहीं है.
यह बिल एक बड़ा सवाल खड़ा कर सकता है, उदाहरण के लिए सरकार, अहमदिया के दावे को कैसे संभालती है, जो खुद को मुसलमानों के रूप में देखते हैं, लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों में न केवल विधर्मियों के रूप में घोषित किए गए हैं, बल्कि उन पर ज़ुल्म भी हो रहे हैं? इस मामले पर बिल में कुछ नहीं कहा गया है. लेकिन शाह ने श्रीलंका से शरणार्थियों के मामले पर जरूर बात रखी. उन्होंने कहा कि 1964 में साइन किए समझौते को अन्य प्रावधानों के साथ, भारत को 525,000 तमिलों के प्रत्यावर्तन के लिए कहा गया था.
इसलिए, रक्षा की उनकी तीसरी बात से यह प्रतीत होता है कि “जब भी नागरिकता पर हस्तक्षेप हुआ है, यह एक विशिष्ट रूप से समस्या का विषय रहा है. जिसे इस दौरान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के शरणार्थी के लिए इसे अमल में लाया जा रहा है.” चौथी बात यहा कि इस धारणा का खंडन करते हुए कि विधेयक को "हिंदू राष्ट्र" बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया है, शाह ने कहा कि भारत में हिंदुओं का प्रतिशत 1951 के बाद से घट गया है, स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना से पहले हिंदू जहां 84% थे वह 79% हो गए है. इसके विपरीत, भारत की जनसंख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी 9.8% से बढ़कर 14.23% हो गई है.
अमित शाह द्वारा दिए गए तथ्य, या जिन पर उनकी ओर से अवश्य ही विचार किया जाना चाहिए वो ये कि वे इस बात का सबूत नहीं देते हैं कि "हिंदू राष्ट्र" बनाने का प्रोजेक्ट उनके हाथ में है. धर्मनिरपेक्षतावादी अपने पुराने अधिकार के बारे में सभी को याद दिलाने कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर इसे "झूठे, मनगढ़ंत और गलत आंकड़े" करार देंगे. लेकिन एक यह एक तर्क है जो गृह मंत्री की टिप्पणियों से पता चलता है कि अब पहचान, समृद्धि और विकास, हिंदू आख्यानों में एक महत्वपूर्ण तत्व बन कर रह गया है. मुस्लिम देशों की तरफ नजर करें तो वे सभी मुस्लिम बहुल राज्य हैं, चाहे वे पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका और यहां तक कि यूरोप में हैं. वे अपने स्वयं को एक मुस्लिम राष्ट्र के तौर पर दावा कर सकते हैं, लेकिन क्या हिंदुओं के पास ऐसा एक भी देश है? भारत के विषय में हिंदू इसे अपना घर कहने के अलावा और क्या कह सकते हैं? (नेपाल के संदर्भ में बात करें तो इसे हिंदू राष्ट्र के रूप में संज्ञा दी जा रही है, लेकिन यह राष्ट्र हाल ही में संवैधानिक राजतंत्र से संघवाद के रूप में बदल गया है.)
संवैधानिकता और बहुलवाद की जुड़वां भाषाओं में धर्मनिरपेक्षतावादियों और मुसलमानों को इसका जवाब देने का आश्रय दिया है. ये शक्तिशाली भाषाएं हैं, लेकिन कम से कम इस समय देश के इतिहास में ये एक हल्के हवा के झोंके की तरह है. यह सुनिश्चित करने के लिए कि बहुलतावाद, धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिकता के आह्वान से संभव सवालों को दबाया जाता है. उदाहरण के लिए क्या नागरिक संशोधन बिल, नागरिकता के लिए धार्मिक परीक्षण लागू करता है? हालांकि सरकार का दावा है कि इस बिल में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भारतीय मुसलमानों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता हो, लेकिन उन भारतीय मुसलमानों का क्या होगा जिनके पास यह दिखाने के लिए किसी तरह का कोई तथ्य नहीं है कि वे इसी मिट्टी से ताल्लुक रखने हैं जिनने हिंदू, सिख या जैन रखते हैं! और उन मुसलमानों में क्या जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, या बांग्लादेश से भागकर भारत आए और दशकों तक भारत में अपना घर बना चुके हैं? सरकार और उसके समर्थकों द्वारा ये तर्क दिया जाएगा कि वे सभी इसी देश के हैं. यहां तक कि जो इस लोकतंत्र का दावा करते हैं, वे कुछ बाहरी लोगों को अनुमति देने और दूसरों को बाहर करने का विशेषाधिकार बरकरार रखते हैं. यद्यपि स्वीडन और डेनमार्क जैसे देशों को अक्सर प्रगतिशील लोकतंत्रों के उदाहरण के रूप में देखा जाता है, वे ड्रैकोनियन नियंत्रण पर अमल करते हैं.
हमें इस डिबेट को एक अलग स्तर पर ले जाने के लिए और भी बातों को ध्यान में रखना होगा. ये बाते किसी भी हिंदुओं को याद दिला सकता है कि वर्तमान सरकार द्वारा किए जा रहे उपाय भारत को पाकिस्तान की तरह बना रहे हैं, लेकिन विडंबना है कि सरकार के पास अपना बात रखने के लिए एक मजबूत पक्ष नहीं है. भारत में, कम से कम, हम आतिथ्य के समृद्ध इतिहास के बारे में बात कर सकते हैं. राष्ट्रवादी हिंदू जो अजीब तरह से शिकायत करते हैं कि उनके पास अपना खुद का कहने के लिए कोई देश नहीं है और वर्तमान सरकार अब लंबे समय से के बाद उनके इस सपने को पूरा कर रही है. इनसे यह महसूस होता है कि भारत की जो भी विलक्षणता है वह पूरी तरह से खत्म हो जाएगी यदि देश में हो रही कार्रवाई वर्तमान परिवेश में चलती रहे. उनका हिंदू धर्म भी इस्लाम और ईसाइयत की तरह ही दिखने लगेगा.
ऐसी नागरिकता, रविंद्रनाथ टैगोर के विचार से काफी दूर है. टैगोर का स्पष्ट विचार था कि एक संस्कृति जिसे अब अपने स्वयं के धर्म के बारे में पता नहीं है, वह दुनिया में व्यावहारिक रूप में से खो सी गई है. वह एक बार बंगाल में यात्रा कर रहे थे और कलकत्ता से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर थे, तभी उनकी कार ओवरहीट हो गई, हर दस किलोमीटर पर उन्हें अपनी कार के लिए पानी मांगना पड़ता था ताकि वह इंजन को ठंडा कर सकें. पूरा क्षेत्र भयंकर सूखे से पीड़ित था. कुछ समय के बाद, पंद्रह गांवों के माध्यम से टैगोर को एक गहरी बात का अनुभव हासिल हुआ. हालांकि, ग्रामीणों के पास पानी नहीं था, यहां तक कि उनके पास पीने के लिए पानी नहीं था, मगर उनके आतिथ्य की भावना ने उन्हें पानी देने के लिए मना नहीं किया.
गृह मंत्री और प्रधान मंत्री को ये बात कौन समझाएगा, जिनके घमंड ने उन्हें यह सोचने में प्रेरित किया है कि उन्हें राष्ट्रवाद की आवश्यकता है ताकि वह अपने दुश्मनों से हिंदू धर्म को बचा सके?
विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं.
वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/faculty/vinay-lal
यूट्यूब चैनलः https://www.youtube.com/user/dillichalo
ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.com/
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)